महान देश की महान संसद अति महान उदाहरण आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ रही है. संसद को न अपनी गरिमा का ख्याल है, न वह लोगों की ज़िंदगी में आ रही मुश्किलों से संवेदना रखती है और न ही वह उन सवालों को उठाती है, जिन सवालों का रिश्ता इस देश के ग़रीब से है. संसद में यह भी मुद्दा नहीं उठता कि मुकेश अंबानी को जेड प्लस की सुरक्षा क्यों दी गई? गृहमंत्री को यह कहते हुए दिखाया गया कि इस सुरक्षा के बदले अंबानी पैसा देंगे, तो क्या गृहमंत्री यह कहना चाह रहे हैं कि इस देश का हर पैसे वाला कुछ लाख रुपये देकर भारत सरकार की जेड प्लस सुरक्षा हासिल कर सकता है? अफसोस! संसद में इसके ऊपर सवाल तक नहीं उठा, किसी नियम के तहत उल्लेख तक नहीं हुआ. इसका मतलब यही हुआ कि यह संसद मुकेश अंबानी के आगे सिर झुका रही है.
सुप्रीम कोर्ट ने अभी दो महीने पहले अपना ऑब्जर्वेशन दिया है कि कोयला घोटाला सरकार या मंत्रालय की गड़बड़ी की वजह से ही हुआ है. वही मंत्रालय, जिसके मंत्री खुद मनमोहन सिंह उन दिनों थे. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ख़ामोश रहे, लेकिन इस दौरान एक कार्रवाई ज़रूर शुरू हो गई और वह थी सीबीआई की रिपोर्ट बदलवाने की कोशिश.
एक वक्त था, जब कांग्रेस के रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक ट्रेन दुर्घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी ली और उन्होंने रेल मंत्री पद से इस्ती़फा दे दिया. जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें इस्ती़फा देने से नहीं रोका, बल्कि उन्होंने उनके इस क़दम की तारी़फ की. इंदिरा गांधी तक और राजीव गांधी भी राज्यसभा के सदस्य रहकर प्रधानमंत्री बने रह सकते थे, लेकिन इंदिरा गांधी ने अपने पिता द्वारा डाली गई लोकतांत्रिक परंपरा का पालन किया और प्रधानमंत्री बनते समय शपथ उन्होंने ज़रूर ले ली, लेकिन जल्दी से जल्दी उन्होंने राज्यसभा से त्यागपत्र दिया और लोकसभा की सदस्य बनीं. उसके बाद वह कभी भी राज्यसभा की सदस्य रहते प्रधानमंत्री नहीं बनीं. राजीव गांधी ने चुनाव लड़ा और वह लोकसभा के सदस्य बने. भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का यह पहला उदाहरण है कि जब इस देश के प्रधानमंत्री अपना पूरा वक्त राज्यसभा का सदस्य रहते हुए बिता गए. उसके पहले उन्होंने जब-जब लोकसभा का चुनाव लड़ा, वह इस चुनाव में हारे. प्रधानमंत्री रहते हुए जो व्यक्ति लोकसभा का चुनाव लड़ने की हिम्मत न करे और वह 120 करोड़ लोगों के नेता होने का दावा करे, तो शायद यह इस देश के लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना है. और इस सवाल को किसी भी दल ने मुद्दा नहीं बनाया, क्योंकि यदि यह मुद्दा बनता, तो फिर यह सवाल भी खड़ा होता कि क्या सचमुच प्रधानमंत्री नैतिक रूप से यह कह सकते हैं कि उनके असम के घर का पता, सचमुच उनके घर का पता है? क्या उस घर में वह कभी एक महीना भी रहे? क्या उनकी पत्नी कभी वहां रहीं? क्या उनकी बेटियां या बहनें वहां कभी रहीं? नहीं रहीं. हर आदमी जानता है कि जो नैतिक परंपराएं पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री एवं इंदिरा गांधी ने डालीं, उन परंपराओं की धज्जियां सदन के भीतर प्रधानमंत्री के रूप में बैठने वाले व्यक्तिने उड़ा दीं.
प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने जो भी फैसला लिया, वह इस देश के ग़रीब के खिलाफ और अमीर के पक्ष में गया, क्योंकि प्रधानमंत्री ने बेहिचक अमेरिकन इकोनॉमिक एजेंडा इस देश में निर्ममता से लागू किया, लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि संसद इसके ऊपर बौखलाई नहीं और एक भी सांसद ने इस निरंकुशता के खिलाफ इस्ती़फा देने की धमकी तक नहीं दी. प्रधानमंत्री ने यह कहा कि उनके ऊपर अगर कभी भी छींटा आएगा, तो वह न केवल प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे, बल्कि सार्वजनिक जीवन से संन्यास भी ले लेंगे. अब देखिए, हिंदुस्तान का सबसे बड़ा घोटाला कोल ब्लॉक के आवंटन में हुआ, जिसे सबसे पहले चौथी दुनिया ने प्रमुखता से छापा और हमने सरकारी काग़ज़ों के खुलासे के साथ यह लिखा कि यह घोटाला 26 लाख करोड़ का है, लेकिन सीएजी ने सरकारी दबाव में इसे 1 लाख, 76 हज़ार करोड़ का घोटाला कहा. आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री ने इस पर कुछ भी नहीं कहा. ख़ामोश बैठे रहे. हालांकि जिस समय घोटाला हुआ, उस समय प्रधानमंत्री देश के कोयला मंत्री थे. सारे ़फैसले उनके दस्तखत के साथ लागू हुए और ये घोटाले प्रधानमंत्री के दस्तखत से ही हुए.
सुप्रीम कोर्ट ने अभी दो महीने पहले अपना ऑब्जर्वेशन दिया है कि कोयला घोटाला सरकार या मंत्रालय की गड़बड़ी की वजह से ही हुआ है. वही मंत्रालय, जिसके मंत्री खुद मनमोहन सिंह उन दिनों थे. सुप्रीम कोर्ट के इस ़फैसले के बाद भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ख़ामोश रहे, लेकिन इस दौरान एक कार्रवाई ज़रूर शुरू हो गई और वह थी सीबीआई की रिपोर्ट बदलवाने की कोशिश. सीबीआई ने कोशिश की और क़ानून मंत्री ने उस पर यह दबाव डाला कि वह अपनी रिपोर्ट में से प्रधानमंत्री का नाम ही हटा दे. और सीबीआई ने ऐसा ही किया. अब सीबीआई दो रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में रखने जा रही है और कह यह रही है कि सुप्रीम कोर्ट को फैसला करना है. दूसरी तऱफ कोयला मंत्रालय भी बार-बार यह कह रहा है कि इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट को फैसला करना है, इसके ऊपर संसद में क्यों बहस हो. इसका मतलब प्रधानमंत्री सुप्रीम कोर्ट के ऑब्जर्वेशन या सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को भी इस लायक नहीं मानते कि वह अपने किए हुए वादे के ऊपर कुछ क़दम उठाएं. आखिर में संसद की स्थायी समिति ने कोयला घोटाले के ऊपर अपनी रिपोर्ट पेश कर दी और उसमें सा़फ-सा़फ कहा कि कोयला मंत्रालय में गड़ब़डियां हुई हैं और कोयला मंत्रालय उन दिनों प्रधानमंत्री के अधीन था. ये चारों उदाहरण यह बताते हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री न तो संसद की चिंता करते हैं, न भारतीय प्रधानमंत्री सुप्रीम कोर्ट को कोई भाव देते हैं और न ही संसद की स्टैंडिंग कमेटी को टिप्पणी के लायक मानते हैं.
संसद के भीतर कोयला घोटाले के सवाल पर भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री का इस्ती़फा मांगा और इससे इसीलिए संसद की कार्रवाई बाधित हुई, लेकिन यहां एक सवाल यह उठता है कि ऐसी स्थिति मे भारतीय जनता पार्टी के सारे सांसद लोकसभा से सामूहिक इस्तीफा क्यों नहीं दे देते? जिस संसद में वे न कोई आवाज़ उठाते हैं, जिस संसद में न कोई चर्चा करवा सकते हैं और जहां उनकी किसी भी मांग को गंभीरता से नहीं लिया जाता, उस संसद में भारतीय जनता पार्टी के लोग आखिर बैठे क्यों हैं? यह सवाल केवल भारतीय जनता पार्टी का नहीं है, बल्कि यह सवाल तृणमूल कांग्रेस, जनता दल यू, शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल के ऊपर पर भी है. दरअसल, ये सारे लोग इस संसद को सचमुच ख़ुद गंभीरता से नहीं लेते. इसीलिए इस संसद में जब भी आम जनता से जुड़े सवालों पर बहस होती है, उस समय ये सारे लोग सदन में होते ही नहीं हैं. लोकसभा टीवी की सारी कार्रवाई इसकी गवाह है.
किसी भी विषय के ऊपर चर्चा हो रही हो, लेकिन सदन के सभी सदस्यों को पूरे सदन में बैठे देखना लोगों की हसरत ही रह गई है. केवल शून्यकाल एक ऐसा वक्त होता है, जब सांसद सदन में रहते हैं, अन्यथा सदन में लोगों को देखना, खासकर 12 बजे-1 बजे के बाद, नामुमकिन है. इस समय सदन खाली ही दिखाई देता है. हमारे जैसे लोग संसद से बहुत अपेक्षा रखते हैं, लेकिन उस अपेक्षा का कोई मतलब ही नहीं रह जाता, क्योंकि न प्रधानमंत्री, न नेता विरोधी दल, न सरकार का समर्थन कर रही पार्टियां और न ही विपक्ष का साथ दे रहे राजनीतिक दल इस संसद को गंभीर बनाना चाहते हैं और इसीलिए इस संसद की तऱफ से अच्छे उदाहरण पेश ही नहीं होने देना चाहते. अब यह सोचना कि इस संसद में कोई नाथ पै होगा, कोई मधु लिमये होगा, या कोई जॉर्ज फर्नांडीज, भूपेश गुप्ता, राज नारायण या किशन पटनायक होगा, दिन में सपने देखने जैसा ही है. चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी तो बहुत दूर की चीज हैं. ये सारे लोग अब सपने हो गए, क्योंकि ऐसे ही लोगों ने परंपराएं कायम की थीं. खुद कांग्रेस में पंडित जवाहर लाल नेहरू, गोविंद वल्लभ पंत, लाल बहादुर शास्त्री और स्वयं इंदिरा गांधी जैसे लोगों ने परंपराएं डाली थीं, लेकिन अब इस संसद में कोई भी सांसद परंपराओं की चिंता ही नहीं करता, इसीलिए यह संसद हिंदुस्तान के लोगों के लिए इरिलिवेंट हो गई है.
संसद की अवसरवादिता का सबसे बड़ा उदाहरण अगस्त 2011 में हुई विशेष बैठक से देखा जा सकता है. अन्ना हज़ारे के आमरण अनशन से बने देश के दबाव की वजह से संसद बैठी और उसमें सारे लोग उपस्थित थे. खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे. सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मुलायम सिंह, मायावती, आडवाणी जी, सुषमा स्वराज के अलावा, वामपंथी दलों के नेता भी थे. सभी ने एक स्वर में प्रस्ताव पास किया था कि सशक्त जन लोकपाल लाएंगे और इस प्रस्ताव की प्रति के साथ प्रधानमंत्री ने अपना खत अन्ना हज़ारे के पास भेजा था. अन्ना हज़ारे ने संसद पर भरोसा करके अपना अनशन तोड़ा, लेकिन दो साल बीत गए, संसद को अपने उस प्रस्ताव की याद ही नहीं है. आज भी संसद उस प्रस्ताव को भूली हुई है या कहिए कि बेशर्मी के साथ अपने उस प्रस्ताव को याद ही नहीं करना चाहती. किसी भी सांसद ने, जितने नेताओं के नाम मैंने लिए, इनमें से किसी ने भी संसद में यह बात नहीं कही कि हमने ही वह प्रस्ताव पास किया था, लेकिन हम उस प्रस्ताव की इज्जत नहीं रख रहे हैं. सवाल यह उठता है कि क्या यह संसद या संसद नामक संस्था और देश के संविधान का अपमान नहीं है?
हमारे लिखने से यह संसद बदलने वाली नहीं है. इस संसद को बदलने और एक ज़िम्मेदार संसद बनाने का हथियार इस देश की जनता के पास है. अगर जनता अपने इस हथियार का इस्तेमाल नहीं करती है, तो वह अपने ऊपर एक निरंकुश संसद को लादेगी, जिससे उसका भविष्य सौ प्रतिशत निराशाजनक होने वाला है. आशा करनी चाहिए कि आने वाले चुनाव में पिछले 65 सालों में पहली बार इस देश की जनता जागेगी और तब वह एक ऐसी संसद का निर्माण करेगी, जो उसकी तकलीफों को दूर करने के लिए काम करे, न कि तकलीफों को बढ़ाने का काम करे.