वर्ष 1970 के आसपास सिंचाई व्यवस्था के लिए रोहतास और कैमूर जिले के सर्वे के दौरान दुुर्गावती नदी पर बांध बनाने की योजना बनी थी. इस बांध से दस प्रखंडों की भूमि सिंचित की जानी थी. जल संसाधन और वन विभाग के भूमि अधिग्रहण में विभागीय पेंच और कुछ अन्य मामलों में कानूनी अड़चन आने से यह प्रोजेक्ट लटक गया. कई साल तक दुर्गावती का मामला कागजों के हस्तानांतरण में ही बीत गया.
1977 में बांध स्थल के चयन और वन विभाग से एनओसी नहीं मिलने की स्थिति में चयनित स्थल ही विवादों के घेरे में आ गया. दो करोड़ की राशि से तब कार्यस्थल पर प्रारंभिक कार्य होने लगे थे. लेकिन उच्चस्तरीय कमिटी गठित होने और अधिकारियों की लापरवाही से काम बंद होता गया. साल 1978 में बिहार के तत्कालीन सिंचाई मंत्री सच्चिदानंद सिंह ने एकमुश्त 13 करोड़ की राशि आवंटित करने के साथ बांध स्थल के सभी विवादों पर विराम लगाकर 1980 तक नहरों में पानी पहुंचाने की घोषणा कर दी.
इसके बावजूद नतीजा एक बार फिर ढाक के तीन पात साबित हुआ. 1985 तक बांध स्थल रोहतास के करमचट और कैमूर के भीतरी बांध इलाके में बांध बांधने के लिए आवश्यक उपकरणों और अधिकारियों की बढ़ती आवाजाही के बीच फिर से 1991 में नहरों में पानी देने का सपना भी पूरा नहीं हो सका.
रोहतास जिले के तीन प्रखंडों चेनारी, शिवसागर व सासाराम और कैमूर जिले के पांच प्रखंड भगवानपुर, रामपुर, कुदरा, दुर्गावती और मोहनियां प्रखंडों की करीब 20000 हेक्टेयर बंजर भूमि को उर्वर बनाने और कुल मिलाकर 35000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई का मसला इस परियोजना से जुड़ा है.
इन प्रखंडों से जुड़ने और इस परियोजना से सीधे तौर पर लाभान्वित होने वाले 384 गांवों के लाखों लोगों का भविष्य इससे जुड़े होने के बाद भी काम की गति बेहद धीमी है और व्यवस्था ऐसी भ्रष्ट कि अधिकारी से लेकर चपरासी तक सभी अपनी सुविधानुसार इसे कमाई का साधन बनाने में जुटे हैं. तभी तो 26 करोड़ की योजना हर दो-तीन साल पर बढ़ती चली गयी. 1980 में 31 करोड़, 1991 में 101 करोड़, 2001 में 181 करोड़ और 2011 में 690 करोड़ से 2017 में 1064 करोड़ के आंकड़ों को पार कर गई है.
मुख्य रूप से तीन नहर प्रणालियों के सहारे यह परियोजना संचालित होनी है. दायें किनारे के मुख्य नहर से रोहतास जिला और बांये नहर से कैमूर जिला को पानी देने की योजना है. एक और बड़ी कुदरा वीयर भी कैमूर जिला को सिंचित करती है. दुर्गावती नदी के पानी को बांधकर कैमूर और रोहतास दोनों जिलों के 35000 हेक्टेयर असिंचित यानी बंजर खेतों की सींचने की दूरगामी योजना है. दुर्गावती जलाशय परियोजना की परिकल्पना जगजीवन राम ने की थी. 10 जून 1976 को शिलान्यास होने के बाद दोनों जिलों के सात प्रखंडों के करीब 384 गांवों के लाखों किसानों इसे एक जीवनदायिनी योजना मानने लगे. वहीं अधिकारियों की नजर में यह योजना सोने के अंडे देने वाली मुर्गी के समान एक पसंदीदा साइट बनकर रह गई. नेताओं और स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने भी दुर्गावती को केवल चुनावी मुद्दा बनाकर रख दिया.
मौजूदा दौर में सालाना 67 करोड़ रुपए इस योजना में केवल विभिन्न स्तरों पर वेतन-भत्ते आदि में खर्च होते हैं. जल संसाधन विभाग बिना काम कराये अपनी राशि का दुरूपयोग सरकारी कर्मचारियों पर कर रही है. जबकि इस संबंध में एक आरटीआई पिछले तीन महीनों से विभागीय टेबल पर घूम रहा है. क्या यह योजना के बजट को नहीं बढ़ायेगी, जबकि यहां ठेकेदारों की कमाई अलग से है. अधिकारियों के साथ मिलकर योजना के मानकों में छेड़छाड़ कर भ्रष्टाचार के लूट में हिस्सेदारी अब आम बात हो गयी है. लूटतंत्र का जीवंत उदाहरण बन दुर्गावती प्रोजेक्ट दशकों से इंजीनियरों-अधिकारियों की पसंदीदा पोस्टिंग रही है.
हाल में मुख्यमंत्री के साथ विभागीय सचिव अरुण कुमार ने न सिर्फ कार्य प्रणाली पर आपत्ति जाहिर की, बल्कि ग्लोबल टेंडर के बाद निर्माण कार्यों के लिए अधिकृत एजेंसी बाबा हंसराज लिमिटेड की कार्यशैली में सुधार लाने के भी निर्देश दिए. इसके अलावा कार्य जल्द पूरा करने के लिए भी कड़े शब्दों में कहा गया. आश्चर्य की बात है कि दुर्गावती जलाशय परियोजना पिछले 41 वर्षों में करोड़ों रुपए खर्च होने के बावजूद अधर में लटकी है. यह प्रोजेक्ट तत्कालीन प्राक्कलित राशि 25.30 करोड़ से बढ़कर अब 1064.28 करोड़ लील गयी है. मगर अब तक नतीजा सिफर ही रहा है. फरवरी में डैम का जायजा लेने पहुंचे सूबे के मुखिया नीतीश कुमार ने प्रोजेक्ट पूरा होने में पैसों के आड़े नहीं आने देने की बात कहकर अफसरशाही पर लगाम तो कसी है, लेकिन देखना है कि इसका असर कितना और कब तक धरातल पर दिखता है.
परियोजना की वास्तविक स्थिति यह है कि इस वित्तीय वर्ष में 33 करोड़ की राशि आवंटित होने के बावजूद अबतक मात्र 30 लाख रुपए ही खर्च किये जा सके हैं. वह भी तब जब पिछले एक साल में मुख्यमंत्री तीन बार जिले में आये और दुर्गावती की प्रगति रिपोर्ट देखी और हर बार अधिकारियों को फटकार लगायी. इसके बावजूद डैम का मौजूदा हाल यह है कि डैम के डूब क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में पानी मौजूद नहीं है. किसानों के खेतों तक समुचित पानी आज भी दूर की कौड़ी बनी हुई है. अभी 102 किलोमीटर लंबे माइनरों का निर्माण होना बाकी है.
यह और बात है कि आधे-अधूरे दुर्गावती परियोजना का उद्घाटन 15 अक्टूबर 2014 को ही तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कर दिया था. हालांकि इस अधूरी परियोजना का श्रेय लेने के लिए सभी दलों के नेताओं में आपाधापी मची हुई थी. कह कसते हैं कि अधिकारियों की लूट खसोट और जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के कारण चार साल का प्रोजेक्ट पिछले 41 साल से आधा-अधूरा पड़ा हुआ है. सिवाय भ्रष्टाचार के आखिर इस विलंब का और कोई दूसरा कारण क्या हो सकता है?
विभागीय आदेश के आलोक में अभी कार्य तेजी से जारी है. यदि 31 मार्च से पहले रिवर क्लोजर यानी मुख्य नहरों का कार्य पूरा हो गया तो इस साल सासाराम, कुदरा, भभुआ और मोहनियों के सैकड़ों गांवों के लाखों निवासियों का दशकों पुराना ख्वाब पूरा होता नजर आएगा. पिछले साल नहरों में पानी तो गया लेकिन निकटवर्ती गांवों को ही इसका लाभ मिल सका.
कई गांवों में पानी को लेकर तो विवाद भी उत्पन्न हो गये थे. इस संबंध में अधीक्षण अभियंता सुनील कुमार ने बताया कि दुर्गावती परियोजना का कार्य तेज गति से चल रहा है. दो-दो शिफ्ट में काम हो रहे हैं. बीच में नक्सलियों और कुछ स्थानीय व्यवधान आने से कार्य प्रभावित हुआ था, लेकिन अब कोई समस्या नहीं है. युद्ध स्तर पर नहरों का निर्माण कार्य चल रहा है.