भारत का विभाजन, जो अपने साथ बहुत रक्तपात लाया था, उसकी कड़वी यादें एक किताब के जरिए फिर हमारे सामने आई हैं. किताब का नाम है, ‘पार्टीशन: द स्टोरी ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस एंड द क्रिएशन ऑफ पाकिस्तान इन 1947’. ब्रिटिश लेफ्टिनेंट जनरल और सैन्य इतिहासकार बार्नी व्हाइट-स्पूनर द्वारा लिखी गई गहन शोध पर आधारित यह किताब अहंकार के संघर्ष, चूके हुए अवसरों और नेतृत्व की अक्षमता को उजागर करती है, जो एक लाखों लोगों की हत्या और लगभग डेढ़ करोड़ लोगों के विस्थापन का कारण बना. यह किताब विभाजन पर आई अन्य किताबों से इस मामले में अलग है कि यह जनवरी से दिसंबर 1947 तक के घटनाक्रम का माह-दर-माह ब्यौरा देती है. इसमें उन घटनाओं को जस का तस रखा गया है. ऐतिहासिक लेखों, साक्षात्कारों, आधिकारिक दस्तावेजों, पत्रों और उपाख्यानों के आधार पर लेखक अपनी पृष्ठभूमि के बावजूद एक अच्छा संतुलन बनाता है.
व्हाइट-स्पूनर ने ब्रिटिश राज की उस असफलता की आलोचना की है, जिसकी वजह से यह विपत्ति आई. यह पुस्तक हजारों निर्वासित शरणार्थियों, लाशों से भरी ट्रेनों, कत्लबाजों के गिरोहों, सूखे हुए रक्त की नदियों, रेलवे प्लेटफॉर्मों पर फैली अराजकता और भ्रम की भयानक तस्वीरों से भरी है. विभाजन के मद्देनजर पंजाब राज्य का अनुभव ज्यादा असहनीय है. इसमें सांप्रदायिक और भाषाई आधार के साथ-साथ विभाजित लोगों की भावनाओं को भी व्यक्त किया गया है. उस समय पड़ोसियों ने एक दूसरे की हत्या की, दोस्तों ने दोस्त को मारा, प्रशासन ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया. इस नरसंहार में पुलिस की सहभागिता की कोई सीमा नहीं थी.
विभाजन के बाद लाखों लोगों ने सीमा पार किया. यह मानव इतिहास का सबसे बड़ा और सबसे हिंसक और इतिहास का सबसे भयावह पलायन था. इस पुस्तक में लेखक ने 1942-44 के बंगाल अकाल के बारे में भी बताया है, जिसमें द्वितीय विश्व युद्ध में मारे गए ब्रिटिश सैनिकों से छह गुना ज्यादा लोग मारे गए थे. लेखक ने बंगाल अकाल से निपटने में प्रशासन की भूमिका का भी जिक्र किया है. भारत के विभिन्न हिस्सों में 1876-78 और 1898-1902 के अकाल में अनुमानत: 24 मिलियन लोगों की मौत हो गई थी. इस किताब में द ग्रेट कलकत्ता किलिंग (16 अगस्त, 1946 का डायरेक्ट एक्शन डे) का भी महत्वपूर्ण उल्लेख है. लेखक का कहना है कि इस त्रासदी की वजह से 1947 में कलकत्ता में कम मृत्यु हुई थी, हालांकि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनाव नहीं था.
जिन्ना की भूमिका
व्हाइट-स्पूनर मोहम्मद अली जिन्ना को ऐसे व्यक्ति के रूप में बताते हैं, जो फेडरेशन चाहते थे. स्पूनर यह दिखाते हैं कि जिन्ना को कांग्रेस ने अपने विचारों के साथ आगे जाने की इजाजत नहीं दी थी, हालांकि सांप्रदायिक लाइन पहले से तैयार हो चुकी थी. खलीफा मुद्दे के बाद, कांग्रेस ने फिर से जिन्ना के 1927 प्रस्ताव का विरोध किया. यह प्रस्ताव कांग्रेस और लीग के बीच एक समान आधार खोजने के लिए तैयार किया गया था. यह उन चूके हुए दुखद अवसरों में से एक था, जो अंततः 1947 तक पहुंचा. 1937 के भारतीय प्रांतीय चुनावों से पहले, जिन्ना ने सत्ता में हिस्सेदारी के लिए समझौते की कोशिश में कांग्रेस से संपर्क किया था.
आधिकारिक दस्तावेजों और अन्य सबूतों व घटनाओं पर आधारित, लेखक का गहन विश्लेषण लॉर्ड माउंटबेटन की भूमिका और भारत के प्रति उनके अनुकूल रवैये को इंगित करता है. उदाहरण के लिए, वे कहते हैं कि माउंटबेटन के साथ मुलाकात के बाद, भारत और पाकिस्तान की विभाजन रेखा तय करने वाले काइरिल रैडक्लिफ ने मूल नक्शा बदल दिया था. इससे ज़िरा और फिरोजपुर भारत में आ गए थे. लेखक रेडक्लिफ के सचिव बेअमोंट को उद्धृत करते हैं, ‘जब वे वापस आए, तब कथित रूप से लाइन बदल दी, जिससे फिरोजपुर और जीरा भारत में आ गए. आरोप यह है कि बीकानेर के महाराजा ने नेहरू के साथ माउंटबेटन पर दबाव डाला कि अगर फिरोजपुर चला गया, तो वे पाकिस्तान का चुनाव कर लेंगे.’ इसी तरह गुरदासपुर के मामले में हुआ, जो जम्मू और कश्मीर के साथ जुड़ता है. रेडक्लिफ ने अपने सौतेले बेटे को लिखा कि भारत में कोई भी मुझे मेरे काम के लिए प्यार नहीं करेगा.
विभाजन की त्रासदी इसके घटित होने से पहले ही शुरू हो गई थी. व्हाइट-स्पूनर बताते हैं कि 4 मार्च को मुस्लिम गिरोहों ने लाहौर में हिंदुओं और सिखों पर हमला किया था. अगले हफ्ते, हिंसा व्यापक हो गई और सिखों ने अमृतसर में इसका जवाब दिया. लेखक का कहना है कि नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत के सिखों ने मुसलमानों द्वारा अपवित्र होने के जोखिम की जगह अपनी महिलाओं को मारना पसंद किया. बीर बहादुर सिंह के पिता और चाचा ने अपने परिवार को एक घर में इकट्ठा किया. पच्चीस लड़कियां थीं, सबसे पहले एक विकलांग व्यक्ति को मार डाला गया, उसके बाद वृद्ध ने अपनी बेटियों को मार दिया.
अगस्त, सितंबर और अक्टूबर के महीने सीमा के दोनों ओर इसी तरह की कहानियों से भरे थे. इस नरसंहार को बलात्कार, शवों को क्षत-विक्षत करने और पकड़ी गई औरतों की हत्या ने और भी भयावह बना दिया था. इसमें सिख और मुसलमान दोनों शामिल थे. व्हाइट-स्पूनर लिखते हैं कि 15 अगस्त की दोपहर को सिखों ने नग्न मुस्लिम महिलाओं की परेड करवाई. जलाने से पहले उनका सार्वजनिक रूप से बलात्कार किया गया. 17 अगस्त को अमृतसर के गांवों से हजारों सिख आए और सड़क पर नरसंहार शुरू कर दिया.
अगस्त 1947 की पंजाब की सभी तस्वीरों में ट्रेनों की तस्वीरें हैं. ये ट्रेनें हताश शरणार्थियों या लाशों से भरी हुई हैं. लेखक लिखते हैं कि 15 अगस्त अमृतसर के खूनी इतिहास के सबसे भयानक दिनों में से एक होगा, लेकिन कराची और दिल्ली में अब राष्ट्रवाद के उत्सव पर जोरो पर हैं. जम्मू और कश्मीर पर व्हाइट-स्पूनर लिखते हैं कि महाराजा हरि सिंह दुविधा में पड़े हुए थे. वे नेहरू को कोट करते हैं, जिन्होंने हरि सिंह को डरपोक कहा. स्वतंत्र कश्मीर की धारणा ने दुविधा में पड़े हरि सिंह को इसके लिए राजी किया कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी में भी विलय को स्वीकार नहीं करें. लेकिन इससे एक और त्रासदी हुई, जिससे विद्रोह और हत्याएं हुईं और अंत में भारत को हस्तक्षेप करना पड़ा. उसके कारण विभाजित राज्य आज भी पीड़ा भुगत रहा है.
लेखक ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा लिए गए कई फैसलों की आलोचनात्मक व्याख्या करते हैं. लेखक माउंटबेटन और कमांडर इन चीफ क्लाउड औचिनलेक के बीच के फूट को भी सामने लाते हैं. लेकिन इस पुस्तक में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जिसे वे और भी अधिक विस्तार से पेश कर सकते थे. लेखक जोर देते हुए कहते हैं कि ब्रिटिश राज्य को अपने लोगों की अपनी इस सरकार की मांग पर बहुत पहले ध्यान देना चाहिए था. जब ये मांग मानी गई तब इतना भयानक रक्तपात हुआ, ब्रिटिश भारतीय सेना इस भायवहता को रोक तो नहीं सकती थी, लेकिन कम जरूर कर सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बहरहाल यह पुस्तक शोध का एक बेहतरीन नमूना है.
—लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.