मुंबई: 13 अप्रैल 1919. दुनिया के इतिहास में दर्ज वो तारीख है जहां अंग्रेजों ने मानवता को शर्मसार करने वाली इबारत लिखी थी। जब एक बाग में शांतिपूर्ण तरीके से सभा कर रहे निहत्थे-निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसा दी गई थीं। वह जगह थी अमृतसर का जलियांवाला बाग और इस अत्याचार का सबसे बड़ा गुनहगार था जनरल डायर। उस नरसंहार को आज सौ साल हो गए। हर भारतीय का मन उस त्रासदी के जख्मों से आहत है।
ब्रिटिश सरकार ने लंबा वक्त लगा दिया इस घटना पर शर्मिंदगी जताने में, लेकिन माफी अभी भी नहीं मांगी है।
अंग्रेजों के रौलेट एक्ट के विरोध में लोग जलियांवाला बाग में सभा के लिए एकत्र हुए थे। वहां आए लोगों में अंग्रेज सरकार के प्रति गुस्सा था, फिर भी वे शांत थे। यह एक दिन में पैदा हुआ आक्रोश नहीं था। इसकी चिंगारी 1857 में ही पैदा हो गई थी। मार्च 1919 में जब ‘न वकील, न दलील और न अपील’ वाला काला कानून पास हुआ तो लोगों ने इसका विरोध किया। इसी विरोध की बौखलाहट में अंग्रेज शासन ने जलियांवाला बाग में मानवता-सभ्यता की हदें पार कर दीं। इन्हीं जख्मों की टीस से भगत सिंह और शहीद ऊधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों का जन्म हुआ, जिन्होंने जंग-ए-आजादी की ज्वाला और तेज कर दी।
जलियांवाला बाग हत्याकांड की 100 वीं बरसी पर जानिये, अंग्रेजों की साजिश का कला सच
भारत में बढ़ती क्रांतिकारी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए ब्रिटिश भारत की अंग्रेज सरकार ने रौलेट एक्ट पास किया था। विरोध के बावजूद इस कानून को 21 मार्च 1919 को लागू कर दिया गया। इस एक्ट के विरोध में गांधी जी ने पूरे देश में 30 मार्च को सभाएं करने और जुलूस निकालने का आह्वान किया था। बाद में यह तिथि बदलकर छह अप्रैल कर दी गई थी। इस दिन पूरे देश में हड़ताल हुई। गांधी जी को बंबई (अब मुंबई) से पंजाब जाते समय गिरफ्तार करके अहमदाबाद भेज दिया गया। इस हड़ताल में पंजाब, विशेषकर अमृतसर के लोगों ने सक्रिय रूप से भाग लिया।
बंद था अमृतसर
छह अप्रैल को पूरा अमृतसर बंद था। टाउन हॉल के आस-पास की सड़कें तकरीबन खाली हो गई थीं, क्योंकि सब लोग जलियांवाल बाग पहुंच चुके थे। रौलेट एक्ट का विरोध कर रहे पंजाब के दो प्रमुख नेताओं डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सतपाल को गिरफ्तार कर लिया गया तो पंजाबियों का गुस्सा भड़क उठा। 10 अप्रैल 1919 को अमृतसर में दंगे भड़क गए। गुस्साए लोगों ने कई यूरोपीय लोगों को मार दिया।
जनरल डायर के प्रति आज भी लोगों में है नफरत
डायर की करतूत से भले ही इंग्लैंड आज शर्मिंदा है लेकिन भारतीयों के मन में उसके लिए नफरत आज भी जिंदा है… इस नफरत की जुबां बन गई है जलियांवाला बाग स्थित संग्रहालय में लगी पेंटिंग। कलाकार जसवंत सिंह द्वारा बीसवीं सदी के सातवें दशक में बनाई गई नरसंहार की इस मार्मिक तस्वीर पर यहां आने वाले दर्शक आज भी अपनी नफरत की निशानियां छोड़ जाते हैं। लोगों को जनरल डायर का चेहरा देखना गवारा नहीं इसलिए वे इसे खुरच देते हैं। जलियांवाला बाग नेशनल मेमोरियल ट्रस्ट के सचिव एसके मुखर्जी के अनुसार इस चित्र पर जनरल डायर के चेहरे (लाल घेरे में) को कई बार ठीक भी करवाया गया है, लेकिन यहां आने वाले दर्शक उस पर अपना गुस्सा निकाल ही जाते हैं।
खून से रंग गया जलियांवाला बाग
वह बैसाखी का दिन था। किसान की पकी फसलें काटे जाने की प्रतीक्षा में थीं, पर देशवासी गेहूं से ज्यादा भारत मां की गुलामी की जंजीरों को काटने को बेचैन थे। जलियांवाला बाग में लोग पहुंच रहे थे। ठीक साढ़े चार बजे सभा शुरू हुई। जब जनरल डायर बाग में गया तो दुर्गादास भाषण दे रहे थे। ठीक पांच बजकर दस मिनट पर डायर के हुक्म से गोलियां बरसने लगीं। जान बचाने के लिए जनता भागने लगी, पर रास्ता नहीं था। बाग का कुआं लाशों से भर गया और अनेक लोग कुएं में ही मारे गए। स्वयं डायर ने एक संस्मरण में लिखा है-‘1650 राउंड गोलियां चलाने में छह मिनट से ज्यादा ही लगे होंगे।’ सरकारी आंकड़ों के अनुसार 337 लोगों के मरने और 1500 के घायल होने की बात कही गई है, किंतु दुर्भाग्य से सच्चाई आज तक सामने नहीं आई है।
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