भारत में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली है. वर्ष 2016 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में 799 विश्वविद्यालय और 39,7171 महाविद्यालय मौजूद थे. यह अपने आप में एक बहुत बड़ी संख्या है. पिछले 50 वर्षों से कुछ अधिक समय में भारत ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हैरतअंगेज़ तरक्की की है. 1950 और 2014 के बीच भारत में विश्वविद्यालयों की संख्या में 34 गुना वृद्धि हुई, जबकि 1950 और 2013 के बीच महाविद्यालयों की संख्या में 74 गुना वृद्धि हुई.
उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या में विस्फोटक वृद्धि और वहां प्रदान की जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता में कोई मेल नहीं है. दरअसल, संख्या और गुणवत्ता के बीच का यह अंतर भारत के विश्व गुरु बनने की राह की सबसे गहरी खाई है. यदि भारत को विश्व गुरु बनना है, तो उसे विश्व स्तरीय उच्च शिक्षा प्रणाली विकसित करनी ही होगी.
दो साल पहले नरेंद्र मोदी सरकार ने उच्च शिक्षा में गुणवत्ता लाने की दिशा में कुछ प्रयास किए थे. इन प्रयासों में सरकार द्वारा यूजीसी गाइडलाइन्स 2016 की घोषणा करना शामिल था. इन गाइडलाइन्स में सरकारी शैक्षणिक संस्थानों को विश्वस्तरीय संस्थानों के रूप में रूपान्तरित करने की बात की गई थी. इस पहल के तहत 2018 में छह शैक्षणिक संस्थानों को चिन्हित किया गया था.
अब इन्हें विश्व स्तरीय संस्थानों की जगह प्रतिष्ठा के संस्थान (इंस्टिट्यूट ऑफ़ एमीनेन्स) कहा जाएगा. इन संस्थानों की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए इन्हें वाजिब कार्य-स्वतंत्रता दी जाएगी. हालांकि सरकार का यह क़दम सराहनीय है, लेकिन इससे भारतीय उच्च शिक्षा में व्याप्त समस्याओं को दूर करने में बहुत कम मदद मिलेगी. ऐसा इसलिए है कि इस पहल का जोर गलत दिशा में है.
दरअसल, विश्वविद्यालयों की एक बहुत ही सूक्ष्म संख्या को प्रतिष्ठित संस्थानों का दर्जा दिया गया है. इस पहल से उच्च शिक्षण संस्थानों की विश्व रैंकिंग में इन विश्वविद्यालयों की रैंकिंग थोड़ी बढ़ जाएगी, लेकिन अधिकांश संस्थानों को इसे कोई लाभ नहीं मिलेगा. इसका मतलब हरगिज़ यह नहीं है कि भारत में इन उच्च शिक्षण संस्थानों की आवश्यकता नहीं है.
विश्व स्तरीय उच्च शिक्षा प्रणाली संस्थान-केंद्रित होने के बजाए छात्र या उपभोक्ता-केंद्रित होती है. ये ऐसी प्रमाणित संस्थाएं होती हैं, जिनके पास संसाधन होते हैं. ये संस्थाएं सुनिश्चित करती हैं कि छात्रों/उपभोक्ताओं को ज्ञान/कौशल मिले और उनकी क्षमताओं को निखारा जाए, ताकि वे अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त कर समाज में अपना योगदान दे सकें. भारत की मौजूदा शिक्षा प्रणाली इसके ठीक विपरीत है. यहां सारा ध्यान चुनिंदा संस्थानों और व्यक्तियों के समूह पर है, जबकि यह ध्यान पूरे शिक्षा तंत्र पर होनी चाहिए.
बदलाव के उपाय
भारतीय शिक्षा प्रणाली को विश्वस्तरीय बनाने के लिए कई कदम उठाए जाने की आवश्यकता है. उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
वर्तमान में केंद्र और राज्य सरकारें उच्च शिक्षा के लिए सीमित फंडिंग प्रदान करती हैं. नतीजतन, 70 प्रतिशत से अधिक उच्च शिक्षण संस्थान निजी क्षेत्र द्वारा संचालित होते हैं. ये संस्थान अच्छी तरह विनियमित नहीं हैं और इनकी गुणवत्ता में भी काफी असमानता पाई जाती है. दरअसल, सरकारी फंडिंग का उपयोग मौजूदा सरकारी संस्थानों को सहायता प्रदान करने और जिन क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के सीमित साधन हैं, वहां नए संस्थानों की स्थापना करने में करना चाहिए.
पूरे भारत में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का वाह्य ढांचा अपर्याप्त है, उनमें उपकरणों की कमी है और सक्षम शिक्षकों का अभाव है. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्रत्येक उच्च शैक्षिक संस्थान का बुनियादी ढांचा बेहतर हो और वहां सीखने और व्यक्तित्व के विकास के लिए बेहतर वातावरण मौजूद हो.
भारत में उच्च शिक्षा में दाखिले के लिए योग्य आबादी में से लगभग 15 प्रतिशत आबादी ही दाखिला ले पाती है. भारत को एक विकसित देश बनने के लिए दाखिले के प्रतिशत में इजाफा करना होगा. साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आबादी के अलग-अलग समूहों, यानि महिलाओं, कमजोर वर्ग और ग्रामीण इलाकों को उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले में बराबर का प्रतिनिधित्व मिले.
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को भंग कर भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) बनाने की घोषणा के बाद शैक्षणिक समुदाय के भीतर और बाहर काफी बहस हुई है. अब यह संस्था यूजीसी रहे या एचईसीआई बन जाए या कुछ और, असल सवाल यह होना चाहिए कि क्या भारतीय शिक्षा प्रणाली और शिक्षण संस्थाओं की निगरानी के लिए सही आंकड़े एकत्रित किए जा रहे हैं?
उच्च शिक्षा प्रणाली को संभावित नियोक्ताओं और संभावित कर्मचारियों की जरूरतों को आवश्यक रूप से पूरा करना होगा. वर्तमान में ऐसा नहीं हो रहा है. दरअसल, इस उच्च शैक्षणिक प्रणाली को देश में कुशल श्रमिकों की आपूर्ति का पहला ठीकाना होना चाहिए.
भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली को विश्वस्तरीय बनाने के लिए कई अन्य उपाय भी ज़रूरी हैं, जैसे शैक्षिक संस्थानों पर राजनेताओं के प्रभाव को नियंत्रित करना. कुल मिलाकर कहा जाए, तो इस सिलसिले में केवल और केवल एक मानसिकता होनी चाहिए और वह मानसिकता यह होनी चाहिए कि देश की उच्च शिक्षा प्रणाली को पुनर्गठित करना है और इसका आधुनिकीकरण ऐसे करना है, जिससे देश लाभान्वित हो सके.