मौत की आंधी अभी थमी नहीं है बल्कि यह भयानक और विकराल हो गई है। सड़कों पर कोसों पैदल चलने वाले मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ सियासत अपने रास्ते पर चल रही है उसे इनसे कोई हमदर्दी नहीं इसने तो बड़ी बेदर्दी के साथ सहानुभूति और मानवता का गला घोंट दिया है चूंकि सियासतदारों को भली भांति मालूम है कि पीड़ितों के आंसुओं को पोछने के लिए बार बार हाथ नहीं उठना चाहिए बल्कि एक बार राहत का बागान दिखा देना काफी है। लाक डाउन के इस चौथे चरण में जहां आम लोगों की जिंदगी बेबस हो गई है। शराब की दुकानें भले बंद हो पर सियासत की दुकान तो खुली है। और तो और राजनेता अपनी राजनीतिक रोटियों को तंदूर में सेक कर मजे ले रहे है। सत्ता की कुर्सी पर बैठकर राहत की पूड़ी-साग बांटी जा रही है। घरों में कैद देश को ऐसा लग रहा है जैसे ही लाकडाउन खत्म होगा वैसे ही उनकी जिंदगी फिर से वैसी ही दौड़ पड़ेगी जैसे पहले थी पर यह हकीकत नहीं है। सत्ता भोगियों की अदूरदर्षिता ने जिंदगी इतनी मुहाल कर दी है कि रोने को कंधा भी नसीब नही होने वाला है क्योंकि जिस भी कंधे पर सिर रखेगे वही आंसुओं से भींगा हुआ होगा। सरकार ने कहा कि नौकरियां नहीं जायेंगी और कर्मचारियों को इस संकट काल का वेतन भी दिया जायेगा पर ऐसा नहीं हुआ सरकार के इस फरमान को देश के तमाम निजी सेक्टर ने ताक पर रख दिया। सरकार नो वर्क नो पे के आगे नतमस्तक है। वह यहां सख्त नहीं हो सकती। तो उसने आत्म निर्भर का शगूफा फेंक दिया। यह टिकटाक और पव-जी खेल की तरह इतना लोकप्रिय हो गया कि गूंगे की जुबान भी आत्म निर्भर हो गई और अंधे को भारत का भविप्य लहलहाती फसल की तरह नजर आने लगा है ऐसी रतौधी कि रात मे भी लोगों को सूरज नजर आ रहा है। गजब का माहौल है। यह शायद ही कभी देखने को मिलेगा। पर जो आज के साक्षी हैं वे इस बात को भली भांति समझ लें कि आने वाली सात पुश्तें आत्मनिर्भर की आहुति देती रहेंगीं और यह यज्ञ पूरा होगा इसमें संशय है। सुना है कोरोना का जंबो राहत पैक आया है लेकिन इसका स्वाद कैसा है या होगा यह तो पता नहीं। राहत की यह गाडी जिस पीडित , गरीब, मजदूर और सामान्य आम आदमी के दरवाजे खडी हो जाये वह अखबार वालों को जरूर सूचित कर दें क्योंकि यही तो हैं जिन्होंने इस देश के लोगों को कोरोना से बचाने में मदद की है ये कोरोना योद्धा लाकडाउन में इतने संक्रमित हुए है कि इन्हें स्वस्थ होने में चैदह दिन नहीं चैदह साल से भी अधिक समय लगेगा। पर किसी सरकार ने पत्रकारों की दुर्दशा पर एक शब्द भी नहीं बोला। दिल्ली दरबार भी चुप्पी साधे हुए है। कोरोना काल में राजनीति चाहे वह मध्यपदेश की हो या फिर दिल्ली की। कांग्रेस की हो या भाजपा या किसी अन्य दल की सबके अलग अलग तंदूर जल रहे हैं रोटियां पक रही हैं अपनी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की। मध्यप्रदेश को ही देख लें पिछले दो माह से प्रदेश किस राजनीतिक विवशता के बीच घिसट रहा है। सत्ता पर काबिज और सत्ता से बेदखल के बीच समुद्र मंथन से निकलने वाले हलाहल को पीने के लिए महाकाल नहीं आयेंगे यह जान ले, क्योंकि खुद की उनकी नगरी ही कोरोना संक्रमित है। इसलिए जहर पीने के लिए आत्मनिर्भर बने। इस शब्द से गुरेज नहीं पर इसे जिस समय प्रयोग में लाया गया है वह समय अनुकूल नहीं। यह तो ठीक वैसा ही हुआ जैसे बाढ में डूबने वाले से कह दिया जाए कि खुद ही अपनी मदद कर लो। अब भी बात समझ में न आई हो तो कुछ कर नहीं सकता। मुर्दे न कुछ कर सकते हैं न कुछ कह सकते | कदाचित चार कंधों पर सवार होकर पीछे हुजूम जरूर खडा कर सकते है।
लाक डाउन में खुली सियासत की दुकान
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