राजनीति अगर शक्ति और सत्ता की आराधना का दूसरा नाम है तो मानना पड़ेगा कि कांग्रेस अब इन दोनों लोकतांत्रिक देवियों की बेहतर आराधक नहीं रह गई है। जब कोई पार्टी विजय की संभावनाओं में से पराजय खींच निकाले और स्पष्ट राजनीतिक लाभ को राजनीतिक नुकसान में बदलते हुए दिखे तो समझ लेना चाहिए कि वह ढलान पर तेजी से फिसल रही है।

पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को बाजी जीत सकने वाले खिलाड़ी की तरह पेश आना चाहिए था, लेकिन वह न केवल हारी बल्कि जीतने का प्रयास करने में खासी कोताही करती हुई भी दिखी। जिन समीक्षकों को यह घटना पुरानी लग रही हो, उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से संबंधित ताजा घटनाक्रम में आलाकमान की भूमिका पर नजर डालनी चाहिए।

22 साल बाद और मजबूरी में ही सही, लेकिन कांग्रेस कम से कम पार्टी अध्यक्ष का चुनाव तो करवा रही थी। इस प्रक्रिया से उसकी सार्वजनिक छवि को कुछ न कुछ लाभ होना लाजिमी था। साथ ही कांग्रेस को ऐसा अध्यक्ष मिल सकता था, जो गांधी परिवार की मदद से संगठन का कील-कांटा दुरुस्त करके उसे 2024 के चुनाव के लिए संघर्ष की स्थिति में ला देता।

अध्यक्ष का चुनाव भीतरी मामला था। भाजपा उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी। आलाकमान योजना बनाने, उस पर अमल करने और इच्छित नतीजे हासिल करने के लिए आजाद था। इसके बावजूद आलाकमान जो अध्यक्ष प्राप्त करने जा रहा है, वह उसकी प्राथमिकता न हो देकर ‘मरता क्या न करता’ वाली मजबूरी का चयन है। राजस्थान की राजनीति पूरी तरह से आलाकमान के हाथों से निकल गई है।

हम चाहें तो राजस्थान की कांग्रेस को इस समय कांग्रेस (गहलोत) का नाम भी दे सकते हैं। दरअसल, कांग्रेस को अभी तक पता नहीं लग पाया है कि विपक्ष में रहकर राजनीति कैसे की जाती है। लोकतांत्रिक राजनीति का अलिखित नियम है कि सत्ता में रहते समय केंद्रीकरण किया जाता है और विपक्ष की भूमिका निभाते समय विकेंद्रीकरण की युक्ति अपनानी पड़ती है।

अगर कांग्रेस केंद्रीय सत्ता में होती तो अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद छोड़ने का आदेश देकर जयपुर की गद्दी पर किसी को भी बैठा सकती थी। लेकिन इस समय कांग्रेस जिस स्थिति में है, उसमें उसे गहलोत को अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखते समय उन्हें यह आश्वासन भी देना चाहिए था कि कुर्सी पर उनका आदमी ही बैठेगा।

ऐसा होता तो केंद्रीय पर्यवेक्षक के रूप में अजय माकन उस एक लाइन के प्रस्ताव को आसानी से पारित करवा सकते थे, जिसके मुताबिक मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार सोनिया गांधी को दिया जाना था। चूंकि ऐसा आश्वासन नहीं दिया गया, इसलिए गहलोत और उनके समर्थकों को लगा कि इस प्रस्ताव का मतलब होगा सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनने देना। क्या गहलोत को अध्यक्ष चुने जाने से पहले मुख्यमंत्री पद छोड़ देने का हाईकमान द्वारा दिया गया वह निर्देश मान लेना चाहिए था, जो लोकतांत्रिक परिपाटी के विरोध में था?

वे ऐसा करते तो राजस्थान की राजनीति से उनकी पकड़ खत्म हो जाती। उस सूरत में वे ऐसे राष्ट्रीय अध्यक्ष होते, जो आलाकमान द्वारा अपनी शक्ति से वंचित किए जा चुके होते। क्या ऐसे अशोक गहलोत कांग्रेस के ठप पड़े संगठन को खड़ा कर पाते? क्या उन्हें अपनी सारी जिंदगी की राजनीतिक कमाई छोड़ देने के लिए तैयार हो जाना चाहिए था? राजस्थान के 102 में से 92 विधायक गहलोत के साथ क्यों थे और पायलट के साथ क्यों नहीं?

क्या ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता था, जिसके साथ 90% विधायक न हों? कहा जा रहा है कि सोनिया आहत हैं। लेकिन इन सवालों की रोशनी में कहा जा सकता है कि उनके राजनीतिक नेतृत्व पर लगे घाव स्वयं उनकी ही कारस्तानी हैं। जब गहलोत को लगा कि उन्हें स्वायत्तता-विहीन अध्यक्षता और सत्ता-सम्पन्न मुख्यमंत्रित्व में से किसी एक चुनना है तो उन्होंने मुख्यमंत्रित्व को चुना। कोई भी अक्लमंद राजनेता उस स्थति में वैसा ही करता।

कांग्रेस आलाकमान ने अशोक गहलोत को पसंद करके अक्लमंदी दिखाई थी। लेकिन वह उन्हें अध्यक्ष बनाने के लिए जरूरी दूरंदेशी और होशियारी का मुजाहिरा नहीं कर पाया और इसका खामियाजा भुगता।

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