राज्य कांग्रेस को फिर से खड़ा करने के लिए आलाकमान ने बागडोर युवा अशोक चौधरी के हाथों सौंप तो दी है, लेकिन चुनौती इस बार भी वही है कि पार्टी को पटना और दिल्ली की राजनीति से कैसे बचाया जाए?
बिहार कांग्रेस मुख्यालय सदाकत आश्रम में एक बार फिर सरगर्मियां तेज हो गई हैं. जब भी कोई नया प्रदेश अध्यक्ष बनता है, तो अमूमन ऐसा ही होता है. अनिल शर्मा और महबूब अली कैसर के समय भी ऐसा ही हुआ था. पार्टी को ज़िंदा करने के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं होती हैं, कार्यक्रम बनते हैं और टीम भी बनती है, पर कुछ समय बाद सब कुछ पहले जैसा ही हो जाता है और ऐसे में पार्टी अध्यक्ष सदाकत आश्रम से बयान जारी करने के अलावा कुछ और करते हुए नज़र नहीं आते. हां, अनिल शर्मा के समय पार्टी ज़रूर लोगों का भरोसा जीतती हुई नज़र आने लगी थी, लेकिन जिन दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में उन्हें हटना पड़ा, उससे पार्टी एक बार फिर बेपटरी हो गई और जनता के भरोसे से दूर जाकर बैठ गई. उनके बाद महबूब अली कैसर ने एक तरह से पार्टी को बैठा ही दिया. कैसर का दुर्भाग्य ही कहिए कि उन्हें न तो पटना के नेताओं का सहयोग मिला और न ही दिल्ली के. यही वजह रही कि 2010 के चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन बहुत ख़राब रहा और कैसर ख़ुद भी चुनाव हार गए. उन्होंने नैतिकता के आधार पर अपना इस्ती़फा सौंप दिया, पर उन्हें अगली व्यवस्था तक अपने पद पर बने रहने के लिए कहा गया था.
अब युवा अशोक चौधरी को कांग्रेस को ज़िंदा करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है. बहुत ही तड़क-भड़क के साथ उन्होंने अपना पद संभाला और कहा कि कांग्रेस के सभी नेता मिलकर पार्टी में जान फूंकें. चौधरी लगभग हर बड़े नेता के घर गए और उनका आशीर्वाद लिया. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती है, बल्कि यहीं से शुरू होती है. चौधरी के पद संभालते ही उनसे जुड़ी एक कहानी अखबारों की सुर्खियां बनने लगीं. कहा जाने लगा कि कांग्रेस आलाकमान ने एक दागी नेता को कमान सौंप दी है. ग़ौरतलब है कि राजो सिंह हत्याकांड में अशोक चौधरी का भी नाम आया था, लेकिन बाद में उनका नाम हटा दिया गया और उसमें केवल शंभु यादव और अनिल महतो का नाम रह गया. राजो सिंह हत्याकांड में कथित संलिप्तता के कारण ही अशोक चौधरी 2005 में बरबीघा से चुनाव नहीं लड़ पाए थे. उस हत्याकांड से भले ही अशोक चौधरी का नाम हट गया, पर राजनीतिक रूप से उन्हें कई मौक़ों पर उसका खामियाजा भुगतना पड़ा.
अशोक चौधरी 2009 में कांग्रेस के टिकट पर जमुई से लोकसभा के उम्मीदवार थे, जबकि राजो सिंह की पुत्रवधु सुनीला देवी नवादा से. शेखपुरा विधानसभा क्षेत्र जमुई लोकसभा में आता है, तो नवादा बरबीघा के अंतर्गत. इस चुनाव में राजो सिंह परिवार से तल्ख संबंधों के चलते अशोक चौधरी को शेखपुरा एवं सिकंदरा में मुंह की खानी पड़ी थी. कहा जाता है कि कांग्रेसियों ने वहां उनका साथ नहीं दिया. अब एक बार फिर अशोक चौधरी जब कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं, तो उस पुराने अध्याय को कुछ नेता खोलने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि चौधरी पूरे जोश में हैं और उनका दावा है कि पार्टी की सूरत बहुत जल्द बदलने वाली है. कांग्रेस के सभी नेता पूरा सहयोग दे रहे हैं और जनता के बीच भी कांग्रेस के लिए आवाज़ उठ रही है. बताया जा रहा है कि राहुल गांधी ने चौधरी को संगठन फिर से खड़ा करने के लिए तीन महीने का समय दिया है. चौधरी इसी कवायद में लगे हैं. सभी जिलाध्यक्षों एवं विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार रह चुके नेताओं के साथ वह बैठक कर चुके हैं. बैठक में उन्हें बहुत सारे ज़रूरी फीडबैक मिले हैं.
एक और कोशिश यह भी हो रही है कि जो नेता किसी न किसी कारण उपेक्षित हो गए हैं, उन्हें पार्टी की मुख्य धारा में लाया जाए. अशोक चौधरी भले ही कह रहे हों कि उन्हें सभी नेताओं का साथ मिल रहा है, पर सच्चाई तो यह है कि कई नेताओं की नाराज़गी अब भी बरक़रार है. अनिल शर्मा तो चौधरी के पदग्रहण समारोह में नहीं गए. एक दूसरी समस्या चुनावी तालमेल को लेकर आ रही है. राहुल गांधी ने भले ही संगठन मज़बूत करने का फरमान सुना दिया है, पर ज़मीनी सच्चाई यह है कि तालमेल को लेकर स्पष्ट तस्वीर न होने के कारण कार्यकर्ता मन से जुट नहीं रहे हैं. अभी तो यह भी सा़फ नहीं है कि पार्टी तालमेल करेगी या अकेले लड़ेगी? अगर तालमेल होगा, तो जदयू के साथ होगा या फिर राजद के? नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को लगता है कि आंख मूंदकर मेहनत करने से कोई फायदा नहीं है. मेहनत भी करें और सीट सहयोगी पार्टी के खाते में चली जाए, तो फिर हाथ मलने के अलावा, कोई रास्ता ही नहीं बचेगा. इससे बेहतर है कि किसी ऐसी पार्टी में हाथ आजमाया जाए, जहां टिकट मिलने की गारंटी हो. यही भ्रम की स्थिति कांग्रेस की राह में रोड़ा बनी हुई है.
अशोक चौधरी कह रहे हैं कि उचित समय पर पार्टी अपनी रणनीति का ख़ुलासा कर देगी, लेकिन कई बार धोखा खा चुके नेता एवं कार्यकर्ता इंतज़ार के मूड में नहीं हैं. इसलिए चौधरी को संगठन मज़बूत करने के लिए सबसे पहले पार्टी लाइन स्पष्ट करनी होगी, क्योंकि एक बार लोगों ने कांग्रेस पर भरोसा करना शुरू किया था, पर पटना और दिल्ली की राजनीति में पार्टी ऐसी फंसी कि सब कुछ चौपट हो गया. इसलिए चौधरी को हर क़दम फूंक-फूंककर उठाना होगा, ताकि वह कांग्रेसजनों के साथ-साथ राज्य की आम जनता का भी भरोसा जीत सकें.
बिहार- कांग्रेस को ज़िंदा करने की एक ओर कोशिश
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