गुजरात और हिमाचल के मतदाताओं का मूड जानने के लिए किए सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि इनके लोग सरकारों के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं। फिर भी सर्वेक्षण दिखा रहे हैं कि यहां न केवल सत्तारूढ़ भाजपा जीतेगी, बल्कि शायद वह जीत के सारे रिकॉर्ड भी तोड़ डाले। इस विरोधाभास की व्याख्या किस तरह की जा सकती है? इसका उत्तर जानने के लिए हमें चुनावी गोलबंदी के पिछले पचास साला इतिहास पर निष्पक्ष दृष्टि डालनी होगी।

साठ के दशक के बाद कई बार मतदाता कांग्रेस से खुश नहीं होते थे, फिर भी कांग्रेस चुनाव जीतती रहती थी। इसका बड़ा कारण यह था कि कांग्रेस के अलावा कोई और पार्टी या गठजोड़ मतदाताओं को राजनीतिक स्थिरता का भरोसा नहीं दे पाता था। 1967 में दस राज्यों में जो संयुक्त विधायक दल की गठजोड़ सरकारें बनी थीं या 1977 में जिस जनता पार्टी को मतदाताओं ने बहुमत दिया था, उनका हश्र बार-बार राजनीतिक पलड़े को कांग्रेस के पक्ष में झुका देता था।

पूंजीपति वर्ग भी जांची-परखी कांग्रेस के साथ ही सहज महसूस करता था। भाजपा का अभी भी वैसा प्रभुत्व नहीं है। दक्षिण भारत अभी भी उसके प्रभाव-क्षेत्र से बाहर है और विगत दोनों लोकसभा चुनावों में उसने कांग्रेस के उत्कर्ष के दिनों की तुलना में कहीं कम प्रतिशत वोटों के जरिए बहुमत प्राप्त किया है। फिर भी दो उदाहरण देखें। पहला है गुजरात का। अस्सी के दशक में गुजरात कांग्रेस के नेता माधव सिंह सोलंकी और जीनाभाई दारजी ने एक रणनीति बनाई थी, जिसे खाम (केएचएएम) के नाम से जाना जाता है।

इसका मतलब हुआ क्षत्रिय (गुजरात के लिए ओबीसी, राजपूतों को इस प्रदेश में राजघराने वाला कहा जाता है), हरिजन, आदिवासी और मुसलमानों का गठजोड़। सोलंकी स्वयं कोली थे जो गुजरात में सबसे बड़ी ओबीसी जाति है। कमजोर समुदायों और मुसलमानों की चुनावी एकता के दम पर 1985 में कांग्रेस ने 149 सीटें हासिल कीं। यह एक रिकॉर्ड है, जिसे भाजपा भी नहीं तोड़ पाई। लेकिन इस एकता की प्रतिक्रिया में पटेलों की शक्तिशाली बिरादरी (15%) और द्विज जातियां (10%) नाराज हो गईं।

सोलंकी ने 1980 में सीएम के तौर पर बख्शी कमीशन की सिफारिशों के आधार पर पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिया था। इसके िखलाफ 1981 और 1985 में पटेलों और द्विज जातियों द्वारा दो आक्रामक आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाए गए। मुसलमानों को छोड़कर खाम गठजोड़ में बाकी सभी समुदाय आरक्षण से लाभान्वित होने वाले थे। 1989 में भाजपा को इसका लाभ मिला। पटेल और द्विज उसके वोटर बन गए। हिंदू राष्ट्रवाद ने इस जनाधार में और वोटर जोड़े।

नतीजतन, 1989 से जितने भी लोकसभा चुनाव हुए, भाजपा उनमें लगातार कांग्रेस से आगे बनी रही। विधानसभा पर भी उसका पिछले तीस साल से कब्जा है। यानी कांग्रेस की रिकॉर्ड जीत के गर्भ में उसकी अनगिनत हारें छिपी थीं। दूसरा उदाहरण है यूपी का। अस्सी और नब्बे के दौरान यूपी में बहुजन (दलित, ओबीसी और धर्मांतरित मुसलमान) एकता के लिए प्रयास हुए। इस राजनीति ने ऊंची जातियों को शोषक, उत्पीड़क, साम्प्रदायिक के रूप में पेश किया। गठजोड़ों की सरकारें बनने लगीं।

यह सिलसिला मोटे तौर पर 2017 तक चलता रहा। लेकिन सेकुलरिज्म की जीत और ब्राह्मणवाद विरोध के रूप में देखी जाने वाली इस राजनीति की सफलता में भी भविष्य की पराजयें छिपी थीं। प्रदेश में संख्यात्मक रूप से प्रबल ऊंची जातियों और यादवों-जाटवों जैसे प्रभुत्वशाली समुदायों द्वारा सामाजिक न्याय के दायरे से बाहर रखी गईं कुछ कमजोर जातियां भाजपा की तरफ खिंच रही थीं। राजनीतिक विफलता का यह दौर ही भाजपा को स्थायी जनाधार देने वाला था।

आज स्थिति यह है कि यूपी में एंटी-इनकम्बेंसी के बावजूद ये वोटर हमेशा उसका साथ देते हैं। ये मिसालें बताती हैं कि अगर कुछ जातियों की संख्यात्मक गोलबंदी और कुछ जातियों की उपेक्षा करके आक्रामक बहुमत खड़ा किया जाएगा तो उसके विरोध में हिंदू समाज के भीतर धीरे-धीरे प्रतिक्रिया जन्म लेती है। वे जातियां नए राजनीतिक ध्रुव की तलाश करने लगती हैं।

जैसे ही उन्हें वह ध्रुव मिलता है, वे निष्ठापूर्वक उससे जुड़ जाती हैं। फिर थोड़ी-बहुत एंटी-इनकम्बेंसी उन्हें उस निष्ठा से नहीं डिगा पाती। वे नाराज होते हुए भी सरकार बदलने के लिए वोट नहीं करतीं। इससे राजनीतिक जड़ता और यथास्थिति जड़ जमा लेती है। चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया सकारात्मक परिवर्तन में विफल हो जाती है।

कुछ जातियों की एकता हमें श्रेयस्कर लगती है और कुछ की एकता को हम प्रतिगामी कहते हैं। इससे बदलती राजनीति को समझना कठिन हो जाता है। देखें कि पार्टियों का जनाधार कैसे कायम रहता है।

Source: Dainik Bhaskar

Adv from Sponsors