बिहार के चुनावी समीकरण में जातीय समीकरण की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है. राज्य के लगभग 16 प्रतिशत दलित-महादलित और करीब 38-40 प्रतिशत अतिपिछड़ी आबादी की भूमिका भी इस दिशा में काफी अहम है. वैसे तो नीतीश कुमार ने अपने पहले और दूसरे शासनकाल के दौरान इस आबादी के आर्थिक व राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए काम भी किए और उन्हें इसका राजनीतिक लाभ भी मिला. लेकिन, इन समुदायों की राजनीतिक हिस्सेदारी अब भी सीमित है.
वैसे तो दलितों के एक सामाजिक समूह पर तो रामविलास पासवान की गहरी पकड़ है और माना जा रहा है कि इस समूह का वोट ट्रांसफर कराने की उनकी ताकत को फिलहाल कोई चुनौती नहीं दे सकता. लेकिन यह पार्टी भी सुप्रीमोवादी पारिवारिक नेतृत्व से आगे नहीं बढ़ सकी है. महादलितों के बड़े समूह पर पूर्व मुख्यमंत्री और हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के सुप्रीमो जीतनराम मांझी अपनी पकड़ का दावा करते हैं.
हालांकि, एक समय में नीतीश कुमार की पकड भी इस वर्ग पर थी, जो जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाने के प्रकरण से बुरी तरह प्रभावित हुई. फिलहाल, मांझी महागठबंधन में हैं और महादलित समुदायों में उनकी पकड़ के लिहाज से संसदीय चुनाव उनके दावों की अग्निपरीक्षा ही होगी. दूसरी तरफ, श्याम रजक और महेश्वर हजारी जैसे कुछ दलित- महादलित शख़्सियतों को अपवाद मान लें, तो जद (यू) में इन सामाजिक समूहों की ताकतवर आवाज का अभाव है.
अतिपिछड़े सामाजिक समूहों की स्थिति भी जद (यू) में दलित-महादलित से बेहतर नहीं है. सूबे के अन्य राजनीतिक दलों की तरह, जद (यू) ने इन सामाजिक समूहों का कोई कद्दावर नेता विकसित नहीं किया, या न होने दिया. महिलाओं के संदर्भ में बात करें तो नीतीश कुमार ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में कई बड़े काम किए हैं.
सरकारी नौकरी में उनके लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था कर दी, तो वहीं पंचायतीराज संस्थानों व स्थानीय निकायों में उनके लिए 33 प्रतिशत के आरक्षण की सीमा बढ़ा कर 50 प्रतिशत कर दी. उनके राजनीतिक सशक्तिकरण की यही सीमा हो गई है. संसद-विधान मंडलों में महिलाओं के आरक्षण को लेकर नीतीश कुमार राजनीति भी वहीं है, जहां तत्कालीन जनता दल था.
फिलहाल संसदीय चुनाव 2019 की तैयारी चल रही है. दलित-महादलित व अतिपिछड़ों के साथ-साथ महिला वोटरों को भी गोलबंद करने का अभियान चल रहा है. इस सिलसिले में विकास-मित्र, टोला सेवक, जीविका जैसी व्यवस्था का लाभ तो नीतीश कुमार को मिल सकता है, लेकिन अभी उन्हें अपने वोट-बैंक के कील-कांटे दुरुस्त करने हैं. यही हो भी रहा है. रणनीति बनाने में प्रशांत किशोर जुटे हैं, तो उन रणनीतियों को जमीन पर उतारने के लिए आरसीपी सिंह की टीम लगी है.