इस बार का चुनाव कई मायने में अभूतपूर्व रहा। जनता ख़ामोश रही। न कोई लहर, न कोई हवा। लोगों की चुप्पी ने यह बता दिया कि गुप्त मतदान का अर्थ क्या होता है। यह ख़ामोशी ही इस बात का सबूत है कि भारत की जनता कितनी परिपक्व है। कई सालों से लोगों कीनब्ज़ पहचानने का दावा करने वाले, स्विंग का स्वांग रचा कर चुनाव विश्लेषण करने वाले बड़े-बड़े विशेषज्ञ टीवी स्टूडियो में पहली बार हाथ खड़े करते नज़र आए। चुनाव परिणाम आने से पहले तक यह कोई नहीं बता सका कि जनता का फैसला क्या है। चुनावी कोलाहल के बीच जनता ने अपनी ख़ामोशी से बहुत गहरे और भविष्य के लिए महत्वपूर्ण संकेत दिए।
पहली बार देश की जनता काम करने वाली सरकार के साथ नज़र आई। लोगों ने जाति, धर्म और संप्रदाय की दीवारों को दरकिनार कर विकास करने वाले राजनीतिक दलों और नेताओं को अपना वोट दिया। जनता की खामोशी का मतलब यह भी है कि अब वह राजनीतिक दलों के छलावे में नहीं आएगी। यही वजह है कि कई नेताओं और पार्टियों के बीजगणित और अंकगणित के सारे समीकरण फेल हो गए। ऐसा बिहार में हुआ, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और फिर दिल्ली में भी हुआ।
पहली बार दिखा कि लोगों ने बाहुबलियों के ख़िला़फ वोट किया। कई जगहों पर कुछ बाहुबलियों की जगह उनकी पत्नियां उम्मीदवार बनीं। बाहुबलियों को लगा कि चुनाव में उनकी दहशत और उनके नाम का सिक्का चलेगा और वे पत्नियों को आगे कर राजनीतिक रोटियां सेंक सकेंगे, लेकिन जनता ने ऐसे उम्मीदवारों को भी ठेंगा दिखा दिया। राजनीतिक दल उन्हें इसलिए टिकट देते रहे हैं, क्योंकि बाहुबली धन और बाजू के ज़ोर से चुनाव जीतने में कामयाब हो जाते थे। इस बार के चुनाव से ऐसे दलों और नेताओं को संकेत मिल गया है कि जनता अब बाहुबलियों के दवाब में आकर वोट नहीं देने वाली है।
पिछले 20 सालों में यह पहला चुनाव है, जिसमें जनता ने न सिर्फ राजनीतिक दलों के सारे समीकरणों को सिरे से नकारा, बल्कि उन्होंने अच्छे उम्मीदवारों की तरफ अपना रुझान भी दिखाया। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां लोगों ने जातीय समीकरणों से ऊपर उठ कर साफ छवि के उम्मीदवारों का साथ दिया। जिस पार्टी ने अच्छे उम्मीदवारों को टिकट दिए उसे सबसे अधिक फायदा हुआ और जिन्होंने जातीय समीकरण और बाहुबलियों पर भरोसा किया, उन्हें जनता ने झटका दे दिया। उत्तर प्रदेश में कई सीटों पर अच्छे उम्मीदवार खड़े करने का फायदा कांग्रेस को मिला है। इस बार कांग्रेस को पिछले चुनाव से अधिक वोट मिलने के संकेत मिले। फर्रुखाबाद में सलमान खुर्शीद के ख़िला़फ एक मुसलमान और एक राजपूत उम्मीदवार थे। जब वोट देने का वक्त आया तो जनता ने जाति और धर्म से उठ कर अच्छे उम्मीदवार को वोट दिया।
इस चुनाव में सबसे मजबूत और साफ संकेत मुसलमानों ने दिए। स्वाधीन भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि मौलवियों और मुसलमान व्यापारियों की बनाई पार्टियां अलग-अलग राज्यों में लोकसभा का चुनाव लड़ीं। ये तमाम पार्टियां सेकुलरिज्म को अपना आधार मानती हैं, लोकतंत्र में विश्वास जताती हैं और उनमें से कई ने ग़ैर मुस्लिमों को अपना उम्मीदवार बनाया। उत्तरप्रदेश में एक दर्जन मुस्लिम पार्टियों और सौ से ज़्यादा उम्मीदवारों ने चुनाव में किस्मत आजमाया। मुसलमानों ने पहली बार मौलवियों और मौलानाओं के निर्देश को दरकिनार कर अपने विवेक से काम किया। एक परिपक्व राजनीतिक सोच के तहत वोट डाले। सारे बड़े मुस्लिम संगठनों में सिर्फ मिल्ली काउंसिल ने ही कांग्रेस को वोट करने की अपील की। मुस्लिम संगठन-ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव डॉ। मोहम्मद मंजूर आलम कहते हैं कि मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों का चुनाव के समय उभरना और फिर इसमें भाग लेना आम तौर पर सेकुलर मतों के विभाजन का कारण बन जाता है, जो कि बहुत ही हानिकारक होता है।
मुसलमानों के बीच इस बार के चुनाव में इंसाफ के साथ सुरक्षा एक बड़ा मसला बनकर उभरा है। बिहार में 20 साल बाद नीतीश कुमार ने भागलपुर दंगों में शामिल लोगों को गिरफ्तार किया। कुछ पर तो आरोप साबित भी हो चुके हैं। यही वजह है कुछ मुसलमानों ने नीतीश कुमार की पार्टी जद-यू को वोट दिया। मुसलमानों के थोड़े वोट हाथ से निकलते ही लालू और पासवान के गढ़ों के भी दरकने का ख़तरा पैदा हो गया। मुस्लिम पार्टियों और उनके उम्मीदवारों के उठाए मुद्दों में घरेलू मसलों से लेकर शोषण, बेरोज़गारी, अशिक्षा और तक़लीफें भी शामिल हैं। उत्तरप्रदेश के कुछ मुसलमानों ने बातचीत में यह भी कहा कि इस बार न तो समाजवादी पार्टी और न ही बहुजन समाज पार्टी को वोट दिया, बल्कि साफ छवि वाले उम्मीदवारों को ही वोट दिया। वे यहां तक कह गए कि अगर भारतीय जनता पार्टी अपना हिंदुत्व का एजेंडा छोड़ दे और अच्छे उम्मीदवार खड़े करे तो उन्हें भी वोट डालने में परहेज नहीं होगा।
राजनीति में सांप्रदायिकता का सहारा लेने वाले संगठनों और नेताओं को भी जनता ने एक संकेत दिया। जनता ने बता दिया कि चुनाव के वक्त मंदिर-मस्जिद का राग और अन्य सांप्रदायिक मामलों से उनकी भावनाओं पर असर नहीं पड़ने वाला है और वे इन संगठनों के बहकावे में नहीं आने वाले हैं। मतदाताओं ने सांप्रदायिक ताक़तों को एक सिरे से नकार किया। इसका असर हुआ कि चुनाव के दौरान माहौल को सांप्रदायिक बनाने वाले संगठन इस बार खुलकर सामने नहीं आए। न ही इस बार वीएचपी के आग उगलने वाले नेता नज़र आए और न ही किसी मौलवी ने फतवा देने की कोशिश की। चुनाव प्रचार की शुरुआत में वरुण गांधी के जहरीले भाषण और उसके बाद विश्व हिंदू परिषद के नेताओं के बयान से ऐसा लगा कि फिर से समाज को बांटने की तैयारी है, लेकिन जनता की प्रतिक्रिया ने समाज में जहर घोलने वाले संगठनों की हिम्मत तोड़ दी।
इस चुनाव में पहली बार ऐसा भी हुआ कि देश भर के मंदिरों-मस्जिदों और ख़ानकाहों में धर्म की शिक्षा देने वाले सनातनी साधु, संत, मौलवी और सू़िफयों ने धार्मिक उन्माद फैलाने वाले उम्मीदवारों और पार्टियों के ख़िला़फ पूरे देश का दौरा किया। अलग-अलग समूहों में ये देश के भिन्न-भिन्न शहरों और कस्बों में गए और वहां अच्छे उम्मीदवारों को वोट करने की अपील की। सनातनी संतों और सू़िफयों ने समाज में भाईचारे, रोज़गार, शिक्षा और विकास करने वाले उम्मीदवारों को समर्थन देने की अपील की। सबसे हैरान करने वाली घटना वह रही, जब कुछ हिंदू संतों ने चुनाव आयोग में जाकर शिकायत की। इन लोगों ने हिंदू धर्म के नाम पर चुनाव प्रचार करने वाली भारतीय जनता पार्टी की मान्यता रद्द करने की भी मांग की। इन सनातनी संतों और सू़िफयों को देश भर में समर्थन मिला। इन लोगों का प्रयास इस बात का संकेत देता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की जड़ें कितनी मजबूत हैं।
कुछ संकेत राजनीतिक दलों से भी मिले। पूरे 11 वर्षों बाद भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में राममंदिर, गोहत्या, सामान आचार संहिता और अनुच्छेद 370 की बात की, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान इसे अधिक महत्व नहीं दिया। इससे भारतीय जनता पार्टी के अंदर के मतभेद सामने आ गए। जिन लोगों ने चुनाव घोषणापत्र बनाया उनकी चुनाव-प्रचार में भूमिका नहीं थी। जिस तरह से भाजपा के प्रचार से सांप्रदायिक मुद्दे गायब हुए, उससे तो यही लगता है कि भाजपा जैसी पार्टी को भी यह समझ में आ चुका है कि देश की जनता भावनात्मक मुद्दे पर नहीं, ज़मीन से जुड़ी समस्याओं और विकास के मुद्दे पर ही वोट करेगी।
एक संकेत कांग्रेस के नेताओं ने दिया। इस चुनाव में कांग्रेस के कई नेताओं के व्यवहार से यह भी साबित हुआ है कि अपना नंबर बढ़ाने के लिए कांग्रेस के नेता स्वयं ही चापलूसी का रास्ता चुनते हैं। गांधी परिवार को खुश करने के चक्कर में ये कांग्रेस पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी कर देते हैं। हंसराज भारद्वाज ने क्वात्रोची मामले में खुद ही सारा निर्णय ले लिया और सोनिया गांधी व कांग्रेस पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी कर दी। राहुल गांधी की नज़र में आने के लिए उन्हें अगला प्रधानमंत्री बनाने की होड़ लग गई। कांग्रेस के नेता चुनावी रैलियों में खुल कर कहने लगे कि देश का नेतृत्व अब युवा के हाथों जाना चाहिए, राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे। इसके उलट सोनिया गांधी जहां गईं, वहीं मनमोहन सिंह को अगला प्रधानमंत्री बताया। राहुल गांधी खुद कहते रहे कि यूपीए के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं और वह ही बने रहेंगे।

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