अखिलेश सरकार के दौरान हुई यह पहली मुस्लिम विरोधी हिंसा थी, जिसे किसी भी नज़रिए से दंगे का नाम नहीं दिया जा सकता. दंगा दो फिरक़ों के बीच होता है, लेकिन यह तो मुसलमानों पर सोची-समझी साज़िश के तहत हुआ हमला था और यह मुस्लिम विरोधी हिंसा की शुरुआत थी. कोशीकलां में यह ख़ूनी खेल पिछले साल एक जून को खेला गया था. तब सूबे की सरकार नई-नवेली थी और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नौजवान चेहरा था. चुनावी वादे लोगों की याददाश्त से ग़ायब नहीं हुए थे. उम्मीद थी कि नया ख़ून कुछ कर दिखाएगा. बदलाव की अब नई इबारत लिखी जाएगी, वह भी पत्थरों पर नहीं, ज़मीन पर, लेकिन इस उम्मीद को पहला झटका तब लगा, जब रघुराज प्रताप सिंह उ़र्ङ्ग राजा भैया को कैबिनेट में शामिल कर लिया गया. हैरानी की बात यह है कि जिसे जेल में होना चाहिए, वह जेल मंत्री बना दिया गया. यह अलग बात है कि पहले उन्हें जेल मंत्री के ओहदे से हटना पड़ा और फिर कुंडा में हुए तिहरे हत्याकांड के गहरे छींटों ने उन्हें कैबिनेट से अंतत: बाहर ही कर दिया, लेकिन यह सारा कुछ राजा भैया नाम के बवाल से छुट्टी मिलने जैसा नहीं था. बावजूद इसके उम्मीद पूरी तरह टूटी नहीं.
तहज़ीब और सली़के का मसला हिंदू-मुसलमान की तक़रार में बदलने लगा. इससे पहले कि हालात बेक़ाबू होते, ज़िले के पुलिस प्रमुख मौ़के पर पहुंच गए. सुलह-सफाई हुई और आख़िरकार चांटा मारने वाले नमाज़ी ने अपनी ग़लती की मा़ङ्गी मांग ली. इस मामले को हिंदुओं पर हमला मानकर ग़ुस्साए लोग भी शांत हो गए और मामला रफा-दफा हो गया.
दिल बहलाने के लिए हज़ार बहाने पैदा हो जाते हैं. यह तर्क भी पैदा हो गया कि सियासत का रास्ता इतना आसान नहीं हुआ करता, न चाहते हुए भी तमाम दबावों और समझौतों से गुज़रना पड़ता है. मुलायम सिंह यादव की छाया इतनी जल्दी भला कैसे काङ्गूर हो सकती है. समझदार जानते थे कि यह सरकार केवल नए लेबल वाली बोतल में पुरानी शराब भर है, उससे ज़्यादा उम्मीद पालना ख़ुद को धोखा देने के सिवाय कुछ भी नहीं. फिर भी इतनी उम्मीद तो सभी को थी कि और चाहे कुछ हो या न हो, कम से कम फिरक़ापरस्त ताक़तों पर शिकंजा ज़रूर कसेगा और अमन पर कोई आंच नहीं आएगी, लेकिन कोशीकलां में हुई वारदात ने इसे ग़लत साबित कर दिया. मसला बहुत छोटा था. जुमे की नमाज़ का समय हो चला था. इसी बीच एक हिंदू युवक ने पेशाब करने के बाद अपना हाथ उस टंकी में डुबो दिया, जिसका पानी वज़ू करने के लिए रखा गया था. एक नमाज़ी ने इस पर आपत्ति जताते हुए उस युवक को फटकार लगा दी, लेकिन अपनी गलती पर शर्मिंदा होने की बजाय वह झगड़ा करने पर आमादा हो गया. ग़ुस्से में नमाज़ी ने उसे चांटा जड़ दिया और मामला बिगड़ गया. तहज़ीब और सलीके का मसला हिंदू-मुसलमान की तक़रार में बदलने लगा. इससे पहले कि हालात बेक़ाबू होते, ज़िले के पुलिस प्रमुख मौ़के पर पहुंच गए. सुलह-सफाई हुई और आख़िरकार चांटा मारने वाले नमाज़ी ने अपनी ग़लती की माफी मांग ली. इस मामले को हिंदुओं पर हमला मानकर ग़ुस्साए लोग भी शांत हो गए और मामला रफा-दफा हो गया.
फिरक़ापरस्त ताक़तें हमेशा इसी ताक में रहती हैं कि कब उनके हाथ कोई ऐसा मौक़ा लग जाए, जिससे कि नफरत की अंधी आग भड़क उठे. उत्तर प्रदेश के मथुरा ज़िले के कोशीकलां क़स्बे में दरअसल यही हुआ. बात बहुत मामूली-सी थी, लेकिन उसे इस क़दर उलझाया गया कि देखते ही देखते यह छोटा-सा क़स्बा हैवानियत का मैदान बन गया. घंटों ज़ुल्म का सिलसिला चला, मस्ज़िदों पर हमला हुआ, दुकानें लूटी-जलाई गईं और चार लोगों को ज़िंदा फूंक भी दिया गया. सबसे बड़ा नुक़सान तो यह हुआ कि बरसों पुराना भाईचारा और आपसी विश्वास दरक गया.
अगला अध्याय अभी बाक़ी था. इधर लोगों ने सुकून की सांस ली और उधर अ़ङ्गवाहों का बाज़ार गर्म होने लगा. ख़बर उड़ी कि क़स्बे के मुस्लिम नौजवानों ने कुछ हिंदू लड़कियों का अपहरण कर लिया है और उनके साथ कोई भी अनहोनी घट सकती है. हुंकार भरी गई कि हिंदू लड़कियों को बचाना और इस ज़ुर्रत के लिए मुसलमानों को सबक़ सिखाना हिंदुओं का धर्म है. इससे ठीक छह दिन पहले यह अफवाह भी गढ़ी जा चुकी थी कि स्थानीय मदरसे से तीन आतंकवादी पकड़े गए और उनके पास से बड़ी मात्रा में हथियार एवं विस्फोटक बरामद हुए तथा उनका मक़सद क़स्बे में किसी बड़ी वारदात को अंजाम देना था. कुछ अख़बारों ने इस अफवाह को ख़बर बनाकर भी पेश कर दिया. इससे माहौल में गर्माहट ज़रूरत से ज़्यादा घुल गई. नई अफवाह ने उसे और गाढ़ा कर दिया. फिर क्या था, आस-पास के जाट बहुल गांवों से जत्थे के जत्थे क़स्बे की ओर कूच कर गए. देखते ही देखते हज़ारों की तादाद में लोग एकत्र हो गए. उनके पास बंदूकें, लाठियां और पेट्रोल से भरी बोतलें थीं. क़स्बे में घुसने से उन्हें रोका नहीं जा सका. मुस्लिम विरोधी हिंसा इस तरह परवान चढ़ गई. यह वारदात किसी बड़ी चूक का नतीज़ा नहीं थी. चूक होती, तो उसे दुरुस्त किया जाता, एहतियात बरती जाती कि आइंदा ऐसी घटना न होने पाए. याद कीजिए, जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में सिख विरोधी हिंसा की लहर उठी थी, तब राजीव गांधी ने यह बयान देकर उस बर्बर लहर को जायज़ ठहराने का काम किया था कि कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिल उठती है. इस बयान ने बलवाइयों के हौसले बुलंद करने का काम किया था. यह भी याद कीजिए कि उसी दौरान हावड़ा ब्रिज पर भी दो सिखों को ज़िंदा जलाया गया था. पश्चिम बंगाल में सिख विरोधी हिंसा की वह पहली वारदात थी. इस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने बिना कोई देरी किए सख्त हिदायत दी थी कि सिखों की पूरी ह़िङ्गाज़त की जाए और वह ऐसी अगली ख़बर सुनने के लिए तैयार नहीं, वरना पुलिस-प्रशासन के ज़िम्मेदारों की ख़ैर नहीं. उसका असर हुआ और हावड़ा ब्रिज जैसी कोई दूसरी वारदात उस दौरान नहीं हुई. बेशक़, अगर सरकार ठान ले तो ऐसी वारदातें रोकी जा सकती हैं. इसके लिए मज़बूत इरादे की ज़रूरत होती है और इरादे तभी बनते और मज़बूत होते हैं, जब सचमुच ऐसी कोई चाहत हो. यही चाहत नदारद थी, इसलिए यह कह सकते हैं कि कोशीकलां की वारदात पहली और आख़िरी वारदात नहीं रही.
अखिलेश सरकार ने अभी छह माह ही पूरे किए कि मुस्लिम विरोधी सात घटनाएं घट गईं. एक साल पूरा होते-होते इन घटनाओं की संख्या दो दर्ज़न का आंकड़ा पार कर गई. प्रतापगढ़, फैज़ाबाद, मेरठ, ग़ाज़ियाबाद, इलाहाबाद, फर्रुख़ाबाद, संभल, मेरठ, मुज़फ्फरनगर, बहराइच आदि ज़िलों में फिरक़ापरस्ती ने बेख़ौफ़ होकर अपने झंडे गाड़े. प्रतापगढ़ में तो एक माह के भीतर एक ही इला़के में दो बार हिंसा भड़की. दूसरी बार तब, जब विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया ने वहां इतना भड़काऊ भाषण दिया कि उनके जाते ही नफरत का अंधड़ जाग उठा. सवाल उठता है कि उन्हें वहां जाने की इजाज़त ही क्यों मिली और उनके किए-धरे पर फौरन कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई? कोशीकलां की घटना के लिए जिलाधिकारी ने मुस्लिम विरोधी अफवाहों को ज़िम्मेदार ठहराया. आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रशासन को रत्ती भर आभास ही नहीं हुआ कि एक बड़ा बवंडर क़स्बे का सुख-चैन छीनने की तैयारी कर रहा है. देखते ही देखते हज़ारों की भीड़ क़स्बे के बाहर एकत्र हो गई, लेकिन उसे रोकने के लिए प्रशासन के पास पर्याप्त बल ही नहीं था! वैसे, भीड़ को समझाने के अलावा, दूसरा कोई चारा नहीं था, लेकिन यह कोशिश अंतत: नाकाम हो गई और भीड़ को क़स्बे में घुसने से रोका नहीं जा सका. सवाल यह है कि आख़िर पर्याप्त बल क्यों नहीं जुट सका? घंटों ख़ौफ़ और दहशत का आलम बना रहा, लेकिन रात 11.30 बजे के बाद ही कर्फ्यू क्यों लगा? जब अफवाहें पक रही थीं, उस समय एलआईयू क्या कर रही थी? समय रहते प्रशासन को इसकी ख़बर क्यों नहीं लग सकी? रैपिड एक्शन फोर्स मुस्लिम बस्तियों में क्यों तैनात की गई, बाक़ी इलाकों को क्यों खुला छोड़ दिया गया? एफआईआर में यह क्यों दर्ज़ नहीं हो सका कि बलबा किसके इशारे पर, किसकी अगुवाई में हुआ और हमले की पहल किधर से हुई?
मुलायम सिंह यादव की छवि फिरक़ापरस्ती के कट्टर विरोधी और मुसलमानों के पैरोकार की रही है, लेकिन यह छवि अब टूटने लगी है. अभी हाल में संसद में उन्होंने फरमाया कि अगर भाजपा अपना फिरक़ापरस्त नज़रिया छोड़ देती, तो सपा आज उसी के साथ खड़ी होती. कांग्रेस के साथ कभी नहीं जाती. गोया नज़रिया कोई कपड़ा हो, जिसे कभी भी पहना या उतारा जा सकता है. पूर्व समाजवादी एवं अब कांग्रेस नेता बेनी प्रसाद वर्मा की मुलायम विरोधी टिप्पणियों को लेकर भाजपा के बड़े नेता भी मुलायम के पक्ष में खड़े हो गए. इसके बाद अपनी पार्टी के एक कार्यक्रम में मुलायम सिंह यादव ने बिना मांगे यह सर्टिफिकेट भी जारी कर दिया कि लालकृष्ण आडवाणी कभी झूठ नहीं बोलते. मुलायम भूल गए कि यह वही आडवाणी हैं, जिन्होंने बाबरी मस्ज़िद की शहादत के लिए पूरे देश में फिरक़ापरस्ती के बीज बोए थे. भाजपा के प्रति यह मुलायमियत क्यों? शायद उन्हें लगता है कि लोकसभा चुनाव के नतीज़े सपा और भाजपा को एक पाले में आने की मजबूरी का सबब भी बन सकते हैं, तो यारी के हाथ अभी से क्यों न बढ़ा दिए जाएं. कोशीकलां की घटना को एक साल पूरे होने वाले हैं, लेकिन अभी तक उसके पीड़ितों को सरकारी मरहम नहीं लगाया जा सका. जब सब्र का बांध टूट गया, तो उन्हें अपनी आपबीती सुनाने और इंसाफ मांगने के लिए राजधानी लखनऊ आना पड़ा. यह जम्हूरी निजाम के लिए शर्म की बात होनी चाहिए. हालांकि, सियासत में आजकल अपनी ग़लती, लापरवाही या बेदिली पर चुल्लू भर पानी में डूब मरने का रिवाज़ बचा ही नहीं. फ़िलहाल तो समाजवाद और हिंदुत्व की युगलबंदी का रियाज़ चल रहा है.
शर्म उनको मगर नहीं आती….
बीते 31 मार्च को विधानसभा के सामने स्थित धरना स्थल पर जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने कोशीकलां कांड पर रिहाई मंच की रिपोर्ट जारी की थी. उसी दिन उनके नेतृत्व में मंच के प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री से मिलकर उनकी सरकार के कार्यकाल में अब तक हुई मुस्लिम विरोधी घटनाओं की सीबीआई जांच कराने और दहशतगर्दी के नाम पर विभिन्न जेलों में बंद बेगुनाह मुसलमानों की तत्काल रिहाई की मांग की थी. राजेंद्र सच्चर ने मुख्यमंत्री को चेताते हुए यह भी कहा कि उनके राज में मुसलमान ख़ुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा है. उन्होंने आरोप लगाया कि फिरक़ापरस्त ताक़तों के ख़िला़फ कार्रवाई करने में उनकी सरकार बहुत ढीली और बेमन दिखती है. इसके उन्होंने कई उदाहरण भी पेश किए. ज़ाहिर है कि मुख्यमंत्री के पास इन तमाम सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं था. लेकिन, हैरानी की बात यह है कि अगले दिन मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि राजेंद्र सच्चर ने सपा सरकार की तारीफ की. राजेंद्र सच्चर अपनी इंसाफ पसंदगी और साफगोई के लिए जाने जाते हैं. मुख्यमंत्री कार्यालय ने सफेद झूठ बोला और उनकी बेदाग़ छवि का बेजा इस्तेमाल किया. यह राज्य सरकार के दामन पर लगे मुस्लिम विरोधी धब्बों को ढंकने की एक फूहड़ कोशिश थी. अगर राजेंद्र सच्चर की बात को पलटा जा सकता है, तो आम आदमी की नाराज़गी को वाहवाही में बदलने में कितनी देर लगेगी! उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने का यह कितना आसान तरीक़ा है कि हर्र लगे न फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा…
...और इंसानियत तार-तार हो गई
फरज़ाना उस दिन का मंज़र याद कर सिहर उठती हैं. यह बताते हुए उनकी आंख भर आती है, गला रुंध जाता है कि उनके बेटे एवं दामाद को भीड़ ने पकड़ा, बेरहमी से पीटा, नंगा किया और आग में झोंक दिया. यह ख़ूनी खेल उनकी नज़रों के सामने हुआ. तबसे उनका परिवार डरा-सहमा हुआ है, जबकि गुनहगार बेख़ौ़ङ्ग घूम रहे हैं. सादिक़ ने बताया कि उस दिन क़स्बे में इंसानियत तार-तार हो गई…माहौल में धुआं था, तेज़ाब एवं पेट्रोल से भरी बोतलें थीं, लाठियां थीं, गोलियों की आवाज़ें थीं, चीख़-पुकार थी…और उसके पीछे जय श्रीराम का नारा था. जान भाई के मुताबिक़, इस वारदात का मक़सद नगर पंचायत के होने वाले चुनाव में बढ़त हासिल करना था. शाहिद कहते हैं कि हमलावरों ने बच्चों एवं बूढ़ों को भी नहीं बख्शा. लोग गिड़गिड़ा रहे थे, अपनी जान की भीख मांग रहे थे, लेकिन हमलावर तनिक नहीं पसीजे. उन्होंने कहा कि 25 मई को वृंदावन स्थित हनुमान अखाड़े में आरएसएस का तीन दिवसीय शिविर लगा था और साज़िश वहीं रची गई. इसकी उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिए कि उस शिविर में आख़िर किन मुद्दों पर चर्चा हुई थी? जो घायल हुए और जिनकी दुकानें स्वाहा हुईं, उन्हें केवल 30-30 हज़ार रुपये बतौर मुआवज़ा दिए गए. इतने में तो क़ायदे से इलाज भी नहीं हो सका, दुकानें दोबारा खड़ी करना तो दूर की बात है. इस्लाम ने बताया कि नई सब्ज़ी मंडी में कोई दो दर्ज़न दुकानें बर्बाद-तबाह की गईं. अब सुनते हैं कि ख़ाली पड़ी जगह के लिए बोली लगेगी. ज़ाहिर है, जिनका सब कुछ चला गया, वे बोली लगाने की हैसियत में नहीं होंगे. अपनी दुकानें खड़ी करने के लिए लोगों ने बैंक से उधार लिया था. अब बैंक वाले तक़ादे के लिए उन्हें परेशान करते हैं. पता नहीं, ज़िंदगी आगे कैसे चलेगी? अपनी दु:खभरी दास्तान बयां करते-करते उनकी आंख से आंसू छलक पड़े. मौलाना मोहम्मद ताहिर सिंगारवी दु:ख एवं ग़ुस्से के साथ कहते हैं कि एसडीएम और पीएसी की आंख के सामने बेगुनाह मुसलमानों और उनके ठिकानों पर कहर बरपा हुआ. ज़िले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने सा़ङ्ग कह दिया कि अब वह कुछ नहीं कर सकते. आईजी पहुंचे, तो उन्हें बताया गया कि हालात क़ाबू में हैं. रात पौने दस बजे मुलायम सिंह यादव से बात हो सकी. उनका कहना था कि चिंता की बात नहीं, मुसलमान आईजी के रहते अब आगे कोई फसाद नहीं हो सकता, लेकिन तब तक दो मस्ज़िदें, तमाम घर एवं दुकानें तोड़-फोड़ और आगजनी की शिकार हो चुकी थीं. सच तो यह है कि हाकिम की नीयत में खोट हो, तो मुसलमान आईजी भी भला क्या कर सकता है और क्यों करना चाहेगा? हु़कूमत का मुख्य सचिव भी तो मुसलमान है, लेकिन उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?