पांच सितंबर की मध्य रात्रि श्रीनगर में पानी का स्तर अचानक बढ़ने लगा. उस समय अधिकतर लोग अपने घरों में सो रहे थे. भारी बारिश और पानी के तेज़ बहाव से पैदा होने वाली आवाज़ ने जब उन्हें नींद से जगाया, तो यह देखकर उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा कि पानी उनके घरों में अंदर तक घुस आया है. उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि यह पानी 12-14 फिट तक भर जाएगा. वे अपनी जान बचाने के लिए ऊंची जगहों की तरफ़ भागे. जो लोग तीन-चार मंज़िला इमारतों में रहते थे, वे अपने घर की ऊपरी मंज़िलों की तरफ़ भागे.
सड़कों, घरों एवं गलियों में 12 फिट तक भरा हुआ पानी. पानी में बहती हुई कार एवं गैस के सिलेंडर. घर की छतों पर भूखे-प्यासे, सरकारी मदद का इंतज़ार करते लोग. पेड़ों पर लटकी और पानी में बहती इंसानों एवं जानवरों की लाशें. हवाई जहाज़ के इंतज़ार में एयरपोर्ट के बाहर हज़ारों की संख्या में लोगों की भीड़. बिजली न होने के कारण अंधेरे में डूबे हुए शहर एवं गांव. अपने प्रियजनों की तलाश में हैरान-परेशान लोग. यह था वह मंज़र, जो छह सितंबर को कश्मीर में देखने को मिला. लगातार चार दिनों तक होने वाली बारिश और उससे आने वाली बाढ़ ने लोगों को बदहाल कर दिया था. सवाल यह है कि जब जम्मू के बाढ़ नियंत्रण विभाग (फ्लड कंट्रोल डिपार्टमेंट) ने 2010 में ही आशंका जता दी थी कि श्रीनगर में भारी बारिश से कभी भी सैलाब आ सकता है, तब भी राज्य सरकार ने बचाव की कोई तैयारी क्यों नहीं की?
लोग यह भी सवाल कर रहे हैं कि जब पूरे राज्य में चार सितंबर से लगातार बारिश हो रही थी और नदियों में जलस्तर तेज़ी से बढ़ने लगा था, तब भी सरकार क्यों नहीं चेती कि इससे कभी भी भयावह सैलाब आ सकता है? सरकार ने नदियों के आसपास रहने वाले लोगों को कोई चेतावनी क्यों नहीं दी और समय रहते उन्हें वहां से किसी सुरक्षित जगह पर क्यों नहीं पहुंचाया गया? उमर अब्दुल्ला सरकार ने अगर थोड़ी भी सक्रियता दिखाई होती, तो आज शायद तबाही का यह मंज़र हमें देखने को नहीं मिलता. सैलाब में फंसे लोग बाढ़ नियंत्रण विभाग के मंत्री श्यामलाल शर्मा को ढूंढते रहे, लेकिन वह अपने मंत्रालय के पूरे अमले के साथ ग़ायब रहे. यही हाल सरकार के दीगर मंत्रियों एवं सचिवों का भी रहा. जनता त्राहि-त्राहि करती रही और मुख्यमंत्री यह कहते रहे कि बाढ़ ने पूरी सरकारी मशीनरी को ही प्रभावित कर दिया है, सरकार के लोग ख़ुद अपनी जान बचाने में लगे हुए हैं. क्या जनता ने इसीलिए सरकार को चुना था कि वह उसे मुसीबत की घड़ी में छोड़कर भाग जाएगी?
पांच सितंबर की मध्य रात्रि श्रीनगर में पानी का स्तर अचानक बढ़ने लगा. उस समय अधिकतर लोग अपने घरों में सो रहे थे. भारी बारिश और पानी के तेज़ बहाव से पैदा होने वाली आवाज़ ने जब उन्हें नींद से जगाया, तो यह देखकर उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा कि पानी उनके घरों में अंदर तक घुस आया है. उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि यह पानी 12-14 फिट तक भर जाएगा. वे अपनी जान बचाने के लिए ऊंची जगहों की तरफ़ भागे. जो लोग तीन-चार मंज़िला इमारतों में रहते थे, वे अपने घर की ऊपरी मंज़िलों की तरफ़ भागे. अगले दिन जब उजाला हुआ, तो चारों तरफ़ पानी ही पानी था. अधिकतर मकान डूब चुके थे, सड़कों का नामो-निशान नहीं था. अगले चार-पांच दिनों तक लोग वहीं फंसे रहे. जब तक उनके पास खाने-पीने का सामान था, उसे खाते-पीते रहे, लेकिन जब सब कुछ ख़त्म हो गया, तो सामने खड़ी मौत ने उन्हें डराना शुरू कर दिया. वह बेसब्री से सरकारी मदद का इंतज़ार करने लगे. सरकारी मदद तो नहीं पहुंची, अलबत्ता कुछ दिनों के बाद सेना और आसपास के लोग फरिश्तों की शक्ल में उन्हें बचाने के लिए वहां ज़रूर पहुंच गए, लेकिन ऐसे ख़ुश नसीब लोगों की संख्या कम ही थी.
ग़रीब, मज़दूर एवं कम हैसियत वाले लोगों को अपनी जान बचानी भारी पड़ गई. वे न तो अपनी जान बचाने में कामयाब हो सके और न अपने बाल-बच्चों या अपने मवेशियों की. कुछ हिम्मत वाले लोग ऐसे ज़रूर थे, जो 15-20 किलोमीटर पानी में चलकर किसी सूखे स्थान तक पहुंचने में सफल तो हुए, लेकिन हफ़्तों तक उन्हें न तो खाना मिला और न पानी. अब बहुत धीमी रफ़्तार से उन तक सरकारी सहायता पहुंच रही है, जो उनके लिए काफ़ी नहीं हैं. लोग भूखे-प्यासे तो हैं ही, कई रातों से सोए भी नहीं हैं और बहुत ज़्यादा थके हुए हैं, जिससे उनके बीमार पड़ने का ख़तरा बढ़ गया है. दूसरी तरफ़, बाढ़ का पानी अधिकतर इलाक़ों में अब भी ठहरा हुआ है, जिससे महामारी फैल सकती है. अस्पतालों की हालत भी ठीक नहीं है, वहां भी पानी भरा हुआ है और बिजली न होने से बहुत-सी मशीनें ख़राब हो चुकी हैं.
चौथी दुनिया ने जब कश्मीर के कुछ बाढ़ प्रभावित लोगों से बात की, तो पता चला कि जिन जगहों पर बाढ़ ने भारी तबाही मचाई है, वहां तो कोई सरकारी सहायता नहीं पहुंची, लेकिन जहां कोई नुक़सान नहीं हुआ या बहुत कम हुआ है, वहां के लोगों को मदद ज़रूर मिल रही है. जो लोग सैलाब से प्रभावित नहीं हुए हैं, वे भी ख़ूब मज़े लूट रहे हैं, क्योंकि सरकार उन तक राहत सामग्री पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. सरकार के इस रवैये से बाढ़ से प्रभावित लोगों में काफ़ी ग़ुस्सा है. स्थानीय लोगों को यह भी शिकायत है कि शुरू में स़िर्फ उन्हीं लोगों को बाहर निकाला गया, जो पर्यटन के लिए यहां आए थे या फिर जो मंत्रियों एवं अधिकारियों या रसूखदारों के रिश्तेदार थे. आम जनता को यूं ही मरने के लिए छोड़ दिया गया. लोग कहते हैं कि अगर उनके अपने रिश्तेदारों या दूसरे स्थानीय लोगों ने उनकी मदद न की होती, तो आज वे जीवित न बच पाते.
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) के कुलपति प्रो़फेसर मोहम्मद असलम अपनी आपबीती बयान करते हुए कहते हैं कि छह सितंबर की रात दो बजे अगर उनके मित्र अपने बेटे के साथ वहां पहुंच कर एक सरकारी गेस्ट हाउस से उन्हें बाहर निकालने में पांच मिनट की देरी कर देते, तो आज शायद वे भी ज़िंदा न होते, क्योंकि उनके वहां से निकलने के पांच मिनट बाद गेस्ट हाउस पानी में पूरी तरह डूब गया था. प्रो़फेसर असलम अपनी पत्नी एवं बेटी के साथ भतीजी की शादी में शामिल होने के लिए दो सितंबर को श्रीनगर पहुंचे थे. वे सात सितंबर को दिल्ली वापस लौटने वाले थे, लेकिन तभी छह सितंबर को आई बाढ़ में फंस गए और बड़ी मुश्किल से 13 सितंबर को दिल्ली पहुंच पाए. उस रात जब उन्होंने ख़ुद को सैलाब में घिरा हुआ पाया, तो अपने एक मित्र को फ़ोन करके मदद मांगी. प्रो़फेसर असलम ख़ुशक़िस्मत थे कि उनके दोस्त अपने बेटे के साथ, जो एक पुलिस अधिकारी है, गाड़ी लेकर उन्हें बचाने वहां पहुंच गए. लेकिन, कश्मीर में ऐसे ख़ुशक़िस्मत लोग कम ही थे, जो समय पर किसी प्रकार की सहायता पाने में सफ़ल रहे.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रख्यात प्रो़फेसर अमिताभ मट्टू भी बाढ़ के समय अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ श्रीनगर के गोगजी बाग़ में स्थित अपने घर में फंसे हुए थे. प्रो़फेसर मट्टू बताते हैं कि 6 सितंबर की दोपहर में जब वह अपने घर से निकल कर डल झील जाने वाली बुलीवर्ड सड़क पर गए, तो यह देखकर डर गए कि झेलम नदी में पूरी तरह भर चुका पानी अब बाहर निकलने ही वाला है. यह देखकर वह तेज़ी से अपने घर की तरफ़ भागे. वह इस बात पर हैरान थे कि सरकार की तरफ़ से कोई चेतावनी नहीं दी जा रही है, जबकि जलस्तर लगातार बढ़ रहा है. प्रोफ़ेसर मट्टू बताते हैं कि सात सितंबर को गोगजी बाग़ पूरी तरह पानी में डूब चुका था. वह सवाल करते हैं कि श्रीनगर में माहिर तैराकों की एक बड़ी आबादी रहती है, इसके बावजूद सरकार ने उन्हें बचाव कार्य में क्यों नहीं लगाया? वह कहते हैं कि आठ सितंबर को उनकी और उनके माता-पिता की जान उस वक़्त बची, जब कुछ सैनिक नाव (बोट) लेकर गोगजी बाग़ पहुंचे और सबको रामबाग़ में एक सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया. वहां पहले से ही बहुत सारे लोग मौजूद थे. प्रो़फेसर मट्टू यह देखकर हैरान थे कि वहां एक भी पुलिसकर्मी या कोई सरकारी कर्मचारी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था. हालांकि, रामबाग़ पुलिस स्टेशन के अंदर तब तक पानी नहीं घुसा था और पुलिस स्टेशन में कई पुलिसकर्मी भी मौजूद थे.
सैलाब आने के दो सप्ताह बाद, 20 सितंबर को सोशल मीडिया द्वारा एक ख़बर यह आई कि पुलवामा के 43 गांव पूरी तरह पानी में डूबे हुए हैं और वहां फंसे लोगों को अति शीघ्र सहायता की ज़रूरत है. हालांकि कुछ स्थानीय युवक उन लोगों को वहां से निकालने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन साधनों के अभाव के चलते वे भी बहुत कुछ नहीं कर सकते थे. कुछ गांव तो ऐसे भी थे, जहां केवल हेलिकॉप्टरों द्वारा ही पहुंचा जा सकता था. हो सकता है कि इस ख़बर के फैलने के बाद सेना वहां पहुंची हो, लेकिन उमर अब्दुल्ला सरकार बाढ़ पीड़ितों की सहायता करने में पूरी तरह असफल रही है. अच्छी बात यह है कि अब कश्मीर के अधिकतर इलाक़ों में बाढ़ का पानी उतरने लगा है. इस समय राज्य सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि जो लोग इस प्राकृतिक आपदा से किसी न किसी प्रकार बच गए हैं, उनका पुनर्वास जल्दी कैसे हो, क्योंकि एक महीने बाद ही सर्दी का मौसम आ जाएगा. अगर बाढ़ पीड़ितों के लिए जल्द ही एक अदद छत का इंतज़ाम नहीं किया गया, तो ब़र्फ पड़ने के दिनों में उनकी जान बचाना और भी मुश्किल हो जाएगा. इसके साथ ही तहस-नहस हो चुके अस्पतालों को भी जल्दी ठीक करना ज़रूरी है. इन अस्पतालों में अधिकतर मशीनें ख़राब पड़ी हुई हैं, जिन्हें ठीक कराने या फिर नई मशीनें लगवाने की सख्त ज़रूरत है. मुसीबत की इस घड़ी में पूरे देश से कश्मीरियों के लिए सहायता सामग्री पहुंच रही है. ज़रूरत स़िर्फ इस बात की है कि राज्य सरकार के अधिकारी एवं कर्मचारी ज़मीन पर नज़र आएं और ज़रूरतमंदों तक उक्त सामग्री पहुंचाने में तेजी लाएं. हो सकता है कि उन्हें जनता के रोष का सामना करना पड़े, लेकिन अगर वे इससे घबराएंगे, तो कभी भी किसी पीड़ित की सहायता नहीं कर पाएंगे.
आपदा के बाद कश्मीर
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