क्या आपने कभी ऐसी मनोरंजक राजनीतिक यात्रा पहले देखी या सुनी है । जिसमें समय का नयापन है, कदम कदम पर प्रेमालाप है, मनोरंजन है , आस्था, विश्वास और ओज उत्कंठा के साथ है , जहां नायक राजनीतिक वेष भूषा (कुर्ता पायजामा) को छोड़ नये जमाने के ‘शूज़’ टी-शर्ट और जींस पहन कर भारत में साम्प्रदायिक नफरत को मिटाने और भारत को उसकी पहचान के साथ सुदूर से सुदूर तक जोड़ने को निकला हो । रातें जहां गांवों की चौपाल पर नहीं शानदार कंटेनरों में गुजार कर थकान मिटाने के उपक्रम में व्यतीत की जाती हैं । अतीत की सोच और नयेपन की रंगत हर किसी के रंग में रंगी यह यात्रा जनता से संदेश ले रही है – कबूल है, कबूल है, कबूल है । देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी इस समय भरपूर जोश में है और हो भी क्यों नहीं । वाजिब कारण जो हैं ।
राहुल गांधी पहली बार जनता की बिना लाग-लपेट पसंद बनते दिख रहे हैं । 2004 से 2022 तक राहुल गांधी ने तो नहीं पर राहुल की मां सोनिया गांधी और उनके चहेतों ने राहुल को राजनीति में स्थापित करने के लिए कितने पापड़ बेले इसका कोई हिसाब नहीं होगा । लोगों के इन प्रयासों को राहुल गांधी ने हर बार धता बताई । कभी तो ‘फ्रंट’ पर आ खड़े हुए फिर कभी नदारद हो गये । गजब था यह छुपने छुपाई का खेल । बीजेपी को मजा आया । वह और उसके सिरमौर मोदी जानते थे कि कांग्रेसियों का कुछ भरोसा नहीं कब व्यक्ति पूजा के सनातनी संस्कारों के चलते ये कांग्रेसी इस व्यक्ति को अपना नेता घोषित कर दें और जोकर सा दिखने वाला यह व्यक्ति न जाने कब मोदी के लिए सिरदर्द बन कर खड़ा हो जाए । इसमें चूंकि कोई राजनीतिक समझ नहीं है इसलिए कोई न कोई हास्यास्पद लेबल इस व्यक्ति की छवि पर चेपना जरूरी है । और अंततः राहुल गांधी पर ‘पप्पू’ शब्द को चेप दिया गया । पप्पू की इस छवि को लेकर एक अच्छी लंबी टसल हुई कांग्रेसियों और भाजपाइयों में । लेकिन देश की जनता तो आखिर अपने मिज़ाज की ही ठहरी । उसने पप्पू का भी आनंद लिया और आज इस यात्रा का भी आनंद ले रही है । लेकिन सबसे बड़ा सवाल कांग्रेसियों और राहुल गांधी की माताश्री का है। लोग सोनिया गांधी को राजनीति में एक अनुभवी महिला मानते हैं विशेषकर 2004 से 2014 तक के पीरियड के बीच की कांग्रेस की सत्ता को लेकर । लेकिन हमारी नजर में न सोनिया तब अनुभवी थीं और न ही अब अपनी सास की तरह परिपक्व हुईं हैं । यही कारण है कि वे हमेशा राहुल गांधी को ठोंक ठोंक कर सत्तासीन करना चाहती रहीं लेकिन एक तरफ सोनिया की यह हठ और दूसरी तरफ राहुल गांधी का खिलंदडपन । यही दरअसल खाद-पानी बना पप्पू बनने की छवि के लिए । राहुल गांधी में आज एक समझ पैदा होती हमें दिखती है कि वे न तब राजनीति की बेंच पर बैठने वाले बालक थे और न अभी तक उनमें वह परिपक्वता पूरी तरह आ पायी है । बल्कि नहीं ही दिखती अब तक भी । राहुल गांधी की इस समझ का हम सम्मान करते हैं लेकिन यह समझ कांग्रेसियों की नहीं है । वे राहुल गांधी को इस यात्रा के नायक के साथ साथ हर दृष्टि से राजनीतिक रूप से परिपक्व हो चुका नेता मान रहे हैं । जो बात नायक स्वयं समझ रहा है वह कांग्रेसी नहीं समझ पा रहे । और जो कांग्रेसी समझ रहे हैं उस पर स्वयं नायक को भरोसा नहीं । यदि इस नजर से आप भी सोच रहे हैं तो एक गफलत हमारी तरह आपको भी हो सकती है वह यह कि फिर राहुल गांधी ने मल्लिकार्जुन खड़गे को तब क्यों नहीं रोका जब वे उन्हें उनकी ही उपस्थिति में प्रधानमंत्री का ‘कैंडीडेट’ बता रहे थे । संभव है राहुल गांधी ने उस समय वक्त की नजाकत को समझा हो और चुप्पी साध ली हो । वे जिद कर चुके हैं कि न उन्हें और न गांधी परिवार के किसी आदमी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनना है । वे अपनी इस जिद पर खरे उतरे हैं और इससे उनका सम्मान बड़ा ही है । मगर सवाल अपनी जगह फिर भी खड़ा है क्या वे भीतर से पूरी तरह राजनीतिक हुए हैं ?
इधर बड़े बड़े पत्रकार यात्रा से गदगद होकर दिल से कांग्रेसी बन गये हैं जैसे । बेशक हम भी गदगद हैं लेकिन कांग्रेसी बन जाने का कोई कारण नजर नहीं आता । बल्कि राहुल गांधी की राजनीतिक प्रतिभा पर लगातार प्रश्न उठाते रहने का कर्म हमें करते रहना है जबकि हम देख रहे हैं कि स्वयं राहुल गांधी इस नजर से आत्मविश्वासी नहीं दिख रहे । उनमें विश्वास है और जबरदस्त है एक सम्पूर्ण और बेहतर मनुष्य बनने का । वे हैं भी । यही नहीं उनकी जो अन्य खूबियां हैं वे एक के बाद एक इस यात्रा में नजर आ रही हैं । अच्छा लग रहा है । बीजेपी और मोदी की शुरुआत में इस यात्रा ने नींद हराम की थी लेकिन अब वे धीरे-धीरे वे इस रूप में निश्चिंत होते दिख रहे हैं कि यह यात्रा चुनाव पर लगभग बेअसर होती नजर आ रही है । तेलंगाना के उप चुनाव पर यात्रा का कोई असर नहीं हुआ । इसी तरह हिमाचल की जनता जीत हार के क्रम में इस बार कांग्रेस को जिता दे तो जिता दे । इसी तरह गुजरात चुनाव में कांग्रेस की मौजूदगी फिलहाल तो सवाल ही पैदा कर रही है। राहुल गांधी को कांग्रेस यदि ठोंक बजा कर बीजेपी के परास्त होने पर प्रधानमंत्री बना भी दे तो उनके आने से कौन सी क्रांति हो जाएगी । हम सिर्फ राजनीतिक दृष्टि से बात कर रहे हैं । राजीव गांधी ने अभूतपूर्व सत्ता पाकर क्या कर लिया । किसी भी प्रकार का चामत्कारिक या आकर्षक व्यक्तित्व न राजीव गांधी का था न राहुल गांधी का है । भारत में सफल नेता बनने से पहले देश को जानना होता है । गांधी इसका जीता जागता उदाहरण हैं । भाषण कला में तो राहुल गांधी लगभग शून्य हैं । मुद्दों के प्रस्तुतिकरण में लकीर के फकीर ही साबित होते हैं । ट्विटर की राजनीति राजनीति नहीं होती । लेकिन इतना तय मानिए कि यात्रा उन्हें देश से मुहब्बत करना सिखा रही है वे आज नहीं तो कल अच्छे नेता साबित होंगे । निश्चित रूप से फिलहाल तो नहीं हैं बनने की प्रक्रिया में जरूर लगते हैं । अच्छे और सफल नेता के लिए केवल दिल दिमाग ही नहीं वक्तृत्व शैली और भाषा मुहावरे और वह कला जिसमें मुद्दे सीढ़ी दर सीढ़ी उतरते जाएं ऐसी भाषा की भी बड़ी दरकार होती है । राहुल गांधी को यह सब सीखना होगा । आखिर राजनीति ‘परसेप्शन’ का खेल है । हमारी इच्छा है कि यात्रा भरपूर सफल हो और मंजिल तक सफलता से पहुंचे। इस यात्रा की पहली उपलब्धि यह है कि राहुल गांधी की पप्पू छवि का कोई नामलेवा अब नहीं रहा । दूसरी उपलब्धि देश भर के कांग्रेसियों में जोश उमड़ा है । क्रम से मिली सफलता ही अंततः स्थायी जीत दिलाती है।
प्रसंगवश कल लाउड इंडिया टीवी पर अभय दुबे शो में विपक्षी दलों की राजनीति पर अभय दुबे का विश्लेषण बहुत स्पष्ट और अनुभवपूर्ण दिखा । कोई भी आरोप लगा सकता है कि अभय जी एक दलीय पुरानी पद्धति की वकालत कर रहे हैं कोई फूहड़ यह भी सोच सकता है कि वे बीजेपी सिवाल पार्टी की चाहत बयान कर रहे हैं । पर अभय जी ने पुराने प्रयोगों की विफलताओं के परिप्रेक्ष्य में अपने विचारों का उद्घाटन किया जो सौ-फीसदी सही ही दिखता है मौजूदा समय के विपक्षी दलों की राजनीति को देख कर । सबके अपने अपने पत्ते और अपनी अपनी चालें दिख रही हैं । ऐसे में कांग्रेस की मजबूती बहुत मायने रखती है । अभय जी को केजरीवाल पर भी टिप्पणी करनी चाहिए थी । दरअसल केजरीवाल पूरे देश में स्वयं की सत्ता का सपना देख रहे हैं । वे अपने हिसाब से ताकतवर हो सकते हैं । पर अगर ऐसा हुआ तो विपक्षी एकता के मायने क्या होंगे । अर्थव्यवस्था पर भी अभय दुबे का आकलन काबिले गौर था । उन्होंने नोटबंदी के प्रसंग में स्वामीनाथन अय्यर की संकल्पना का अच्छा बखान किया । अय्यर का मानना था कि नोटबंदी की मूर्खतापूर्ण घोषणा से पहले यदि हजार और दो हजार के नोट लाते जाते और फिर छः महीने बाद नोटबंदी की जाती तो बड़ी संख्या में कालाधन पकड़ा जाता । लेकिन सवाल तो यही है कि कालाधन पकड़ना ही किसको था। अगले हफ्ते प्रोफेसर रजनी कोठारी पर चर्चा होगी । अच्छा है । हम जब CSDS में थे तब रजनी कोठारी, धीरूभाई सेठ आदि को हाल में बैठा देखा करते थे । हम उस समय लोकनीति में सुरेश शर्मा के साथ थे । रजनी कोठारी के बारे में अभय जी की जानकारी सुनना रोचक ही रहेगा ।
मुकेश कुमार की डिबेट – ‘ऐसे राज्यपालों से कैसे निपटा जाए’ सुनना अच्छा लगा । श्रवण गर्ग जी यदि मुकेश कुमार और आलोक जोशी की डिबेट में लगातार आएं तो रोचक रहेगा । वे कभी कभी बड़ी रसहीन चर्चाओं में चले जाते हैं , दुख होता है देख कर । ‘सिनेमा संवाद’ में सुपरस्टार पर दिलचस्प चर्चा थी । एक नया सुपरस्टार निश्चित पैदा होगा । बिना सुपरस्टार के सिनेमा रह ही नहीं सकता । यह भी ठीक ही लगता है ।
राहुल गांधी को आप कौन सा सुपरस्टार मानते हैं । हम तो मानते हैं कांग्रेस का ऐसा सुपरस्टार जो कांग्रेस में जेपी की सी भूमिका निभाए । कांग्रेस की भावी और लंबी परम्परा के लिए यह जरूरी है ।
इक्कीसवीं सदी के डिजिटल समय की यात्रा ….
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