राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भारतीय जनता पार्टी को ये सलाह देना चहिए कि वो देश के लोगों से ये कहे कि अगर देश के लोग अयोध्या में राम मंदिर बनाना चाहते हैं तो वो भारतीय जनता पार्टी को वोट दें. उसे ये भी सलाह देनी चाहिए कि स़िर्फ अयोध्या में ही नहीं, अगर मथुरा और काशी में मस्जिदों को हटा कर सारी जगह कृष्ण जन्मभूमि और विश्वनाथ मंदिर को देनी है तो लोग भारतीय जनता पार्टी को वोट दें. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को ये भी भाजपा के द्वारा घोषित करवाना चाहिए कि धारा 370 कॉमन सिविल कोड अगर देश के लोग चाहते हैं तो, भारतीय जनता पार्टी को वोट दें और आख़िर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को ये फैसला लेना चाहिए कि वो भारतीय जनता पार्टी के द्वारा देश के लोगों से कहे कि अगर दोनों कश्मीर का मसला हल करना है और उन्हें भारत में मिलाने की स्पष्ट घोषणा करनी है तो लोग भारतीय जनता पार्टी को वोट दें.
मुझे लगता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को इससे भी ब़ढकर फैसला लेना चाहिए और वो फैसला है कि वो भारतीय जनता पार्टी के द्वारा देश के लोगों से कहे कि अगर इस देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करना है तो वो भारतीय जनता पार्टी को वोट दें. और इसके लिए भारतीय जनता पार्टी को बिना किसी से समझौता किए हुए आरएसएस के नीतियों के ऊपर चलकर लोगों से वोट देने की अपील करनी चाहिए. ये इसलिए आवश्यक है कि 60 साल बीत गए, संघ के और भारतीय जनता पार्टी के बहुत सारे नेता दृश्य से हट गए. नए नेता आ रहे हैं और जो नए लोग आ रहे हैं, वो लोग संघ के बुनियादी विचारधारा में भरोसा नहीं करते. अब ख़ुद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग भी अपनी बुनियादी विचारधारा में भरोसा नहीं करते. उनकी शाखाएं कम हो रही हैं, लोग शाखाओं में उस उत्साह के साथ जाते नहीं हैं और अब संघ के निष्ठावान स्वयंसेवकों के ल़डके भी मॉल कल्चर और डिस्को कल्चर को पसंद करने लगे हैं. इसीलिए अगर इस बार स्पष्ट घोषणा नहीं होती है, तो संघ के बचे खुचे भारतीय जनता पार्टी के जीवित, लेकिन निष्ठावान पर बेअसर नेता इसी तरह दुनिया से विदा हो जाएंगे. अगर भाजपा इन नीतियों पर घोषणा कर चुनाव ल़डती है तो उनका यह देश के ऊपर एक तरह से उपकार होगा.
यह देश आज़ादी के बाद से सांप्रदायिकता की आग में जल रहा है. हमेशा लगता है कि न जाने कब दंगा हो जाए, न जाने कब असुरक्षा का माहौल बन जाए. इसी वातावरण में विदेशी ताक़तें अपना खेल दिखा जाती हैं. हमारे प़डोसी देश से आए पैसे और हथियार हमारे देश को परेशान कर जाते हैं. हथियार और पैसे स़िर्फ प़डोसी देश से नहीं आते, हथियार और पैसे उन देशों से भी आते हैं जो हमारे प़डोसी नहीं है, लेकिन जिनका स्वार्थ हमारे देश की अस्थिरता में है.
इस बात का फैसला होना आवश्यक है कि देश के लोग हिंदू के नाम पर सांप्रदायिक नीतियों में भरोसा करते हैं या नहीं. अगर देश इन घोषणाओं के समर्थन में ख़डा होता है और लोकसभा में तीन सौ के आस पास भारतीय जनता पार्टी के सदस्य चुनकर पहुंचते हैं तो मान लेना चाहिए कि देश के लोग मुसलमानों समेत सभी अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना चाहते हैं और देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के पक्ष में हैं. पर अगर ऐसा नहीं होता है और इन घोषणाओं के बावजूद भारतीय जनता पार्टी की सीटें 80 से 140 के बीच में आती हैं तो फिर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को ये वायदा करना चाहिए कि वे अपनी उन नीतियों छो़ड देंगे, जिन पर देश से उन्होंने राय मांगी थी और देश ने उनका समर्थन नहीं किया.
दरअसल, इस देश को अगर बर्बादी से बचाना है, देश को अगर धर्म और जाति के भूल भूलैया से निकालकर, सर्वांगिण विकास की सीधी रोड पर चलाना है तो एक बार इसका फैसला होना ज़रूरी है. आज़ादी के बाद से ही हम डर के माहौल में रह रहे हैं. मुसलमान एक खौफ की जिंदगी जी रहे हैं.
मुसलमानों का कहना है कि उन्हें ना रोजगार में हिस्सा मिल रहा है, न शिक्षा में हिस्सा मिल रहा है, न व्यापार में हिस्सा मिल रहा है और न देश के राजनीति में हिस्सा मिल रहा है. जब इतनी चीजों में हिस्सा नहीं मिल रहा है तो देश की अर्थनीति में तो हिस्सा लेने का सवाल ही नहीं उठता. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि आज़ादी के बाद से मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर हो गई है. सच्चर कमेटी की सिफारिश या उनकी रिपोर्ट हिंदूस्तान की सारी सरकारों के मुंह पर तमाचा है जो आज़ादी के बाद से देश को चला रही हैं. इसीलिए अगर एक बार देश ये फैसला कर ले कि उसे दक्षिणपंथी नीतियों पर जाना है या नहीं या सांप्रदायिक रास्ते पर जाना है या नहीं, तभी विकास का रास्ता खुल पाएगा.
मुसलमान आज कांग्रेस के साथ हैं. भाजपा के कुछ नेता हैं जो मुसलमानों को अपने साथ लेने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ब़डे पैमाने पर यह संभव दिखाई नहीं देता. तब सवाल यह है कि क्या कांग्रेस के साथ जाना मुसलमानों के लिए हितकर है. यह अवश्य हितकर साबित हो सकता है, अगर उन्हें लगता है कि 60 साल में उनकी ज़िंदगी में बहुत ब़डा बदलाव आया है, अगर उन्हें लगता है कि 60 साल में उन्हें न्याय मिला है, अगर उन्हें लगता है कि 60 साल में उनके बच्चों को शिक्षा मिली है और वो सरकारी नौकरियों में गए हैं और वे देश के फैसलों में शिरकत कर रहे हैं तो उन्हें कांग्रेस को अवश्य वोट देना चाहिए, अगर उनके नाम पर जीते कांगे्रस के नुमाइंदों ने कोई हक़ की ल़डाई ल़डी हो तो.
तब फिर आख़िर मुसलमान करें तो क्या करें. मैंने कई मुसलमानों से ये सवाल पुछा तो उन्होंने कहा कि हम तो अपने ऊपर हुए अत्याचार की बात भी डर-डर कर कहते हैं, क्योंकि ऐसा न हो कि अत्याचार करने वाला अगली बार हमीं को टारगेट कर ले. सरकार हमारी हिफाजत नहीं कर सकती, सरकार हमें सुरक्षा नहीं दे सकती और जो छोटे राजनीतिक दल हैं, वो सिर्फ जुबानी अंताकक्षरी कर सकते हैं. लेकिन हमें (मुसलमानों) कुछ दे नहीं सकते हैं, क्योंकि साठ साल में हमें कुछ नहीं दिया, हमें स़िर्फ बेवकुफ बनाया है.
अगर ये सच है तो फिर जहां एक तरफ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को अपनी बातें स्पष्ट तौर पर रखनी चाहिए. वहीं दूसरी तरफ़ मुसलमानों को अपने इनडिपेनडेंट ताक़त का एहसास कर इसके लिए इकट्ठा होना चाहिए. और इकट्ठा होकर उन्हें कहना चाहिए कि हम बिना किसी पॉलिटिकल पार्टी के समर्थन लिए या दिए बिना स्वतंत्र रूप से अपना उम्मीदवार ख़डा करेंगे और वो उम्मीदवार उस क्षेत्र के गैर मुसलमानों के समर्थन से लोकसभा चुनाव जीत जाएगा. चुनाव में कुछ भी गणित हो, लेकिन चुनाव में लोगों के वोट सबसे महत्वपूर्ण होते हैं. 2014 तक चुनावों में सुधार होने नहीं जा रहा है, इसलिए यह आवश्यक है कि लोकसभा के चुनाव में मुसलमान अपनी संगठित ताक़त दिखाएं. देश की उन ताक़तों को यह भरोसा दिलाएं जो उनके हक़ों के लिए ल़डेगा उसके लिए वे हमेशा ल़डते रहेंगे.
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