पाश ने कहा था-‘सबसे ख़तरनाक होता है/मुर्दा शांति से भर जाना/न होना तड़प का सब सहन कर जाना/घर से निकलना काम पर/और काम से लौटकर घर जाना/सबसे ख़तरनाक होता है/हमारे सपनों का मर जाना.’ जिसे पाश समाज के लिए ख़तरनाक कहते हैं, वह आज के सफल व्यक्ति के लिए सुरक्षित रूप से जीने का सबसे सुविधाजनक रास्ता है. सुविधाजनक है-सड़क के किनारे फेंकी गई मरनासन्न लड़की और घायल लड़के का अनदेखा कर आगे बढ़ जाना. सुविधाजनक है-कचरे के ढेर से पॉलिथीन बीनते बच्चे की ओर से आंखें फेर लेना. सुविधाजनक है-चाय की गिलास लाते-ले जाते छोटू को पढ़ने का उपदेश देना. भीख मांगते किशोर को काम करके पसीने की कमाई खाने का उपदेश देना. और इन सबके साथ ही देश की राजनीति के गिरते स्तर पर चिंता जताना. और इन सबसे भी ज़्यादा सुविधाजनक है- सुविधाशुल्क के ज़रिये अटका-लटका काम निकलवाना. रक्तालोक-स्नात पुरुष क्यों किसी-किसी मुक्तिबोध के ही सीने में जगता है? जब साहित्यिक बिरादरी सुविधाजनक तरी़के से मृत्यु दल के प्रोसेशन की शोभा बढ़ा रही हो. आज के युग में एक नये किस्म का नियतिवाद छाता जा रहा है- भूमंडलीकरण. यह तो होना ही है. खुला बाज़ार, उपभोक्तावाद यह तो भूमंडलीकरण के साथ आना ही है. हमारे जल, जंगल और ज़मीन, जो बेहतर क़ीमत लगाए, उनके हाथों बिकने ही हैं. एक लाख रुपये की कार के लिए खेत का मोह छोड़ना होगा. धान तो राशन की दुकान पर दो-तीन रुपये किलो भी मिल सकता है. 27 मंज़िल के घरवालों के लिए, ईंट-गारे-कवेलू की झोपड़ी वाले को अपना घर छोड़ना ही होगा. नहीं तो तोड़ने के लिए विकास के बुलडोज़र की मदद लेनी होगी. बांध बनेंगे, तभी बिजली आएगी. कितने बेशर्म लोग हैं, घर टूटने का मुआवज़ा लेकर भी घर नहीं छोड़ते. विकास रोका नहीं जा सकता. इसकी इतनी क़ीमत तो चुकानी ही है.
कुल मिलाकर एक आरोपित विकल्पहीनता की स्थिति में हम जी रहे हैं. कम से कम हमारे कथित उच्च मध्यम वर्ग के लिए तो यह नियतिवाद न केवल इच्छित अपरिहार्य है, बल्कि नए अवसरों को भी लेकर आया है-लाख दो लाख प्रति माह वेतन पाने का अवसर, वीक एंड में हिल स्टेशन और सालाना छुट्टियां सिंगापुर, दुबई और स्विटजरलैंड में मनाने का अवसर. नौकरियां और निष्ठाएं पैरहन की तरह बदलना आज मजबूरी नहीं, अपारच्युनिटी है. फिर भी वे अपारच्यूनिस्ट नहीं, आप्टिमिस्टिक हैं. धारा में बहते ऐसे सुविधापरक ज़माने में धारा का रुख मोड़ने की बात करना बेमानी ही नहीं, बेवकूफ़ी समझी जाती है, सभ्य शब्दों में कहें तो इसे ज़्यादा से ज़्यादा कवि का भोलापन कहा जा सकता है. अशोक कुमार पांडेय की एक कविता की कुछ पंक्तियां इसी सुविधाजनक चुप्पी का रहस्य खोलती हैं-
‘वे चुप हैं/कि उन्हें मालूम हैं आवाज़ के ख़तरे/वे चुप हैं कि उन्हें मालूम हैं चुप्पी के हासिल/ ……../चुप्पी ख़तरा हो तो हो/ ज़िंदा आदमी के लिए/तरक्कीराम के लिए तो मेहर है अल्लाह की.’ ऐसे समय में कविता करना, वह भी यथास्थिति से प्रतिरोध की, उसके परिवर्तन के लिए, अपने आप में एक असुविधाजनक स्थिति है. अशोक अपने कविता संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ में यही असुविधा अपने लिए चुनते हैं-‘एक असुविधा थी कविता हमारे हिस्से.’
पाश की बात को आगे बढ़ाते हुए अशोक कहते हैं- ‘बहुत बुरे होंगे वे दिन/जब रात की शक्ल होगी बिलकुल देह जैसी/और उम्मीद की चेकबुक जैसी/विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन/खुशी घर का कोई नया सामान/और समझौते मजबूरी नहीं, बन जाएंगे आदत/लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन/जब आने लगेंगे इन दिनों के सपने.’ (सबसे बुरे दिन) ये बुरे दिन तो आ चुके. कम से कम देश-दुनिया के एक सुविधाभोगी हिस्से के लिए. क्योंकि ‘बनिया की भाषा तो सहमति की भाषा है’ (धूमिल), मगर दुनिया सिर्फ़ इतनी ही तो नहीं. इस 99 प्रतिशत बाकी दुनिया के रोटी, कपड़ा, मकान, काम के सिर्फ़ सपने नहीं, अधिकार के संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध होना सिर्फ़ कविता का नहीं, लेखन का ही नहीं, इंसानियत का फर्ज़ है. जो बचेगा/कैसे रचेगा? (श्रीकांत वर्मा). राहत की बात है कि अशोक कुमार पांडेय की कविताएं इन सवालों से पूरी ताक़त से जूझती हैं और यही प्रतिबद्धता उनकी ताक़त है. आधिपत्य, दमन और शोषण सत्ता का स्वभाव है और हर प्रकार के दमन, शोषण का विरोध सच्ची कविता का. कविता का स्वाभाविक क्षेत्र सत्ता का प्रतिपक्ष है. सत्ता चाहे राजनीतिक हो, आर्थिक-सामाजिक वर्चस्व कायम करने वाली हो या फिर पितृ-सत्ता. धूमिल के शब्दों में-‘कविता/शब्दों की अदालत में/मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का/हलफनामा है.’ अशोक कुमार पांडेय की कविता भी यही भूमिका निभाती है- ‘हर उस जगह थे हमारे स्वप्न/जहां वर्जित हमारा प्रवेश.’
उनकी कविताओं में आज की शोषक यथास्थिति के ख़िलाफ़ आक्रोश है, मगर काग़ज़ी नहीं. इस उबलते आक्रोश में उनके हृदय की ऐंठन है, दिमाग की चटकती हुई नसें हैं और साथ ही एक गहरा दर्द है, सहानुभूति है और कुछ अपराधबोध भी; नहीं है तो- निराशा, ऊब और भावहीन तटस्थता. यह ‘लगभग अनामंत्रित’ परिवर्तन के लिए अनिच्छुक ही नहीं, उसे असंभव मानने वाले, यथास्थिति को स्वीकार करने वाले आज के स्वप्नहीन सुविधाजनक व्यावहारिक समय में राहत की बात है. बेहतर दुनिया के सपने को साकार करने के लिए प्राथमिक शर्त है- उस सपने में और उसकी अवश्यंभाविता में विश्वास रखना. यह विश्वास अशोक की कविताओं में नज़र आता है.‘समझौतों और समर्पण के इस अंधेरे समय में/जितना भी बचा है संघर्षों का उजाला/समेट कर भर लेना चाहता हूं अपनी कविता में/और दे जाना चाहता हूं तुम्हें उम्मीद की तरह जिसकी शक्ल/मुझे बिलकुल तुम्हारी आंखों-सी लगती है.’
‘लगभग अनामंत्रित’ में कई कविताएं इसी संवेदनशीलता की बानगी पेश करती हैं और बेशक वे इस संग्रह की सबसे अच्छी रचनाओं में से हैं. ‘एक सैनिक की मौत’ कविता में कवि युद्धोन्मादी देशभक्ति के विपरीत, एक मां का थका हुआ रुदन, पिता की अनदेखी उदासी, पत्नी की सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख को देखता है, जिसे कोई नहीं देखता. देखना ही नहीं चाहता. यह कविता यह सवाल भी खड़ा करती है कि क्यों यह गौरवपूर्ण शहादत एक बेरोज़गार युवा की ज़िंदगी की मजबूरी है? ‘देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी/और नौकरी ज़िंदगी की/बचपन में कुत्तों के डर से/रास्ते बदल लेने वाला मेरा दोस्त/आठ को मार कर मरा था/बारह दुश्मनों के बीच फंसे आदमी के पास/बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है?’ उस पर विडम्बना यह कि यह शहादत किसी युद्ध में नहीं, शांति की जय-जयकार करती युद्ध जैसी स्थिति में हुई थी.‘अजीब खेल है/कि वज़ीरों की दोस्ती/प्यादों की लाशों पर पनपती है/और जंग तो जंग /शांति भी लहू पीती है.’
‘जगन की अम्मा’ कविता एक बहुत ही आत्मीय याद के सहारे, उपभोक्तावादी भयावह संभावनाएं’ (या आशंकाएं) हमारे सामने रखती है. मैं चाहता हूं/इस तेज़ी से भागती समय की गाड़ी के लिए/कुछ मासूम से कस्बाई स्टेशन.’ ‘पता नहीं कितनी बची हो तुम मेरे भीतर’ कविता में कवि आधी दुनिया की संवेदना को वही होकर महसूस करना चाहता है.
कवि की कुछ प्यारी कविताएं अपनी बेटी (या सिर्फ़ बेटी) के नाम हैं. बेटी के जन्म पर दादी मां की उदासी का बगैर किसी नारेबाजी के निवारण करती यह कविता देखिए-‘मां दुखी है/कि मुझ पर रुक जाएगा खनदानी शजरा/………../उदास हैं दादी, चाची, बुआ, मौसी…../कहीं नहीं जिनका नाम उस शजरे में/ जैसे फस्लों का होता है नाम/पेड़ों का, मकानों का……/और धरती का कोई नाम नहीं होता……’
‘काम पर कांता’ घड़ी की सुइयों के साथ भागती कामकाजी गृहिणी की दिनचर्या को दर्ज करती है. ‘चाय, अब्दुल और मोबाइल’ भी मध्यमवर्गीय विसंगतियों को दर्शाती एक और कविता है. ‘अकीका’ कविता मात्र एक रस्म का अर्थ जानने के लिए डिक्शनरी देखना नहीं है. यह एक ही देश के दो समुदायों के बीच आ गए अपरिचय को रेखांकित करती है, जिसके बिना सांप्रदायिकता को गलतफहमियां फैला कर पैर टिकाने की जगह नहीं मिल पाती. इस संग्रह में कुछ दूसरी तरह की कविताएं भी हैं, जिन में कवि की वैचारिकता प्रबल है. एक लंबी कविता है, जो दर-असल आदिवासी कहे जाने वाले लोगों की उनके निवास-स्थान से ही नहीं, उनके जल, जंगल और ज़मीन से ही नहीं, जीने के अपने अधिकार से बेदख़ल किए जाने और विकास के नाटक का नेपथ्य उद्घाटित करती सत्यकथा है-‘जब वे कहते विकास/हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते.’
अशोक न सिर्फ सोचते हैं, बल्कि सोचे हुए को करना भी अपना कर्तव्य मानते हैं. अच्छे आदमी/हमेशा सोचते हैं अच्छी बातें/यहां तक कि/दुनिया को बदल देने के बारे में/सिर्फ़ सोचते हैं.’ ‘जो नहीं किया हमने’ सत्तर के दशक के कामरेड के जीवन की विडम्बना को दर्शाती है, ‘जहां दुनिया बदलने से पहले ही बदल गया सब कुछ’ और ‘अब तो बस कविता ही रह गई है अंतिम अवलंब’. अशोक जो ख़ुद एक कवि हैं, कविता को कर्म का विकल्प नहीं मानते-‘जानते तो आप भी हैं कि कुछ करना/विकल्प नहीं होता सब कुछ करने का/और न ही हमेशा कुछ न करने से बेहतर.’ लेकिन फिर भी कविता उनके लिए लड़ाई का एक आवश्यक अस्त्र है लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खामोश.’ उनकी नज़र बहुत साफ़ है क्योंकि उन्हें यह पता है कि उन्हें किसके विरुद्ध लड़ना है और किसके लिए. हिरोशिमा की परमाणविक त्रासदी पर रची कविता ‘आग’, ‘तुम्हें कैसे याद करूं भगत सिंह’ भी महत्वपूर्ण कविताएं हैं.
असल में अवतार सिंह पाश, धूमिल, कुमार विकल को समर्पित यह कविता-संग्रह साहित्य-जगत में ‘अनामंत्रित’ नहीं है, यह गुंजाइश कवि ने ख़ुद ‘लगभग’ विशेषण लगा कर छोड़ दी है.
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