राज्य में इन दिनों राजधानी स्थानांतरण का काम जोरों पर चल रहा है. जम्मू से श्रीनगर और फिर श्रीनगर से जम्मू, राजधानी का हर छह माह के लिए स्थानांतरण पिछले 141 वर्षों से जारी है. यह और बात है कि इस मद में सरकारी खजाने से साल में दो बार भारी-भरकम धनराशि खर्च हो जाती है.
सर्दियों की राजधानी जम्मू से तीन सौ किलोमीटर दूर श्रीनगर को गर्मियों की राजधानी में तब्दील करने का काम युद्ध स्तर पर चल रहा है. श्रीनगर की सड़कों एवं राजमार्गों पर रंग-रोगन करके उन्हें दुल्हन की तरह सजाया जा रहा है. श्रीनगर में छह महीने तक स्थानांतरित रहने वाले सचिवालय में मई से राज्यपाल, मुख्यमंत्री एवं विभिन्न विभागों के अधिकारी-कर्मचारी कार्य शुरू करेंगे. लेकिन छह महीने बाद यानी अक्टूबर में सरकार जम्मू स्थानांतरित होगी और तमाम सरकारी रिकॉर्ड और फाइलों को सैकड़ों ट्रकों में जम्मू रवाना कर दिया जाएगा.
एक बार शासन स्थानांतरित करने में एक महीना बर्बाद हो जाता है. यह कार्रवाई वर्ष में दो बार दोहराई जाती है. मतलब यह कि हर वर्ष आठ हज़ार कर्मचारियों के दो महीने बिना कार्य के गुज़र जाते हैं. समस्या केवल पैसे और समय की बर्बादी ही नहीं है, बल्कि दो बार मूव के कारण कर्मचारियों को मानसिक दबाव भी सहना पड़ता है. श्रीनगर के कर्मचारियों को जम्मू में और जम्मू के कर्मचारियों को श्रीनगर में छह महीने तक अपने परिवार से दूर रहना पड़ता है.
पिछले 141 वर्षों से यही होता आया है. जम्मू-कश्मीर में दो राजधानियों की व्यवस्था 1872 में शुरू की गई थी. उस समय महाराजा गुलाब सिंह का शासन था. तब दो बार मूव करने की परंपरा का औचित्य भी था, क्योंकि श्रीनगर में अक्टूबर की शुरुआत के साथ ही भयंकर सर्दी शुरू हो जाती थी. ब़र्फबारी से कई माह तक सड़कें और राजमार्गअवरुद्ध हो जाते थे. लोग हफ्तों तक घरों से बाहर नहीं निकल पाते थे. सरकार भी निष्क्रिय हो जाती थी, इसलिए महाराजा ने शासन व्यवस्था को सर्दियों में जम्मू स्थानांतरित करने का निर्णय लिया. दूसरा कारण यह था कि जम्मू में अप्रैल की शुरुआत के साथ ही भीषण गर्मी शुरू हो जाती थी. तापमान इतना बढ़ जाता था कि लोगों का घर से बाहर निकलना असंभव हो जाता था. इसलिए महाराजा ने यह निर्णय लिया कि गर्मियों में शासन व्यवस्था श्रीनगर स्थानांतरित की जानी चाहिए. इस प्रकार से जम्मू-कश्मीर में दो बार मूव की शुरुआत हुई थी. लेकिन 141 वर्षों में दुनिया बदल गई, मौसम की स्थितियां बदल गईं, मौसम की मार से निपटने के लिए आज आधुनिक तकनीक और विशेष सुविधाएं उपलब्ध हैं. आधुनिक मशीनें मिनटों में सड़कों से ब़र्फ की मोटी-मोटी चादरें हटा देती हैं. भीषण गर्मियों में भी कार्यालयों के अंदर एसी के कारण अच्छा वातावरण मिल जाता है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि अब वर्ष में दो बार शासन इधर-उधर करने का क्या अर्थ है? यह तो एक तरह से आर्थिक रूप से बदहाल राज्य के कोष पर दोहरा बोझ है.
साल में दो बार सरकारी रिकॉर्ड यहां से वहां पहुंचाए जाते हैं. मुख्यमंत्री एवं वरिष्ठ अधिकारियों को हवाई जहाज़ से एक राजधानी से दूसरी राजधानी पहुंचाने के प्रबंध के साथ-साथ लगभग आठ हज़ार सरकारी कर्मचारियों को यात्रा के लिए प्रति कर्मचारी पांच हज़ार रुपये का भुगतान करना पड़ता है और उनके आवास का व्यय अलग से. जम्मू-कश्मीर के सामान्य प्रशासन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इस बार मूव के लिए स्टेट ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन ने 140 ट्रकों की व्यवस्था की है. हर ट्रक का किराया 15 हज़ार रुपये है. कर्मचारियों को पांच हज़ार रुपये यात्रा भत्ते के रूप में दिए जा रहे हैं, सुरक्षा का खर्च अलग है. एक बार के मूव में 70 करोड़ रुपये का ़खर्च आता है. हाल में विधानसभा सत्र के दौरान शासन ने दो बार मूव के बारे में व्यय का विवरण उपलब्ध कराते हुए कहा था कि विगत तीन वर्षों में कर्मचारियों के ठहरने के लिए 74 होटलों एवं पर्यटन विभाग के सैकड़ों आवासीय केंद्रों पर 100 करोड़ रुपये से अधिक व्यय करना पड़ा. सवाल यह है कि एक ऐसा राज्य, जिसकी अपनी आमदनी इतनी भी नहीं है कि वह अपने कर्मचारियों का वेतन दे सके, वहां पर साल में दो बार मूव के नाम पर इस शाही खर्च का क्या औचित्य है?
वैली सिटीजंस काउंसिल के अध्यक्ष ज़री़फ अहमद ज़री़फ कहते हैं कि दो बार मूव की व्यवस्था सरकारी खजाने पर एक ग़ैर-ज़रूरी बोझ है. अब दरबार मूव की यह परंपरा बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं है. महाराजा गुलाब सिंह ने मौसम की भीषणता से बचने के लिए यह सिलसिला शुरू किया था, लेकिन आज मौसम में परिवर्तन हुआ है. अब न तो घाटी में उतनी ब़र्फबारी होती है और न ही जम्मू में उतनी भीषण गर्मी. ऐसे में डेढ़ शताब्दी पुरानी इस परंपरा को बनाए रखने का क्या औचित्य है? हम लोकतंत्र के दौर में रहते हैं. अब हर क्षेत्र के लोगों को समान सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए. दिलचस्प यह है कि हर बार शासन स्थानातंरण के दौरान एक महीने का समय व्यर्थ चला जाता है. सचिवालय कर्मी एजाज़अहमद खान कहते है कि तैयारियों एवं फाइलें आदि समेटने में ही दस दिन लग जाते हैं, पूरा रिकॉर्ड स्थानांतरित करने में एक सप्ताह और फिर कार्यालय सजाने में दस दिन लगते हैं. यानी एक बार शासन स्थानांतरित करने में एक महीना बर्बाद हो जाता है. यह कार्रवाई वर्ष में दो बार दोहराई जाती है. मतलब यह कि हर वर्ष आठ हज़ार कर्मचारियों के दो महीने बिना कार्य के गुज़र जाते हैं. समस्या केवल पैसे और समय की बर्बादी ही नहीं है, बल्कि दो बार मूव के कारण कर्मचारियों को मानसिक दबाव भी सहना पड़ता है. श्रीनगर के कर्मचारियों को जम्मू में और जम्मू के कर्मचारियों को श्रीनगर में छह महीने तक अपने परिवार से दूर रहना पड़ता है.
1978 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शे़ख अब्दुल्ला ने इस परंपरा को समाप्त करने का प्रयास किया था, लेकिन वह असफल रहा. नौ वर्ष बाद शे़ख अब्दुल्ला के बेटे फारू़ख अब्दुल्ला ने बतौर मुख्यमंत्री दो बार मूव की परंपरा समाप्त करने का प्रयास करते हुए शासन को स्थायी रूप से श्रीनगर में ही रखने का प्रयास किया था, लेकिन उस निर्णय पर जम्मू की जनता ने एक एजिटेशन शुरू कर दी, जिसके कारण ़फारू़ख अब्दुल्ला सरकार को अपना निर्णय अंतत: बदलना ही पड़ा. पिछले वर्ष मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सोशल साइट टि्वटर पर लिखा था, क्या मैं समझता हूं कि दो बार मूव हानिकारक है? जी हां, मैं ऐसा समझता हूं. क्या इसका कोई विकल्प है? आज तक मुझे कोई विकल्प सुनने को नहीं मिला है.
राजीव गांधी ने 1980 के दशक में जब प्रधानमंत्री के रूप में श्रीनगर का दौरा किया था, तो उन्होंने एक जनसभा को संबोधित करते हुए दरबार मूव का खुलकर विरोध किया था. उन्होंने कहा था कि जब यहां भीषण सर्दी के कारण कश्मीरी जनता को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, तब सरकार भागकर जम्मू चली जाती है और जब जम्मू में भीषण गर्मी के कारण लोगों की कठिनाइयों में वृद्धि होती है, तो वह घाटी में चली आती है. हाल में एक वरिष्ठ समाजसेवी ने दो बार मूव के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की, जिसमें अपील की गई थी कि अदालत जम्मू-कश्मीर में दो बार मूव का सिलसिला समाप्त करने का निर्देश दे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह याचिका खारिज कर दी. पत्रकार तारिक़ अली मीर इसे लोकतंत्र के युग में शख्सी राज की एक ग़ैर-मुनासिब परंपरा मानते हैं. उन्होंने कहा कि 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो कश्मीर में भी शख्सी राज समाप्त हुआ था, लेकिन सचिवालय का स्थानांतरण पूर्व की भांति जारी रहा. इसका सबसे घातक परिणाम यह है कि इसने जम्मू बनाम कश्मीर विवाद को जन्म दिया. दोनों क्षेत्रों को समान रूप से न्याय और बेहतर शासन उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन सरकार केवल श्रीनगर में टिकी रहनी चाहिए. बार-बार का स्थानांतरण शासकों एवं वरिष्ठ अधिकारियों के लिए लूट-खसोट का माध्यम बन गया है. नेशनल पैंथर्स पार्टी के अध्यक्ष प्रो. भीम सिंह ने दो बार मूव के विरोध में आंदोलन शुरू कर रखा है. उन्होंने कहा कि इस बार मूव के दौरान हम राजमार्गों पर उन ट्रकों को रोक देंगे, जिनमें सरकारी फाइलें और रिकॉर्ड जाते हैं. भीम सिंह कहते हैं कि यह परंपरा ग़रीब जनता पर एक बहुत बड़ा बोझ है. हर वर्ष मूव पर जितना पैसा खर्च किया जाता है, उससे एक लाख बेरोज़गार युवाओं को चार हज़ार रुपये मासिक भत्ता दिया जा सकता है.
दिलचस्प बात यह है कि दरबार मूव के भारी नुक़सान के बावजूद कुछ लोग खुलकर इसका पक्ष भी लेते हैं. स्वर्गीय शे़ख अब्दुल्ला के क़रीबी साथी अहमद यूसु़फ टैंग ने कहा, मैं दरबार मूव के पक्ष में हूं, क्योंकि इसके लाख नुक़सान हो सकते हैं, लेकिन इसके कुछ फायदे भी हैं. दरबार मूव जम्मू और कश्मीर के दोनों क्षेत्रों को एक-दूसरे के साथ जोड़े रखने का एक माध्यम है. शासन स्थानांतण की यह परंपरा दुनिया में कहीं और नहीं मिलती है, इसलिए हमें इस पर गर्व होना चाहिए. यह याद दिलाने पर कि मूव के कारण आर्थिक रूप से बदहाल राज्य पर ग़ैर-ज़रूरी बोझ पड़ता है, टैंग ने कहा, आप भ्रष्टाचार समाप्त करने का प्रयास करिए, दरबार मूव का खर्च निकल आएगा. यहां करोड़ों रुपये के घपले-स्कैंडल हैं. भ्रष्टाचार रोक दीजिए, तो दरबार मूव पर खर्च होने वाला पैसा मामूली लगेगा. हमारी आर्थिक बदहाली का कारण दरबार मूव नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार है.