इंदिरा आवास योजना के तहत 25,000 रुपये देने के लिए ब्लॉक डेवलपमेंट अफसर (बीडीओ) के दफ्तर में 5,000 रुपये की रिश्‍वत मांगी जा रही थी. लाचार, अनपढ़ और ग़रीब मज़लूम तीन सालों से बीडीओ के दफ्तर के चक्कर लगा रहा था. मज़लूम की मदद गांव के ही सामाजिक कार्यकर्ता अशोक सिंह ने सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगने का आवेदन बनाकर की.
118-largeमनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल के 78 में से 71 मंत्री महज़ साढ़े तीन सालों में 786 बार विदेश यात्राओं पर रहे. इन मंत्रियों ने कुल मिलाकर एक करोड़ दो लाख किलोमीटर की हवाई यात्राएं कीं. 15 दिनों के कॉमनवेल्थ खेल तमाशे के लिए जनता के टैक्स के वे 725 करोड़ रुपये भी लगा दिए गए, जो अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण के लिए बजट में रखे गए थे. कश्मीर में तैनात एक मेजर की मां जानती है कि उसके बेटे की आत्महत्या की कहानी झूठी है और अब उसकी जानकारी के आगे मजबूर भारतीय सेना को मामले की पुन: जांच करानी पड़ रही है. गाज़ियाबाद ज़िले के सरकारी स्कूलों में नौकरी कर रहे अध्यापक अपनी पहुंच और पैसों के बल पर अपनी तैनाती ज़िला मुख्यालय में ही करा लेते हैं, यह जानकारी जनता को जब होती है तो पहुंच और पैसों की ताक़त कमज़ोर पड़ जाती है.
ये सारे खुलासे सूचना क़ानून के ज़रिए ही हुए हैं. आप ज़रा सोचें कि क्या ये खुलासे आज से पांच साल पहले तक संभव थे? और अगर थे भी, तो क्या ये खुलासे आम आदमी कर सकता था? गुलामी के लंबे इतिहास के बाद इस देश में परिवर्तन की बेहद महत्वपूर्ण घटनाएं घट रही हैं और इनका आधार बन रहा है 2005 में लागू सूचना का अधिकार क़ानून. 13 अक्टूबर, 2010 को यह कानून पांच साल पुराना हो गया. बिहार के झंझारपुर गांव (जिला मधुबनी) में रिक्शा चालक मज़लूम ने 2006 में ही जिस तरह इस क़ानून का इस्तेमाल किया, उससे इसकी ताक़त एवं उपयोगिता को लेकर एक नया भरोसा पैदा होता है. इंदिरा आवास योजना के तहत 25,000 रुपये देने के लिए ब्लॉक डेवलपमेंट अफसर (बीडीओ) के दफ्तर में 5,000 रुपये की रिश्‍वत मांगी जा रही थी. लाचार, अनपढ़ और ग़रीब मज़लूम तीन सालों से बीडीओ के दफ्तर के चक्कर लगा रहा था. मज़लूम की मदद गांव के ही सामाजिक कार्यकर्ता अशोक सिंह ने सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगने का आवेदन बनाकर की. सवाल पूछते ही एक सप्ताह के भीतर मज़लूम को 15 हज़ार रुपये का चेक मिल गया. एक महीने बाद जब बाक़ी के  10,000 रुपये लेने गए मज़लूम से रिश्‍वत मांगी गई तो अनपढ़ मज़लूम ने बीडीओ से साफ-साफ कह दिया कि अगर मेरा पैसा नहीं दोगे तो फिर से सोचना की अर्जी लगा दूंगा. सोचना और सूचना में फ़र्क न समझने वाले निरक्षर मज़लूम को एक ही अनुभव में मालूम हो गया कि यह कोई बड़ा परिवर्तन हो गया है. ज़ाहिर है, यह परिवर्तन समाज के सशक्तिकरण में सहायक साबित हुआ है. बस ज़रूरत इस क़ानून के इस्तेमाल करने की है, बिना किसी डर के.

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