लालगढ़ के पास स्थित जंगल में बाइस अक्टूबर को देर शाम आठ बजे जो दृश्य दिखा, उसकी आज़ाद भारत में कोई मिसाल नहीं मिलती. एक तऱफ थी मीडिया और दूसरी तऱफ थे एक बंधक को रिहा करने आए सशस्त्र  माओवादी. गमछे में लिपटे माओवादियों के चेहरे दिख नहीं रहे थे, पर उनकी आंखों का दुस्साहस कोई भी पढ़ सकता था. मीडिया से आराम से बात हुई, सवाल-जवाब हुए. यह भी बताया गया कि उनके दयालु  नेता किशन जी ने ओसी अतींद्रनाथ दत्त के परिवार को दिया गया वचन पूरा किया. लेकिन तथाकथित मानवीय आधार पर रिहाई पाने वाले सांकराइल थाने के ओसी की छाती पर जो लिखा था, उन लाल अक्षरों में माओवादियों के ख़ूंख़ार इरादे की एक और झलक देखी गई. वैसे इस प्रकरण में माओवादी आंदोलन का मानवीय चेहरा दिखाने की भी कोशिश की गई.
रिहाई वाले नाटक की पटकथा काफी सोच समझकर लिखी गई थी. कुछ किलोमीटर ही दूर था सुरक्षाबलों का शिविर, पर यहां पहुंचने की उन्हें मनाही थी. 22 अक्टूबर को एक बांग्ला चैनल को दिए गए लाइव इंटरव्यू मेंमाओवादी नेता किशन जी ने कहा कि उन्होंने मांगें ही ऐसी रखी हैं, जिन्हें मानने में सरकार को असुविधा न हो. छत्रधर महतो की गिरफ़्तारी के बाद माओवादियों को सबसे बड़ी चिंता पश्चिमी मिदनापुर में अपना जन समर्थन बहाल रखने की थी. दूसरी बात यह कि छत्रधर को केवल आदिवासी नेता मानकर लंबे समय तक अपने खेमे में रखना चाहते हैं माओवादी. इसी वजह से किशन जी ने उनकी रिहाई की शर्त नहीं रखी. लालगढ़ अभियान के दौरान माओवादियों की मदद करने के आरोप में पकड़ी गई 15 आदिवासी महिलाओं की रिहाई की शर्त रखने के पीछे भी यही मक़सद था. माओवादी गांववालों को बताना चाहते थे कि छत्रधर के न होने के बावजूद उन्हें डरने या हताश होने की ज़रूरत नहीं है. हम हैं आपकी मदद के लिए.
लालगढ़ अभियान में लगे सुरक्षाबलों की ताक़त माओवादियों से ज़्यादा है, इसमें कोई शक़ नहीं, पर राज्य पुलिस के नेतृत्व में लागू की जा रही सुरक्षाबलों की रणनीति बार-बार असफल हुई है. लालगढ़ सहित हिंसा प्रभावित कई थानों को माओवादियों से मुक्त कराने के बाद सरकार जैसे निश्चिंत हो गई. यहीं पर बड़ी भूल हुई. माओवादियों की रीढ़ तोड़ने तक प्रभावित इलाक़ों के हर थाने में अत्याधुनिक हथियारों से लैस सुरक्षाबलों की कुछ टुकड़ियां तैनात रखनी चाहिए थीं, पर ज़्यादातर थानों को बंगाल पुलिस के भरोसे ही छोड़ दिया गया.
20 अक्टूबर को जब माओवादियों ने जब सांकराइल थाने पर हमला किया तो राज्य के पुलिस महानिदेशक भूपेंद्र सिंह 70 किलोमीटर दूर मिदनापुर शहर में माओवादियों के ख़िलाफ रणनीति बनाने में मशग़ूल थे.
एक महिला नक्सली कमांडर की अगुवाई में 11 मोटर साइकिलों पर सवार होकर भरी दोपहर में आए माओवादियों ने थाने के दो सब इंस्पेक्टरों को मौत के घाट उतारा, एक को रहम की भीख दी और अतींद्रनाथ को बंधक बनाकर साथ लेकर चले गए.
सरकार के हाथ-पांव फूल गए. मांगें रखने के बाद उसने तीन विकल्पों पर विचार शुरू किया. पहला था, लालगढ़ व आसपास के इलाक़ों में संयुक्त बलों का आपरेशन जारी रखना और अपने मुख़बिरों के ज़रिए अपहृत ओसी का पता करना. दूसरी रणनीति थी, प्रभावित इलाक़ों में धावा बोलकर दूसरे पायदान के माओवादियों को पकड़ना और बदले में ओसी की रिहाई के लिए दबाव बढ़ाना. तीसरा विकल्प सरकार ने सोचा कि माओवादियों से बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने के बहाने उन्हें उलझाए रखा जाए, ताकि वे ओसी के ख़िला़फ कोई कड़ा क़दम न उठा सकें.
21 अक्टूबर की रात किशन जी ने भी कहा कि वह कल मुख्य सचिव अशोक मोहन चक्रवर्ती से बात कर सकते हैं. अगर सरकार उनकी मांग मान लेती है तो ओसी की रिहाई हो जाएगी. मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी ओसी की रिहाई को सर्वोच्च प्राथमिकता कहा. सरकार को राज्य के चार नक्सल प्रभावित ज़िलों में काम कर रहे पुलिसवालों के मनोबल का भी ख्याल रखना था. सरकार आख़िर झुकी. 21 अक्टूबर को ही मिदनापुर ज़िला अदालत में 14 माओवादी समर्थक महिलाओं को

लालगढ़ के पास स्थित जंगल में बाइस अक्टूबर को देर शाम आठ बजे जो दृश्य दिखा, उसकी आज़ाद भारत में कोई मिसाल नहीं मिलती. एक तऱफ थी मीडिया और दूसरी तऱफ थे एक बंधक को रिहा करने आए सशस्त्र माओवादी. गमछे में लिपटे माओवादियों के चेहरे दिख नहीं रहे थे, पर उनकी आंखों का दुस्साहस कोई भी पढ़ सकता था. मीडिया से आराम से बात हुई, सवाल-जवाब हुए. यह भी बताया गया कि उनके दयालु नेता किशन जी ने ओसी अतींद्रनाथ दत्त के परिवार को दिया गया वचन पूरा किया. लेकिन तथाकथित मानवीय आधार पर रिहाई पाने वाले सांकराइल थाने के ओसी की छाती पर जो लिखा था, उन लाल अक्षरों में माओवादियों के ख़ूंख़ार इरादे की एक और झलक देखी गई. वैसे इस प्रकरण में माओवादी आंदोलन का मानवीय चेहरा दिखाने की भी कोशिश की गई. रिहाई वाले नाटक की पटकथा की सोच समझकर लिखी गई थी. कुछ किलोमीटर ही दूर था सुरक्षाबलों का शिविर, पर यहां पहुंचने की उन्हें मनाही थी. 22 अक्टूबर को एक बांग्ला चैनल को दिए गए लाइव इंटरव्यू मेंमाओवादी नेता किशन जी ने कहा कि उन्होंने मांगें ही ऐसी रखी हैं, जिन्हें मानने में सरकार को असुविधा न हो. छत्रधर महतो की गिरफ़्तारी के बाद माओवादियों को सबसे बड़ी चिंता पश्चिमी मिदनापुर में अपना जन समर्थन बहाल रखने की थी. दूसरी बात यह कि छत्रधर को केवल आदिवासी नेता मानकर लंबे समय तक अपने खेमे में रखना चाहते हैं माओवादी. इसी वजह से किशन जी ने उनकी रिहाई की शर्त नहीं रखी. लालगढ़ अभियान के दौरान माओवादियों की मदद करने के आरोप में पकड़ी गई 15 आदिवासी महिलाओं की रिहाई की शर्त रखने के पीछे भी यही मक़सद था. माओवादी गांववालों को बताना चाहते थे कि छत्रधर के न होने के बावजूद उन्हें डरने या हताश होने की ज़रूरत नहीं है. हम हैं आपकी मदद के लिए.

लालगढ़ अभियान में लगे सुरक्षाबलों की ताक़त माओवादियों से ज़्यादा है, इसमें कोई शक़ नहीं, पर राज्य पुलिस के नेतृत्व में लागू की जा रही सुरक्षाबलों की रणनीति बार-बार असफल हुई है. लालगढ़ सहित हिंसा प्रभावित कई थानों को माओवादियों से मुक्त कराने के बाद सरकार जैसे निश्चिंत हो गई. यहीं पर बड़ी भूल हुई. माओवादियों की रीढ़ तोड़ने तक प्रभावित इलाक़ों के हर थाने में अत्याधुनिक हथियारों से लैस सुरक्षाबलों की कुछ टुकड़ियां तैनात रखनी चाहिए थीं, पर ज़्यादातर थानों को बंगाल पुलिस के भरोसे ही छोड़ दिया गया.

20 अक्टूबर को जब माओवादियों ने जब सांकराइल थाने पर हमला किया तो राज्य के पुलिस महानिदेशक भूपेंद्र सिंह 70 किलोमीटर दूर मिदनापुर शहर में माओवादियों के ख़िला़फ रणनीति बनाने में मशग़ूल थे. एक महिला नक्सली कमांडर की अगुवाई में 11 मोटर साइकिलों पर सवार होकर भरी दोपहर में आए माओवादियों ने थाने के दो सब इंस्पेक्टरों को मौत के घाट उतारा, एक को रहम की भीख दी और अतींद्रनाथ को बंधक बनाकर साथ लेकर चले गए. सरकार के हाथ-पांव फूल गए. मांगें रखने के बाद उसने तीन विकल्पों पर विचार शुरू किया. पहला था, लालगढ़ व आसपास के इलाक़ों में संयुक्त बलों का आपरेशन जारी रखना और अपने मुख़बिरों के ज़रिए अपहृत ओसी का पता करना. दूसरी रणनीति थी, प्रभावित इलाक़ों में धावा बोलकर दूसरे पायदान के माओवादियों को पकड़ना और बदले में ओसी की रिहाई के लिए दबाव बढ़ाना. तीसरा विकल्प सरकार ने सोचा कि माओवादियों से बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने के बहाने उन्हें उलझाए रखा जाए, ताकि वे ओसी के ख़िला़फ कोई कड़ा क़दम न उठा सकें.

21 अक्टूबर की रात किशन जी ने भी कहा कि वह कल मुख्य सचिव अशोक मोहन चक्रवर्ती से बात कर सकते हैं. अगर सरकार उनकी मांग मान लेती है तो ओसी की रिहाई हो जाएगी. मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी ओसी की रिहाई को सर्वोच्च प्राथमिकता कहा. सरकार को राज्य के चार नक्सल प्रभावित ज़िलों में काम कर रहे पुलिसवालों के मनोबल का भी ख्याल रखना था. सरकार आख़िर झुकी.

21 अक्टूबर को ही मिदनापुर ज़िला अदालत में 14 माओवादी समर्थक महिलाओं को पेश किया गया और सरकार ने जमानत का विरोध नहीं किया. इस तरह माओवादियों की दुर्गावाहिनी आज़ाद हो गई.

इसके कुछ घंटों पहले ऐसा लगा कि सब कुछ ख़त्म हो जाएगा. सुरक्षाबलों ने अभियान ज़ारी रखा था और किशन जी आसपास के किसी गांव में से ही टीवी पर लाइव इंटरव्यू दे रहे थे. टीवी पर गोलियों की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी. लाखों दर्शकों के बीच ही उन्होंने हुंकार भरी कि सरकार अगर सचमुच ओसी की रिहाई के प्रति गंभीर है तो उसे अभियान तुरंत बंद करना होगा और पीछे लौटना होगा. उनकी धमकी का असर हुआ और सुरक्षाबल अपने शिविर में लौट आए. ओसी सुरक्षित है, यह यक़ीन दिलाने के लिए परिवार के किसी एक सदस्य को उससे मिलवाने का भी उन्होंने आश्वासन दिया. इसके पहले ओसी के परिवारवालों ने कोलकाता में मुख्यमंत्री से मुलाक़ात कर रिहाई की गुहार की. मुख्यमंत्री ने ओसी की नन्हीं बिटिया को आश्वासन भी दिया कि उसके पापा लौट आएंगे. दुखी बाप को किशन जी से यह पता करने की ग़ुहार करनी पड़ी कि उनका बेटा जहां-जहां तैनात हुआ है, उसके ख़िला़फ निर्दोषों को सताने का कोई मामला नहीं है और वह चाहें तो पता कर सकते हैं.

जिस तरह पत्रकार का वेश धरकर पुलिस ने छत्रधर को गिरफ़्तार किया था और अपनी पीठ ठोंकी थी, किशन जी ने उसी बिरादरी के सामने रिहाई समारोह संपन्न कराने की ठानी. यह सरकार का मनोबल तोड़ने की एक और कोशिश थी. उन्होंने इस भ्रम को झुठलाया कि अब प्रभावित क्षेत्रों में पत्रकार सुरक्षित नहीं हैं. पहले उन्होंने दोपहर 12 बजे का समय दिया और आख़िर में रात के आठ बजे ओसी के गले में बंदी का पट्टा लगाकर पत्रकारों को सौंपा गया.

यह एक संयोग था कि जिस दिन ओसी की रिहाई की कवायद चल रही थी, उसी दिन भाजपा से निकाले गए सांसद जसवंत सिंह एक संगोष्ठी में भाग लेने कोलकाता आए थे. बाद में एक पत्रकार के सवाल के जवाब में उन्होंने जैसे समस्या के मूल स्रोत का ही ख़ुलासा कर दिया. उनका कहना था कि हर थाना माओवाद की फैक्ट्री है. इसके पहले लालू प्रसाद ने भी बंगाल को नक्सलवाद की जन्मभूमि कहा था.

पिछले साल नवंबर से पश्चिमी मिदनापुर में शुरू हुई नक्सली हिंसा में 82 माकपा कॉडर, दो कांग्रेसी और 29 पुलिसकर्मी मारे जा चुके हैं. 72 लोगों का अपहरण हुआ है, जिनमें दो पुलिसकर्मी भी शामिल हैं. इनका अब तक पता नहीं चल पाया है. सच यह भी है कि राजनीतिक स्वार्थ माओवादियों की ढाल बनकर सामने आ रहा है. राज्य में ममता बनर्जी ने ओसी के अपहरण को सदमाकारी माना, उसकी निंदा नहीं की तो माकपा ने एक बार फिर आरोप लगाया कि तृणमूल व उनके बीच साठगांठ है. यक़ीन दिलाने के लिए माकपा वाले यह भी कह रहे हैं कि माओवादी हिंसा में अब तक एक भी तृणमूल कार्यकर्ता की जान नहीं गई है.

रही बात केंद्र की, तो उसका भी एक पैर आगे जाता है तो एक पैर पीछे. महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हुए नक्सली हमले के मुक़ाबले के लिए बहुप्रतीक्षित कड़े क़दम उठाने के रास्ते में विधानसभा चुनाव आड़े आ गए. कौन जानता है कि सरकार कल यह सोचे कि झारखंड विधानसभा चुनाव तक इन कड़े क़दमों को नरम ही रखा जाए. झारखंड में माओवादियों ने सब इंस्पेक्टर की हत्या कर अपने इरादे जता दिए हैं. रिहा होने के बाद ओसी अतींद्रनाथ दत्त छुट्टी लेकर अपने घर में सदमे से उबर रहे हैं और यह सोच भी रहे हैं कि नौकरी ज्वाइन की जाए या नहीं.

और, अगर सचमुच उन्होंने डर कर नौकरी नहीं ज्वाइन की, तो यह माओवादियों की एक बड़ी जीत होगी और वह दिन शायद पी चिदंबरम एवं बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे राजनेताओं को और शर्मसार कर देने वाला होगा.

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