अब एक नया रोमन सम्राट अपने विजय रथ पर सवार होकर रोम की गलियों से निकल रहा था, तो वहां खड़े लोग उसका स्वागत कर रहे थे. तभी सम्राट के पीछे खड़े एक शख्स ने उसके कान में कहा कि यह समय हमेशा नहीं रहेगा. किसी लोकतंत्र में यह बात आम जनता कहती है. दिल्ली के मतदाताओं ने एक चौंकाने वाला संदेश दिया है. सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट को छोड़कर आज तक कोई भी राजनीतिक दल 95 फ़ीसद सीटें हासिल नहीं कर सका और न किसी राज्य में पूर्व में सत्ता में रहे किसी राजनीतिक दल के 90 फ़ीसद उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त हुई. यदि आम आदमी पार्टी ने खुद को पुनर्जीवित किया है और कांग्रेस ने आत्मविनाश (जिसमें बेशक राहुल गांधी का कुसूर नहीं है) किया है, तो भाजपा इस मायने में भाग्यशाली है कि उसे देश के चुनावी चक्र में बहुत जल्द एक बड़ी चेतावनी मिल गई है.
67 के मुक़ाबले तीन के आंकड़े को कम करके नहीं आंका जा सकता. पहली बात अरविंद केजरीवाल को यह याद रखनी चाहिए कि वह इस कामयाबी को हलके में नहीं ले सकते. इस बार उन्हें दिल्ली की सड़कों पर धरना देकर ट्रैफिक जाम करने के बजाय अच्छा शासन देना है. उन्हें एक दूसरा मौक़ा मिला है, जो किसी और को विरले ही मिलता है. उन्हें साबित करना है कि वह एक सक्षम प्रशासक हैं. हालांकि, यह कामयाबी हरियाणा और उत्तर प्रदेश में सत्ता पर कब्जा करने का लालच पैदा कर सकती है, जैसा कि पिछली बार हुआ था. आम आदमी पार्टी इसलिए जीती, क्योंकि यह दिल्ली की पार्टी थी. यह दिल्ली के इतिहास में पहली पार्टी थी, जिसे राष्ट्रीय पार्टियों ने बहुत छोटी चुनौती समझा. जब शीला दीक्षित बहुत अधिक कामयाब हो गईं और वंशवाद पर ख़तरा मंडराने लगा, तो कांग्रेस ने उनके पर कतर दिए. वहीं भाजपा यह फैसला नहीं कर पाई कि दिल्ली में नरेंद्र मोदी के रहते एक मुख्यमंत्री की ज़रूरत है या नहीं? केवल आप ही ऐसी पार्टी थी, जिसने एमसीडी की तरह जनता को परेशान करने के बजाय ज़मीनी स्तर पर दिल्ली के हितों की बात की.
केजरीवाल को अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करके दिल्ली को रहने के लिए एक बेहतर स्थान बनाने की कोशिश करनी चाहिए. यहां भीड़भाड़ बढ़ गई है, हर जगह अवैध रूप से खड़ी गाड़ियां नज़र आती हैं, प्रदूषण की हालत बीजिंग से भी बदतर है. कचरा इकट्ठा करने और उसे ठिकाने लगाने के लिए कोई खास सुविधा मौजूद नहीं है. बिजली के बिल के अतिरिक्त भी दिल्ली में करने के लिए बहुत कुछ है. झुग्गी-झोंपड़ियों को नियमित करने और ग़रीबों के लिए सस्ता पेयजल मुहैय्या कराने जैसे मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. ग़रीब आदमी को पीने का पानी खरीदना पड़ता है, जबकि मध्य वर्ग को सस्ता मिलता है. महिलाओं की सुरक्षा पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है. जहां तक भाजपा का सवाल है, तो उसे कांग्रेस की तरह व्यवहार करना छोड़ देना चाहिए. शीर्ष नेतृत्व के बचाव में सफाई नहीं देनी चाहिए. अगर भाजपा जीत गई होती, तो सारा श्रेय मोदी और अमित शाह के हिस्से में गया होता. उन्हें अब सामने आकर हार की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, जो एक नेता की पहचान होती है. विपरीत परिस्थितियां आदमी को बहुत कुछ सिखाती हैं.
2002 के बाद मोदी को पहली चुनावी हार का सामना करना पड़ा है. उन्हें पूछना चाहिए कि ग़लती कहां हुई? क्या पार्टी मोदी मैजिक पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर हो गई थी? दिल्ली में जो नारे लग रहे थे, उसके केंद्र में केवल मोदी थे. जिनमें न कोई वादा था और न कोई योजना. केवल दिल्ली में स्थिरता के लिए मोदी को वोट दें. बाक़ी सब खुद हो जाएगा, क्योंकि हम केंद्र में सत्ता में हैं. यह संदेश कि भाजपा जब तक सत्ता में नहीं आएगी, तब तक दिल्ली को किसी अच्छी योजना की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, प्रधानमंत्री के संघीय सहयोग के विजन का मज़ाक उड़ाता है. भाजपा ने मई 2014 के बाद होने वाले चुनावों का आकलन नहीं किया. पार्टी को महाराष्ट्र में बहुमत नहीं मिला और वह जम्मू-कश्मीर में भी सबसे बड़ी पार्टी नहीं बन सकी. भाजपा संघ परिवार को अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने से नहीं रोक सकी और न अपने सांसदों एवं मंत्रियों को अनुशासित करके भड़काऊ भाषण देने से रोक सकी. केवल एक व्यक्ति का करिश्मा पार्टी को हमेशा जीत नहीं दिला सकता.
अभी भारतीय जनता पार्टी को चुनावी वादे भी पूरे करने हैं. शेयर बाज़ार का संवेदी सूचकांक ही एक ऐसी जगह है, जहां अच्छे दिन आ गए हैं. बाकी सारा देश अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रहा है. मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत की तरह एक नारा है. सवाल यह है कि उक्त नारे हक़ीकत में कब और कितनी जल्द परिवर्तित होंगे. दिल्ली के नतीजों ने विपक्ष को खुश कर दिया है. राज्यसभा की कार्यवाही अब और अधिक बाधित होगी. जो अध्यादेश लाए गए हैं, अब उन्हें आसानी से पारित नहीं कराया जा सकता है. फिलहाल भाजपा को राज्यसभा में जल्द बहुमत हासिल करने की आशा छोड़ देनी चाहिए. अब आवश्यकता यह है कि सबका विकास (जिस मुद्दे पर मोदी जीतकर आए थे) के मुद्दे पर सर्वसम्मति बनाने के लिए सरकार अपने रवैये में नरमी लाए, क्योंकि सबका साथ में विपक्ष को भी शामिल करना होगा.