1
पहला उत्सव

जगह-जगह उम्मीदें बरस रही हैं
उजाले पर पूरी तरह छा गए हैं बादल

अँधेरे और उजाले में जैसे ठन गई
खुशनुमा धुंधलका छा गया चारों ओर
यह सुनाई देना बंद हुआ कि
गरमी और उमस के काँटे चुभ रहे हैं

सबकी इच्छाएँ फलदार हुईं
गिरने लगे ठंडे-ठंडे छोटे-छोटे फूल

घरों में बच्चे खिड़की पर बैठे हुए
कुछ गा रहे
सड़क पर इक्का-दुक्का लोग
जा रहे छातों में दुबककर
माँ गैलरी की डोरी पर
भीगे कपड़े डाल रही है
मैं देख रहा हूँ सामने का दुमंजिला होता हुआ घर ईंटें तर हैं मजबूत होने पर खुश

आसमानी बूँदों की खातिर
यहाँ यह पहला उत्सव है
जब सब सिर्फ उनके बारे में ही सोच रहे और बोल रहे हैं
झूम रहे हैं पर्दे और पेड़

हवा समाती जा रही पत्तों में
और उकसा रही है उन्हें गाने के लिए
उधर किसानों ने फेंक दी निराशा की चादर धरती, माँ होने के एहसास को
और ज्यादा जीने लग गई


2
पता नहीं

पता नहीं
कौन सी नदी में
डूबकर आई है हवा
कि रात तक सूखते ही नहीं उसके कपड़े

पता नहीं
कौनसा दृश्य
निहार रहे हैं बादल
कि आँसुओं के गिरने पर भी
नहीं होती बंद
उनकी पलकें

पता नहीं कौन सी
खुशी में सराबोर है धरती
कि सुनती ही नहीं
सूरज की दस्तक

पता नहीं कौन से
उन्माद में
चली जा रहीं हैं नदियां
कि अपने ही किनारों को
डुबोते हुए
उन्हें कोई दुःख नहीं


3

जल रौद्र

माँ ने उल्टा तवा रख दिया है
दरवाजे पर
प्रार्थनाएँ गाई जा रही हैं
काँपती आवाज में
बूंदें फिर भी सामूहिक आंदोलन
पर हैं
भरे ही जा रही हैं नदियों
और तालाबों को भयावहता की सीमा तक
कभी शीत से डरा था हर शख्स
कभी गर्मी से
आज बरसात के नाग फन ताने खड़े हैं
आज मनुष्य डर रहा है
जल के रौद्र से।


4.

बरसना*

बादलों का स्वभाव है
बरस जाना

जब इस बस्ती में बरसे
तो हम खुश हुए
जब उस बस्ती में बरसे तो
वे खुश हुए
उन्हें किसी की खुशी से इतना
वास्ता नहीं
जितना
बरसने से है।


5
इस ध्वनि को.

इस ध्वनि को कौन सी उपमा दी जाए
अगस्त की इस आधी रात में जो
आरोह और अवरोह खेल रही है
बूंदें ही बूंदें हैं हर तरफ मोटी मोटी
आतीं बादलों से और तेज़ तेज़

सतहें तय करतीं हैं इस ध्वनि का राग
मैं तो बस इसे मस्तिष्क से सुन रहा हूँ
छत,जमीन और टीन

खेत,सड़क,नदी,नाले और पेड़
इसका आनंद ले रहे हैं
जैसे उनके हाथ में है इस ध्वनि को धुन में परिवर्तित करना

यह रात मुझे भा रही है
मैं बादलों की गरज के बीच
प्रपात के स्वर में लोरी सुन रहा हूँ
नींद पुकार रही है
इस अतिवर्षा में बूंदों का महागान मेरे लिए
सुभीता है

मैं बेखबर हूँ नदी किनारे बसे घरों के
रहवासियों के इस समय उपजे डर से


6.
बाढ़ के बाद.

धुली धुली सी मिलीं सड़कें
पेड़ अधटूटे मिले

किनारे कांप रहे हैं नदी के
झोपड़ियाँ जैसे अपनी अस्मिता लुटा
चुकी हैं
बह चुके बर्तनों का हिसाब लगाकर
रो रहे हैं मजदूर

बाढ़ आई थी
ले गई अपने साथ
कई लोगों की खुशियां

डूबी रही इतने दिनों तक
भगवान की मूरत भी.


7
बाढ़ आई थी

तोड़ गई नदी का पुल
छोड़ गई अपने पैरों के निशान
दिखाकर अपना विकराल, चली गई

श्मशान के घाट का
गला दबाकर खेलती रही
चढ़ी रही झोंपड़ियों के सर पर

करती रही लोगों को बेघर
पशुओं को बहाती रही
पेड़ों को ठिठुरते हुए देखकर
नहीं पिघला उसका दिल

किनारे पर बसे लोगों को मार कर,
पीट कर चली गई

बाढ़ आई थी
नदी के पड़ोसियों की
नाक में दम कर के चली गई

भगवान की मूरत तो छोड़ो
मंदिरों को भी डुबोकर चली गई,

सबने कहा उससे कि वापस जाओ
वो अपना स्वभाव बताकर चली गई


8
बरसात की प्रतीक्षा में

अब तक तुम इस शक्ल में मेरे साथ हो, ऐ-बरसात
वह बाढ़ का ही पखवाड़ा था
जब मैं जन्मा था

तुम आई थीं एक बार तो आ नहीं सकी थी बुआ पिताजी नहीं बंधवा सके थे राखी
बुआ ससुराल में सिसकती रही

एक बार तुमने कितना सुहाना किया था
नदी को उतना भरा था
जितने पानी में हम बहते हुए तैरने का
मजा ले सकते थे

और एक बार तो तुम ऐसी आईं
कि गाँव में आधे लोग सो नहीं सके रातों को

पिछले साल ही तुमने कितना तंग किया था
पंद्रह दिन तक लगातार बरसकर

नदियों में तीव्र आवेग
पक्षी और जानवरों का काँपना,
पेड़ों तक का ठिठुरना,
सभी को याद है
और इस बार तुम इस रूप में साथ हो
कि हम इंतज़ार कर रहे हैं तुम्हारे एक दौरे का


9

बरसात.
—-

आँखों से बरसते हुए भी
तुम्हैं देखा है कई बार

आँखों को तरसाते हुए
खामोश रहना भी तुम्हारी दीगर अदा है

तुम समुन्दर पर गिरती हो
बगैर संकोच किये हुए
तुम धरती में समाती हो
खेतों के लिए ठीक उस समय प्रकट होती हो
जब उन्हें तेज प्यास लगी होती है

तुम जीवन के लिए बहुत काम की चीज हो
तुम्हारे ही स्वागत में बादल तैयार होते हैं
सूरज चुपचाप सो जाता है
बादलों का कंबल ओढ़कर

ये जो खबरें हैं
नदियों के भरने की
तुमने ही भेज दीं हैं.

तुमने हर जगह पानी नहीं
उम्मीद की बरसात की है.


10

नदियों से कुछ मत कहो।

जहां तक जाती है दृष्टि
पानी ही पानी के दृश्य हैं
चल रही है बरसात।

गाँव में यह बरसात
कभी उम्मीद है तो
कभी बच्चों को कागज़ की नाव
तैराने का मौका
और कभी बहुत डरावनी
जैसे सपनों में आती है कोई राक्षसी
जिसके आते ही घर से बाहर निकल नहीं सकते

खेतों में यह बरसात
प्यासे को पानी मिलने का त्योहार है

सड़कों को स्नान का लुत्फ़ है
यह बरसात
अपने धीरज के फल के पकने पर
इत्मीनान में हैं वृक्ष

नदियों से अभी कुछ मत कहो
वे सुहानी सी व्यस्तता में मगन हैं

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