एक वक्त था जब भारतीय हॉकी टीम की तूती पूरे विश्व में बोलती थी. दुनिया की हर टीम भारतीय हॉकी के आगे सिर झुकाने को मजबूर हो जाती थी. लेकिन बाद के दौर में भारतीय हॉकी का रुतबा नीचे गिर गया. उसका सुनहरा अतीत कहीं अंधकार में खो गया. कभी फेडरेशन की उठापटक तो कभी कोच का रोना भारतीय हॉकी पर भारी पड़ रहा था. लेकिन मौजूदा दौर में भारतीय हॉकी सम्भलती हुई दिख रही है. हाल में भारतीय हॉकी ने कुछ नाम कमाया है और रियो के खेल के लिए कुछ उम्मीदें भी बंधी हैं. इसका ताजा उदाहरण है चैम्पियन्स ट्रॉफी हॉकी में भारत का उम्दा प्रदर्शन. भारतीय हॉकी टीम ने पूरे टूर्नामेंट में शानदार हॉकी खेली लेकिन विश्व चैम्पियन ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ विवादों भरे खिताबी मुकाबले में पेनाल्टी शूटआउट में 1-3 से पराजित होने के बाद उसे रजत पदक से सन्तोष करना पड़ा.

यह प्रदर्शन ऐतिहासिक है क्योंकि भारत ने इससे पहले केवल 1982 में कांस्य पदक जीता था. इस तरह से छह टीमों की इस रोचक जंग में ऑस्ट्रेलिया अव्वल रहा, जबकि भारतीय टीम को दूसरा स्थान मिला और जर्मनी को तीसरे स्थान से सन्तोष करना पड़ा. इस बार की चैम्पियन्स ट्रॉफी लन्दन शहर में हो रही थी. यह वही शहर था जहां भारतीय हॉकी गर्त में चली गई थी. दरअसल लन्दन ओलम्पिक में भारतीय हॉकी ने बेहद शर्मनाक प्रदर्शन किया था और अन्तिम पायदान पर रही थी. लेकिन अब भारतीय टीम में आक्रामकता है, जीत की भूख है और जज्बा भी कूट-कूट कर भरा हुआ है.

इतिहास के पन्नों को पलटें तो इतना तो साफ हो गया था कि हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचन्द के दौर की हॉकी अब शीर्ष पर नहीं है. टीम में भी आए दिन बदलाव हुआ करते हैं. एक ओर यूरोपीय खिलाड़ी विश्व हॉकी पटल पर छाए थे, वहीं भारतीय हॉकी खिलाड़ी अपनी खराब फिटनेस के चलते लगातार गुमनामी की दुनिया में जी रहे थे. आलम तो यह था हॉकी के राष्ट्रीय खेल होने पर भी सवाल उठने लगे थे. 70 और 80 के दशक में भारतीय हॉकी का डंका बजता था, लेकिन 90 के दशक के बाद से भारतीय हॉकी लगातार पिछड़ रही थी. हार के कारणों को जानने से पहले हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हॉकी को कभी देश में प्रोत्साहन नहीं मिला, जितना क्रिकेट जैसे खेल को मिला. सुविधा के मामले में भी भारतीय हॉकी फिसड्‌डी रही है. कोचिंग का स्तर भी निम्नस्तर का था.

खराब प्रदर्शन के बाद आए दिन कोच पर गाज गिरती थी, लेकिन बीते कुछ सालों में भारतीय हॉकी ने विदेशी कोच का सहारा लिया. नतीजतन विदेशी कोच भारतीय खिलाड़ियों को मांजने में लग गए. कोच को लेकर हॉकी संघ के पदाधिकारी कई बार आमने-सामने आ चुके हैं. यह वह दौर था जब कोच के रूप में जोन्स ब्रासा ने कमान सम्भाली थी. इसी को आगे माइकल नोब्स ने बढ़ाया. माइकल नोब्स ने भारतीय खिलाड़ियों की प्रतिभा को तराशने का काम शुरू कर दिया था. इसी दौरान फिर भारतीय कोचिंग स्टाफ में काफी बदलाव किया गया. मौजूदा समय में ओल्टमंस ने भारतीय हॉकी को फिर से पटरी पर लाने का काम किया. कोच के रूप में वह भारतीय हॉकी टीम को रियो ओलम्पिक के लिए तैयार कर रहे हैं.

बात अगर चैम्पियन्स ट्रॉफी की हो तो भारत ने ब्रिटेन को 2-1 से धूल चटाई. इससे पहले जर्मनी के खिलाफ भी जोरदार प्रदर्शन करते हुए 3-3 से बराबरी का खेल खेला. हालांकि इस मुकाबले में भारतीय टीम एक समय 3-1 से आगे चल रही थी. इसके बाद दक्षिण कोरिया को 2-1 से पीटा. लीग मैचों में कंगारुओं से भारतीय टीम हारी लेकिन फाइनल में भारत ने कंगारुओं के नाक में दम कर दिया. फाइनल से पहले लोग कह रहे थे कि ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ भारत आसानी से घुटने टेक देगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कंगारुओं को खिताब के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी. आलम तो यह रहा कि निर्धारित समय में खेल 0-0 से बराबर रहा. भारतीय टीम ने दूसरे हाफ में कंगारुओं के पसीने छुड़ा दिए. तीसरे और चौथे क्वार्टर में भी यही हाल रहा. ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी गोल के लिए तरस रहे थे.

मैच का फैसला पेनाल्टी शूटआउट से हुआ. बेहद रोचक मुकाबले में तब एक विवाद सामने आया जब ऑस्ट्रेलिया के बीले को शॉट मारने का दोबारा मौका दिया गया. दरअसल भारतीय गोलकीपर श्रीजेश ने आस्ट्रेलिया के दूसरे प्रयास को रोक लिया था और गेंद उसके पैरों के बीच फंसी, इसके बाद कंगारुओं ने रेफरल मांगा. ऑस्ट्रेलिया ने इसका फायदा उठाते हुए मैच पर पकड़ मजबूत कर ली. इसके बाद विश्व की शीर्ष टीम ऑस्ट्रेलिया ने 3-1 से जीत कर स्वर्ण पर कब्जा कर लिया. कुल मिलाकर भारतीय टीम इस टूर्नामेंट में काफी अच्छा खेली. ओलम्पिक से पहले इस रजत से अब और अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद बढ़

गई है. टीम के खिलाड़ियों को काफी जगह सुधार करने की जरूरत है, खासकर फिटनेस पर कप्तान सरदारा और बीरेंद्र लकड़ा को अभी मेहनत करनी होगी. डिफेन्स और मिड फील्ड को मजबूत भी करना होगा. ओलम्पिक में बेहद कम दिन रह गए हैं. इसे ध्यान में रखकर भारतीय हॉकी हर टूर्नामेंट में पसीना बहा रही है. चैम्पियन्स ट्रॉफी में उसके धारदार प्रदर्शन से इतना तो साफ हो गया है कि ओलम्पिक में इस बार कुछ अलग परिणाम देखने को मिल सकते हैं.

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