न्याय का मूल सिद्धांत बदल रहा है, उसे बदल भी देना चाहिए. जब हमारे मन में उसके लिए कोई न इज़्ज़त हो, और न कोई जज़्बा, तो यही करना उचित है. मूल सिद्धांत है चाहे सौ अपराधी छूट जाएं, पर किसी निर्दोष को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए. अब अलिखित सिद्धांत में पुलिस का भरोसा है कि एक अपराधी को बचाने के लिए सौ निर्दोषों को सज़ा देनी चाहिए. सोहराबुद्दीन और इशरत जहां इसके उदाहरण हैं, ये इसलिए उदाहरण नहीं हैं, क्योंकि ये मुसलमान हैं, बल्कि ग़ैर मुसलमानों में यह प्रतिशत बहुत ज़्यादा है. ये दोनों उदाहरण भी अचानक, कुछ लोगों के न्याय के लिए लड़ने के पागलपन की वजह से सुप्रीम कोर्ट के सामने आए और फिर सीबीआई ने इनकी जांच की. उस जांच ने कुछ ऐसे तथ्य खोले, जिन पर अगर आज ध्यान नहीं दिया गया तो कल भाजपा हो या कांग्रेस, या कोई और राजनीतिक दल, या तो शिकार बनेगा या शिकार बनाएगा.
क्या अमित शाह अवैध वसूली का धंधा चलाते थे, और सोहराबुद्दीन उनके इस धंधे का एक पुर्जा था? अगर था भी, तो यह तो साबित हो गया कि उसे ज़िंदा पकड़ा गया और फिर मारकर मुठभेड़ में मरा दिखा दिया गया. उसकी पत्नी कौसर बी ने जब अपने पति के साथ जाने की ज़िद की तो गुजरात एटीएस के अधिकारियों ने पहले तो उसे भगाना चाहा, फिर अपने साथ ले गए. उसके साथ दो दिन और दो रातों में क्या हुआ, सीबीआई इस पर ख़ामोश है, पर हमारी जांच कहती है कि उन दो दिन और दो रातों तक उसका बलात्कार हुआ, बाद में उसे ज़हर का इंजेक्शन दे मार दिया गया.
क्या अमित शाह अवैध वसूली का धंधा चलाते थे, और सोहराबुद्दीन उनके इस धंधे का एक पुर्जा था? अगर था भी, तो यह तो साबित हो गया कि उसे ज़िंदा पकड़ा गया और फिर मारकर मुठभेड़ में मरा दिखा दिया गया. उसकी पत्नी कौसर बी ने जब अपने पति के साथ जाने की ज़िद की तो गुजरात एटीएस के अधिकारियों ने पहले तो उसे भगाना चाहा, फिर अपने साथ ले गए. उसके साथ दो दिन और दो रातों में क्या हुआ, सीबीआई इस पर ख़ामोश है, पर हमारी जांच कहती है कि उन दो दिन और दो रातों तक उसका बलात्कार हुआ, बाद में उसे ज़हर का इंजेक्शन दे मार दिया गया.
इससे पहले इशरत जहां केस में भी यही हुआ. पटना की रहने वाली ग़रीब घर की लड़की अपने मित्र के साथ पकड़ ली जाती है और नरेंद्र मोदी को मारने आई आत्मघाती दस्ते की सदस्य बताकर उसे मार दिया जाता है. उस फार्म हाउस के मालिक ने, जहां कौसर बी को रखा गया था, बयान दिया कि इसके पहले इशरत जहां को भी यहां रखा गया था तथा उसके साथ भी बलात्कार हुआ था, बाद में मार दिया गया. इसीलिए गुजरात उच्च न्यायालय ने दो हज़ार चार में पुलिस की मुठभेड़ थ्योरी को ग़लत मानते हुए इसकी जांच सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेष जांच टीम को सौंप दी है. इस मुठभेड़ की न्यायिक जांच मजिस्ट्रेट तमांग ने की थी, जिन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि सात सितंबर, 2004 की मुठभेड़ फर्ज़ी है और इसे पुलिस अधिकारियों ने अपने निजी हितों के लिए अंजाम दिया था.
अगर ईमानदारी से सुप्रीम कोर्ट कहे कि अपने साथ हुई ज़्यादतियों का ब्यौरा देने वालों को जान माल का संरक्षण क़ानून देगा तो क्या मुसलमान और क्या हिंदू या क्या ईसाई और क्या जैन, हज़ारों की लाइन लग जाएगी, जो बताएगी कैसे उनके साथ पुलिस ने ज़्यादतियां कीं, बलात्कार किए और उनके घर वालों को स्वार्थ पूर्ति के लिए मार दिया. ऐसे केस सामने आ गए हैं, जिनमें साबित हुआ है कि पुलिस वाले ही एनकाउंटर में मारने की सुपारी लेते हैं और मार देते हैं.
अ़फसोस की बात है कि ऐसे केस सामने भी आते हैं, थोड़ी देर शोर भी मचता है और फिर कुछ नहीं होता. हमारी न्याय प्रक्रिया अपराधियों को बचा देती है, परिणामस्वरूप अपराध रोकने वालों के बीच अपराधी गिरोह बनने का सिलसिला चलता रहता है. सरकार और विपक्ष को बिना राजनैतिक हितों को ध्यान में रख उस पर सोचना चाहिए. लेकिन हमें पता है कि न सरकार सोचेगी और न विपक्ष सोचेगा.
इसे न सोचने का परिणाम अब सामने आ रहा है. पुलिस आम जनता के निशाने पर आ गई है. देश में जहां भी पुलिस के लोग आंदोलित लोगों के सामने आते हैं, उनके गुस्से का शिकार हो जाते हैं. नक्सलवादी इलाक़ों में तो हालत बहुत ख़राब है, वहां पुलिस जंगल में या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाती. बहुत सी जगहों पर तो जहां उसकी चौकियां हैं, वहां अपने हथियार और अपनी जान बचाने के लिए वह नक्सलवादियों को हफ्ता देती है. यह भी विडंबना है कि हफ्ता वसूलने का आरोप झेलने वाली पुलिस अब स्वयं हफ्ता दे रही है. जहां स्थिति ख़राब होती है, वहां पुलिस असफल साबित होती है और अर्धसैनिक बलों की मांग आनी शुरू हो जाती है. चाहे बाढ़ हो, सूखा हो, दंगा हो या नक्सलवादी समस्या हो, या तो अर्धसैनिक बलों को बुलाया जाता है या सेना को.
कई कमीशन बने कि पुलिस को ज़िम्मेदार बनाने, सक्षम बनाने और नागरिकों की सहायता योग्य बनाने के लिए उसकी पूरी ट्रेनिंग शिक्षा को आमूल बदला जाए, जिसकी स़िफारिशें उन्होंने कीं. पता नहीं कहां हैं सिफारिशें, किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया. सरकारें आ रही हैं और जा रही हैं, लेकिन पुलिस की गुणवत्ता दिनोंदिन घटती जा रही है.
इसलिए जब इशरत जहां और सोहराबुद्दीन जैसी घटनाएं सामने आती हैं तो आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि ऐसी घटनाएं तो आम मान ली गई हैं. कौन इस स्थिति को सुधारेगा, कौन पुलिस को ज़िम्मेदार बनाएगा, पता नहीं, पर आशा अच्छे की करनी चाहिए. इतना ज़रूर है कि अगर आशा संसद से नहीं है तो कोई बात नहीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट से आशा नहीं टूटी है. सुप्रीम कोर्ट को इस देश की पूरी पुलिस व्यवस्था को तत्काल सुधारने पर ध्यान देना चाहिए. यह मामला अनाज सड़ने और अनाज को ग़रीबों में बांटना चाहिए जैसी सलाह से थोड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर सुप्रीम कोर्ट ने ध्यान न दिया तो पुलिस व्यवस्था पूरी तरह सड़ जाएगी और देश को क़ानून व्यवस्था के तू़फान में झोंक देगी.