मौजूदा समय में देश की राजनीतिक दशा बेहद ख़राब है. चालू खाते पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है. मुझे याद है, जब 1991 में चालू खाता घाटा लगभग 3 प्रतिशत के क़रीब था और देश पूरी तरह से वित्तीय संकट से घिर गया था. अब यह 4.8 प्रतिशत है. बेशक हमारे पास विदेशी मुद्रा विनिमय कोष है. इसलिए अभी 1991 जैसा संकट नहीं आया है, लेकिन स्थितियां विपरीत भी हो सकती हैं, इसलिए ऐसे माहौल में एक परिपक्व गवर्नेंस की ज़रूरत है.
लंबे वक्त के बाद आख़िरकार कांग्रेस पार्टी ने तेलंगाना मामले पर कोई निर्णय लिया है, लेकिन अभी भी इसमें कई पेचीदगियां हैं. मसलन, हैदराबाद को 10 वर्षों के लिए राजधानी घोषित करने का फैसला बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता. चंडीगढ़ पंजाब और हरियाणा दोनों ही राज्यों की सीमा पर स्थित है, जबकि हैदराबाद गठित होने वाले राज्य तेलंगाना के बिल्कुल केंद्र में होगा और शेष आंध्र प्रदेश राज्य के लिए तक़रीबन दूसरी सीमा पर, जो कि बेहद असुविधाजनक होगा. हालांकि यह तय किया गया है कि हैदराबाद को केवल 10 वर्ष के लिए ही राजधानी बनाया जाएगा, लेकिन बेहतर तो यह होता कि स्थाई व्यवस्था करते हुए कुरनूल या किसी भी अन्य शहर को, जिसे मुफीद समझा जाता, राजधानी घोषित करते.
वास्तव में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन वाली सरकार ने तीन राज्यों झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ का गठन किया था, उसी दौर में सरकार को तेलंगाना और विदर्भ का भी गठन कर देना चाहिए था, जबकि तेलंगाना और विदर्भ दोनों के अलग राज्य के गठन की मांग बहुत पुरानी है. यह मांग तभी से उठ रही है, जब राज्यों के पुनर्गठन की शुरुआत हुई थी, लेकिन एनडीए सरकार ने इसे अनदेखा किया.
अब कई वर्षों के अंतराल के बाद मौजूदा सरकार तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा देने के निर्णय पर पहुंची है, लेकिन इसके पीछे भी एक गुणा-भाग है. पार्टी ने अलग राज्य का गठन चुनावी लाभ लेने के मद्देनज़र किया है. हालांकि यह बेहद अदूरदर्शी सोच है. कोई भी दल किसी राज्य के गठन को आधार बना कर चुनाव नहीं जीत सकता. हां, संभव है कि किसी एक चुनाव में आपको इसका फ़ायदा फौरी तौर पर मिल जाए, लेकिन किसी राज्य के गठन को केवल चुनावी फ़ायदे के तौर पर देखा जाए, तो यह बेहद अफसोसजनक है. जब आपकी भूमिका किसी देश के भाग्यविधाता के तौर पर है, तो आप केवल एक चुनाव के बारे में कैसे सोच सकते हैं?
10-20 सीटों के इधर-उधर होने से क्या फर्क पड़ता है? राज्य के गठन को चुनावी फ़ायदे के तौर पर न लेकर, इस आधार पर लेना चाहिए कि आंध्र प्रदेश की जनता के लिए क्या बेहतर होगा. अलगाव के बाद दोनों ही राज्य बेहतरी के रास्ते पर हों, यह सोच रखनी चाहिए. यह बात सही है कि छोटे राज्यों में बेहतर विकास हुआ है, इसलिए छोटे राज्यों के गठन का पक्ष मजबूत है, लेकिन फिर राज्यों का गठन इस तरह से नहीं हो सकता कि कोई भानुमती का पिटारा खोल दिया गया और उसमें से छोटे-छोटे राज्य निकाले जा रहे हैं. गोवा का उदाहरण लीजिए, पहली बार या यूं कहें कि लंबे अर्से के बाद वहां एक स्थायी सरकार का गठन हो पाया है. अन्यथा मतदाता हैं 12 लाख और सीटें हैं 40. इसलिए किसी भी विधायक को सीट जीतने के लिए केवल कुछ हज़ार मतों की ज़रूरत होती है. इस तरह से यह बेहद असंतुष्ट करने वाली व्यवस्था है. तेलंगाना के गठन की उम्मीद के बाद अब विदर्भ के गठन की मांग भी और ज़ोर पकड़ेगी. उधर, उध्य प्रदेश में मायावती अपने पिछले कार्यकाल में पहले ही इस आशय का प्रस्ताव विधानसभा में पारित कर चुकी हैं. जाहिर-सी बात है कि इस मांग पर प्राथमिकता के साथ गौर किया जाएगा, क्योंकि उत्तर प्रदेश इतना बड़ा राज्य है कि उसे एक शासन के एक केंद्र से संचालित करना कठिन है. इतने ब़डे राज्य में ज़िलों और निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या ज्यादा है. उत्तर प्रदेश के विभाजन की मांग तर्कसंगत भी है. पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थितियां एकदम अलग हैं, जबकि राज्य के मध्यभाग की ओर चलें, तो वहां बुंदेलखंड है, उसकी भी स्थितियां बिल्कुल अलग हैं. यहां तक कि इस भाग का कुछ हिस्सा दूसरे राज्य, मध्य प्रदेश में भी है. भारतीय जनता पार्टी का एक पक्ष यहां भी एक अलग राज्य की मांग कर रहा है. हालांकि ऐसा होना नहीं चाहिए, नहीं तो वास्तविक रूप में भानुमती का पिटारा खुल जाएगा और हर कोई एक नये राज्य की मांग करने लगेगा. होना तो यह चाहिए कि इस मसले को लेकर एक न्यायिक आयोग का गठन हो, जो कि इसे अपने संज्ञान में ले और अपने विवेक के आधार पर उत्तर प्रदेश से अलग होकर किसी राज्य और विदर्भ के गठन का आधार तैयार करे.
अगला विषय, जिस पर चर्चा करना ज़रूरी है, वह यह कि संसद के इस सत्र में कांग्रेस की मंशा क्या है, यह तो नहीं बताया जा सकता, लेकिन यह तो तय है कि कांग्रेस इसी सत्र में खाद्य सुरक्षा बिल पास कराना चाहेगी, लेकिन यह भी है कि कई सारे ऐसे विधेयक हैं, जो पहले ही लोकसभा से पास हो चुके हैं और उनके केवल राज्यसभा से पास होने की औपचारिकता बाक़ी है. संभव है कि यह सब केवल कुछ ही घंटों में हो जाए. कांग्रेस को तय करना चाहिए कि जिन विधेयकों पर किसी तरह का विवाद नहीं है, उन्हें पास होने दें और जिन विधेयकों पर विवाद है, जैसे खाद्य सुरक्षा विधेयक, उन पर बहस होनी चाहिए. उसमें संशोधन होने चाहिए और बहुमत से जो पारित हो, उसे स्वीकार करना चाहिए. सही मायने में यही लोकतंत्र है. भारतीय जनता पार्टी की रणनीति यह है कि जिन विधेयकों के पारित होने की संभावना कम है, उन पर बहस नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि संसद के काम में बाधा आएगी और सदन स्थगित हो जाएगा. हालांकि यह एक स्वस्थ विपक्ष की भूमिका नहीं है. लोगों की प्रतिक्रियाओं पर गौर कीजिए. भ्रष्टाचार और घोटालों के चलते देश की जनता कांग्रेस से नाराज़ है. लोगों में ऐसी ही ग़ुस्सा भारतीय जनता पार्टी के सांप्रदायिक चेहरे से भी है. उनके नेता अयोध्या जाते हैं और कहते हैं कि हम मंदिर यहीं बनाएंगे. अब, जब यह मामला कोर्ट में है, तो बिना कोर्ट का निर्णय आए कोई भी उस जगह पर मंदिर नहीं बना सकता, लेकिन राजनीतिक पार्टियां मुगालते में हैं कि वे इन मुद्दों को उछालकर मतदाताओं को अपने पक्ष में कर लेंगी. पब्लिक सब समझती है, इसलिए इन मुद्दों को उछालकर पार्टियों को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है. मुझे लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में अब केवल 7-8 महीने ही बचे हैं, इसलिए देश के दोनों राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे साथ आएं और कुछ मुद्दों का सर्वसम्मति से हल खोजें, जो कि राजनीतिक न हों. मौजूदा समय में देश की राजनीतिक दशा बेहद ख़राब है. चालू खाते पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है. मुझे याद है जब 1991 में चालू खाता घाटा लगभग 3 प्रतिशत के क़रीब था और देश पूरी तरह से वित्तीय संकट से घिर गया था. अब यह 4.8 प्रतिशत है. बेशक हमारे पास विदेशी मुद्रा विनिमय कोष है. इसलिए अभी 1991 जैसा संकट नहीं आया है, लेकिन स्थितियां तेजी से विपरीत भी हो सकती हैं. इसलिए ऐसे माहौल में एक परिपक्व गवर्नेंस की ज़रूरत है. हां, यह ज़रूर है कि इस गवर्नेंस का मतलब केवल उन संदर्भों में न हो, जैसा गुजरात के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे हालात में देश के हित के लिए कुछ गंभीर निर्णय लेने की ज़रूरत है.
ऐसे दौर में देश के प्रधानमंत्री को आगे आना चाहिए, क्योंकि अभी भी उनके प्रति लोगों की विश्वसनीयता है. बेशक उनकी पार्टी भ्रष्टाचार और घोटालों में आकंठ डूबी हुई है, लेकिन अभी भी लोगों में यह भरोसा है कि इस सरकार में वही एक व्यक्ति हैं, जो जितना आर्थिक मामलों के जानकार हैं, उतना ही राजनीतिक रूप से शिष्ट भी. समय की मांग है कि प्रधानमंत्री अब हस्तक्षेप करें. हो सकता है कि उनकी पार्टी को नागवार गुजरे, लेकिन यह देश के लिए सोचने का वक्त है, पार्टी के लिए नहीं. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व बेहतर नहीं होता, तो सशस्त्र सेनाएं हतोत्साहित होंगी. इस देश में लोकतांत्रिक बदलाव होते रहे हैं. अलग-अलग सरकारों में कई बार बेहतर और बदतर स्थितियां देखने को मिली हैं, लेकिन आज जैसा हो रहा है, भगवान न करे कि ऐसा अगले चुनाव के बाद भी हो. अगर आप सशस्त्र सेनाओं को हतोत्साहित करेंगे, तो ऐसी परेशानी में पड़ जाएंगे, जिसकी भरपाई कर पाना मुश्किल होगा.