दिल्ली के राजपथ को अब कर्तव्यपथ कहा जाएगा। जिसे कभी कनॉट प्लेस कहा जाता था, वह कई साल पहले ही राजीव चौक हो चुका है। जो राउज़ एवेन्यू था, वह दीनदयाल उपाध्याय मार्ग बना है। इरविन अस्पताल अब जयप्रकाश नारायण चिकित्सालय है और विलिंगडन अस्पताल को हम राममनोहर लोहिया अस्पताल के नाम से जानते हैं।

इंडिया गेट से जार्ज पंचम की प्रतिमा पहले ही हटाई जा चुकी है। मुम्बई के विक्टोरिया टर्मिनस के नाम का भी स्वदेशीकरण हो गया है। तो क्या यह मान लिया जाए कि गुलामी के प्रतीकों से छुटकारा पाने का तरीका हमें पता लग गया है? अगर ऐसा है तो सरकार को एक ही बार में देश के जितने भी अंग्रेजी या यूरोपियन नामों वाले स्थान, स्मारक, मार्ग या बाजार हैं, उनकी सूची बनवा लेनी चाहिए। उनका भारतीय नामकरण करने से एक ही तीर चलाकर उपनिवेशीकरण की यादों को समाप्त किया जा सकता है। चाहें तो सेंट्रल विस्टा का भी नाम बदलकर कोई संस्कृतनिष्ठ नाम कर दें।

सवाल यह है कि अगर नाम बदलने की प्रक्रिया पूर्ण हो गई तो क्या इससे देश-समाज-दुनिया को देखने का हमारा नजरिया बदल जाएगा? क्या नामों को बदलने से गारंटी हो सकती है कि जब हम आजाद भारत के राज्यशास्त्र के बारे में चिंतन करेंगे तो हमारा नजरिया हॉब्स, लॉक और मिल के विचारों पर निर्भरता के बजाय कौटिल्य के अर्थशास्त्र या भीष्म के उपदेश पर भी निर्भर होगा?

क्या उस सूरत में न्यायशास्त्र की बात करते समय हम जॉन रॉल्स की सैद्धांतिकी के मोहताज नहीं होंगे? साहित्यिक सिद्धांत के लिए जेमसन, ईगलटन और लुकाच की शरण में जाने के बजाय अभिनवगुप्त और आनंदवर्धन के विमर्श को खंगालेंगे? सार्वजनिक जीवन पर चर्चा करते समय हमारे पास हैबरमास की पब्लिक स्फीयर थियरी के अलावा भी कुछ होगा?

भाषाओं की संरचना पर विचार करने के लिए सस्यूर की मदद लेंगे या भर्तृहरि की? और तो और, जब नामों को बदलने की कवायद पूरी हो चुकेगी तो क्या एक ज्ञानपूर्ण शोधपरक निबंध लिखने के लिए हमारे पास पश्चिमी विद्वानों और अंग्रेजी में रचे जाने वाले समाज-विज्ञान द्वारा थमाए गए निबंध के ढांचे के अलावा भी कोई ढांचा होगा?

इन सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। दरअसल, भारत ने वास्तविक स्वदेशीकरण की तरफ पहला कदम भी नहीं उठाया है। असली स्वदेशीकरण तो तब होता है जब भाषा, ज्ञान और शिक्षा का स्वदेशीकरण किया जाता है। दिक्कत यह है कि यह काम न एक झटके में किया जा सकता है, और न ही इसके साथ शिलान्यास या मूर्ति-अनावरण के कार्यक्रम जुड़े हो सकते है।

अगर आजादी के तुरंत बाद स्वदेशीकरण का कार्यक्रम लिया जाता तो कम से कम पच्चीस साल लम्बा ब्लूप्रिंट बनाना पड़ता। राष्ट्र-निर्माण करने वालों की पूरी पीढ़ी इसमें खप जाती। जो प्रधानमंत्री इस काम को शुरू करता, हो सकता है उसके जीवन में यह काम पूरा नहीं हो पाता। चूंकि ऐसा न तब किया गया और न अब किया जा रहा है, इसलिए दर्जा छह की नागरिकशास्त्र या सिविक्स की किताब से लेकर राजनीतिशास्त्र की एमए तक की किताबों में पश्चिमी विद्वानों द्वारा रचा ज्ञान भरा हुआ है।

हमने वास्तविक स्वदेशीकरण की तरफ पहला कदम भी नहीं उठाया है। वो तब होता है जब भाषा, ज्ञान और शिक्षा का स्वदेशीकरण किया जाता है। दिक्कत यह है कि यह काम एक झटके में नहीं हो सकता।

इससे फर्क नहीं पड़ता कि केंद्र या राज्यों में किस पार्टी और विचारधारा की सरकार है- औपनिवेशिक महाप्रभुओं द्वारा रचे गए ज्ञान को आज तक किसी सरकार ने चुनौती देने की जुर्रत नहीं की है। हम ज्ञान के इन्हीं विदेशी रूपों में अपने समाज, संस्कृति और इतिहास का अध्ययन करने के लिए मजबूर हैं।

विडम्बना यह है कि इस ज्ञान को हम गुलामी का प्रतीक नहीं मानते। हमारे बुद्धिजीवियों ने इस ज्ञान के अध्ययन से पैदा होने वाली दुविधाओं से बचने के लिए एक खास युक्ति विकसित कर ली है। वे उपनिवेशवादियों द्वारा किए जाने वाले आर्थिक शोषण और राजनीतिक सम्प्रभुता के हरण को अलग श्रेणी में रखते हैं और उपनिवेशवाद का समर्थन करने वाले विमर्शकारों द्वारा उत्पादित ज्ञान को दूसरी श्रेणी में रखते हैं।

नई शिक्षा नीति के दस्तावेज को पढ़ने पर आभास होता है कि शायद शिक्षा संबंधी नीति-निर्माताओं को इस जिम्मेदारी का कुछ-कुछ अहसास है। लेकिन यह दायित्व दस्तावेज में जिक्र कर देने भर से तो पूरा नहीं हो सकता। यह तो तभी होगा जब पश्चिमी सामाजिक सिद्धांत के अध्ययन को स्थगित कर ज्ञान की भारतीय परम्पराओं का पालन किया जाए। पश्चिमी ज्ञान की लिखाई-पढ़ाई तो हमारे बुद्धिजीवी ढाई सौ साल से कर ही रहे हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Source: Dainik Bhaskar

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