समूचे देश की नज़रें कांग्रेस पर हैं. लेकिन ख़ुद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व पार्टी संगठन की लगातार बिगड़ती हालत के प्रति कतई चिंतित नहीं है. निष्ठावान-ज़मीनी कार्यकर्ताओं, अनुभवी नेताओं की कोई पूछ नहीं है. पार्टी संगठन की बागडोर उनके हाथों में आ गई है, जो उम्र, समझ और अनुभव में कच्चे हैं. ऐसे में, सवाल यह उठता है कि जिन पर पार्टी आंख मूंदकर भरोसा कर रही है, क्या वे उसके लिए वाकई तारणहार साबित होंगे या फिर भस्मासुर?  
Hindi-115हमें पता नहीं कि राहुल गांधी को यह सब मालूम है या नहीं. अगर थोड़ा सहानुभूतिपूर्वक सोचें, तो यह माना जाना चाहिए कि उन्हें यह सब पता होगा ही. लेकिन जिस तरह की खबरें पूरी कांग्रेस से आ रही हैं, उनसे लगता है कि राहुल गांधी को बहुत कुछ पता नहीं. उनके बारे में कांग्रेस का कार्यकर्ता क्या सोचता है, कांग्रेस के नेता क्या सोचते हैं, प्रदेशों के नेता क्या सोचते हैं और खासकर, दिल्ली में बैठे लोग क्या सोचते हैं, इसका एहसास राहुल गांधी को बिल्कुल नहीं है. और सच्चाई यही है कि उन्हें कुछ भी पता नहीं.
श्रीमती सोनिया गांधी इन दिनों बीमार हैं और उन्हें अपने चेकअप के लिए देश से बाहर जाना पड़ता है. इस समय भी वे देश से बाहर ही हैं. शायद इसीलिए कुछ महीनों पहले उन्होंने पार्टी की कमान अपने एकमात्र पुत्र राहुल गांधी को सौंप दी. उस समय उन्होंने यह आशा व्यक्त की थी कि राहुल गांधी पार्टी के लोगों की इच्छानुसार अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करेंगे और उन सबकी सलाह से ही पार्टी चलाएंगे, लेकिन उन्होंने कार्यभार संभालने के बाद कोई भी ऐसा काम नहीं किया, जिससे कि यह पता चल सके कि कांग्रेस में किसी नई सोच या नई कार्यप्रणाली का प्रारंभ हुआ है, बल्कि हुआ इसके बिल्कुल विपरीत.

राहुल गांधी की यह सोच और रणनीति यही बताती है कि कांग्रेस के भीतर अभी एक और उथल-पुथल का दौर आने वाला है, क्योंकि कांग्रेस के सहयोगी, खासकर शरद पवार इस सारी स्थिति को देखते हुए चुनाव से पहले अपना कोई नया ठिकाना तलाशेंगे, ऐसा लगता है. वह ठिकाना कहां होगा, फिलहाल यह नहीं पता.

दरअसल, हुआ यह कि राहुल गांधी से एक कांग्रेस कार्यकर्ता मिलने गया और उसने उनसे कहा, मैं 25 वर्षों से कांग्रेस की सेवा कर रहा हूं. मेरे पिता जी, पिता जी के पिता जी यानी हम पीढ़ियों से कांग्रेस के साथ हैं. राहुल गांधी ने उसकी तरफ देखा और कहा, इसीलिए 25 सालों से कांग्रेस की इतनी खराब हालत है. राहुल गांधी का यह वाक्य वहां खड़े कांग्रेस के निष्ठावान सदस्यों के दिल में तीर की तरह चुभ गया. वैसे, राहुल गांधी ने यह वाक्य अनजाने में नहीं कहा, क्योंकि उनका सचमुच यही मानना है कि पिछले 25 वर्षों में कांग्रेस की हालत उन तथाकथित निष्ठावान कांग्रेसियों की वजह से ही ख़राब हुई है, जो स़िर्फ चापलूसी करते हैं और जनता के बीच कोई काम नहीं करते.
राहुल गांधी का यह मानना है और जिसके लिए वे लगातार काम कर रहे हैं कि आज के कार्यकर्ता या नेता कांग्रेस को 2014 के चुनाव में नहीं जिता सकते. सच तो यह है कि अगर कांग्रेस को जिताना है, तो उन्हें पूर्णतया नए लोग चाहिए, जो विचारों के प्रति निष्ठावान हों या न हों. उन्होंने जवाहर लाल नेहरू की कोई किताब पढ़ी हो या न पढ़ी हो, उन्हें इंदिरा गांधी की राजनीतिक शैली के बारे में मालूम हो या नहीं, लेकिन वे कुछ टेक्नोलॉजी ज़रूर जानते हों, कुछ विश्लेषण कर सकते हों और उनका वामपंथ या दक्षिण पंथ से कोई लेना-देना न हो. घोषित रूप में ऐसे लोग तलाशे जाएं और उनके सहारे कांग्रेस को दोबारा खड़ा किया जाए. दरअसल, राहुल गांधी की सोच इस सत्य पर आधारित है कि कांग्रेस में वोट केवल उनके परिवार के नाम पर मिलते हैं. उनकी दादी, उनके पिता, उनकी मां, वे ख़ुद वोट दिलवाते हैं और लोग उनके नाम पर वोट लेते हैं और कांग्रेस को बर्बाद करते हैं. अत: उन्हें ऐसे निष्ठावान लोग ही चाहिए, जो इन पुराने निष्ठावान कांग्रेसियों की जगह ले सकें.
इसके लिए उन्होंने तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल के कुछ नौजवानों की टीमें बनाई हैं. ये टीमें विभिन्न प्रदेशों में जा रही हैं और वहां के लोगों से बातचीत करके ऐसे पांच नामों की फेहरिस्त हर कांसीट्यूंशी में बना रही हैं, जिन्हें राहुल गांधी टिकट देते समय भलीभांति परख सकें. इन पांच नामों में पुराने कांग्रेसियों के नाम कहीं नहीं हैं. मजे की बात यह है कि ये केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र के तथाकथित राहुल के राजदूत स्थानीय भाषा नहीं समझते. ये वहां किससे बात करते हैं, किससे सत्यापन करते हैं और कैसे नाम चुनते हैं, यह अभी तक रहस्य है, लेकिन इसका डर पुराने कांग्रेसियों के मन में बख़ूबी बैठ गया है.
उत्तर भारत में कांग्रेस की हालत बहुत खस्ता है. कांग्रेस संगठन छिन्न-भिन्न पड़ा हुआ है और राहुल गांधी के यहां से यह संदेश हर जगह गया है कि वे प्रदेशों के संगठन में फेरबदल करेंगे. नतीजे के तौर पर न उत्तर प्रदेश में काम हो रहा है और न बिहार, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में. सबसे पहले उत्तर प्रदेश को लें. उत्तर प्रदेश में जितना अपमान प्रमोद तिवारी और संजय सिंह को झेलना पड़ रहा है, उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये दोनों शायद जल्दी ही अपने लिए नया घर तलाश लेंगे. उत्तर प्रदेश के सांसदों, विधायकों या कांग्रेस अध्यक्षों को राहुल गांधी की तऱफ से कोई निर्देश नहीं है और न ही उन्हें संगठन में लगाने के लिए कभी राहुल गांधी ने बुलाकर उनसे बात की. उत्तर प्रदेश में चुनाव कैसे लड़ा जाना है, इसके बारे में भी राहुल गांधी ने कभी कांग्रेस के उन लोगों से बातचीत नहीं की, जो अभी जीते हुए हैं. ऐसे में सारे लोग घबराए हुए हैं. उन्हें लगता है कि शायद उनको अगली बार टिकट नहीं मिलेगा. बिहार में संगठन लगभग मर गया है और इस बात की भी कोई गुंजाइश नहीं है कि संगठन में कोई कोरामिन का इंजेक्शन लगा सके. बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस की जगह धीरे-धीरे लेती जा रही हैं. उड़ीसा में कांग्रेस लगभग शून्य है और जिन श्रीकांत जैना का इस्तेमाल कांग्रेस को करना चाहिए, उनका इस्तेमाल वह नहीं कर रही है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस इस बार चुनाव फिर हारने वाली है. अगर कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश में ज़िम्मेदारी दी या उन्हें प्रदेश का नेता घोषित किया, तो शायद उससे कांग्रेस को कुछ फायदा हो जाए. वैसे भी दिखाई नहीं देता कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस मध्य प्रदेश में कोई ज़िम्मेदारी देगी. राजस्थान की दीवारों पर लिखा है कि कांग्रेस चुनाव हार रही है. अशोक गहलोत पूरी तरह नॉन स्टार्टर चीफ मिनिस्टर साबित हुए. उन्होंने न ही कोई राजनीतिक कौशल दिखाया और न ही प्रदेश में कोई कमाल किया. हां, पिछले साल भर में उन्होंने राजस्थान की स्वास्थ्य सेवाओं को कुछ ठीक करने की कोशिश ज़रूर की, जिसका फायदा उन्हें शायद मिल जाए. लेकिन देखने पर फिलहाल यही लगता है कि अशोक गहलोत के मुक़ाबले भारतीय जनता पार्टी बढ़त लिए हुए है.
कर्नाटक में कांग्रेस की स्थिति अच्छी होगी, क्योंकि येदियुरप्पा न तो खाएंगे और न ही भारतीय जनता पार्टी को खाने देंगे. दरअसल, वे भाजपा का खेल बिगाड़ने में पूरी तरह लगे हुए हैं. आखिर में हो सकता है कि येदियुरप्पा और कांग्रेस मिलकर या फिर येदियुरप्पा, कांग्रेस और देवेगौड़ा मिलकर कोई सरकार बना लें. आंध्र प्रदेश का खेल सबसे मजेदार है. जगनमोहन रेड्डी से बात की जा सकती थी, उन्हें लाया जा सकता था और उनकी नाराज़गी भी दूर की जा सकती थी, लेकिन दिल्ली में बैठे कांग्रेस के रणनीतिकार उस समय जगनमोहन रेड्डी का अपमान करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे और इसीलिए आज आंध्र में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा खतरा जगनमोहन रेड्डी हैं. हालांकि, जगनमोहन रेड्डी पर भ्रष्टाचार के बहुत आरोप हैं. सीबीआई ने उन्हें जेल में डाल रखा है. इसके जवाब में कांग्रेस के लोग कहते हैं कि जगनमोहन रेड्डी को बाहर होना चाहिए था और जिनके ख़िलाफ़ आय से ज़्यादा संपत्ति के मुकदमे चल रहे हैं, वे बाहर घूम रहे हैं.
कांग्रेस के रणनीतिकार अलग परेशान हैं. राहुल गांधी किसी से बात नहीं करते. श्रीमती सोनिया गांधी के जमाने में जो लोग लगातार उनसे मिलते थे और राजनीतिक दिशा का संकेत लेते थे, वे सारे इस समय परेशान हैं. जनार्दन द्विवेदी, मोतीलाल वोरा, अहमद पटेल जैसे लोग राहुल गांधी के सामने असहाय नज़र आते हैं. अहमद पटेल सोनिया गांधी के पास जाते थे, सोनिया गांधी उन्हें राजनीतिक दिशा दे देती थीं और फिर अहमद पटेल उसी हिसाब से कांग्रेस की दुकान सजाते थे, उठा-पटक और उखाड़-पछाड़ करते थे, लेकिन अब ये सारे लोग ख़ामोश हैं. दिग्विजय सिंह का तो राहुल गांधी के साथियों द्वारा अपमान करने का कोई मौका छोड़ा ही नहीं जाता. हक़ीक़त में दिग्विजय सिंह कांग्रेस में अपनी इज्जत बचाए बैठे हैं. राजनीतिक तौर पर अपने को जिंदा रखने के लिए समय-समय पर वेजीटेरियन या नॉन वेजीटेरियन वक्तव्य ज़रूर दे देते हैं.
राहुल गांधी कांग्रेस को समुदायों के हिसाब से नहीं देखते. इसीलिए शायद मुस्लिम समाज से जुड़े विषयों पर उनके सलाहकार शकील अहमद हैं, जो बिहार से आते हैं. शकील अहमद पहले गृह राज्यमंत्री थे, खुद भी चुनाव हार गए हैं और बिहार में कांग्रेस भी चुनाव हार गई है, वे राहुल गांधी के मुस्लिम विषयों के सबसे बड़े सलाहकार हैं. गुलाम नबी आजाद, सलमान खुर्शीद या फिर उत्तर प्रदेश में सबसे कारगर रोल निभाने वाले परवेज हाशमी मुस्लिम विषयों पर राहुल गांधी के आसपास भी नज़र नहीं आते. राहुल गांधी इनसे सलाह लेना ही नहीं चाहते.
राहुल गांधी के सलाहकारों में कनिष्क सिंह, भंवर जितेंद्र सिंह और मोहन प्रकाश हैं. इनके अलावा वे कुछ ऐसे लोगों से राय लेते हैं, जो लोग मीडिया कंपनियों को चलाने वाले हैं या एक्सपर्ट माने जाते हैं.
राहुल गांधी से न कांग्रेस का कोई कार्यकर्ता ख़ुश है और न कोई नेता. हर आदमी इस समय कांग्रेस में अपना वक्त गुजार रहा है. उसे लगता है कि अगर उसने ज़्यादा हाथ-पैर मारे, तो कांग्रेस में वह बिल्कुल उपेक्षित हो जाएगा.
मैं यह बात दावे से कह सकता हूं कि श्रीमती सोनिया गांधी इस बार रायबरेली से चुनाव नहीं लड़ेंगी, बल्कि उनकी जगह रायबरेली से चुनाव प्रियंका गांधी लड़ेंगी. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी में मां की नज़र में छोटाई-बड़ाई है. मां चाहती हैं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनें और देश पर राज करें, जबकि कार्यकर्ता चाहते हैं कि प्रियंका गांधी प्रधानमंत्री बनें और देश पर राज करें. दोनों भाई-बहन में एक बुनियादी फर्क़ है. 20 बार का मिला हुआ कार्यकर्ता या नेता अगर 21वीं बार राहुल गांधी से मिलता है, तो राहुल गांधी उसे इस तरह देखते हैं, मानो उसे जानते नहीं. जब वह अपना नाम बताता है, तो कहते हैं, हां हां, यस यस. दूसरी तऱफ प्रियंका गांधी से कभी कोई न भी मिला हो, तो ऐसे में वे उसे यह इम्प्रेशन देती हैं, जैसे उसे वे बहुत दिनों से जानती हों. अगर प्रियंका गांधी रायबरेली से चुनाव लड़ती हैं, तो चुनाव जीतेंगी. राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ते हैं, तो शायद जीत जाएं, लेकिन जीतने के बाद कार्यकर्ताओं की भीड़ प्रियंका गांधी के घर की तऱफ ज़्यादा जाएगी, राहुल गांधी के घर की तरफ कम.
पूरा कांग्रेस संगठन इस समय लकवाग्रस्त है, क्योंकि किसी को भी यह नहीं मालूम कि उसे क्या करना है. लोकसभा चुनाव सिर पर है. कांग्रेस के बड़े नेता ख़ुद यह कहते हैं कि अक्टूबर या नवंबर में चुनाव हो सकते हैं. मनमोहन सिंह राहुल गांधी की इन्हीं कमज़ोरियों को देखते हुए तीसरी बार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन चुके हैं. सोनिया गांधी की एक बड़ी ताक़त उनकी ख़ामोशी थी. वे जनता के बीच में कभी न ज़्यादा आती थीं और न ही बोलती थीं. जो लोग उनसे मिलने जाते थे, उनकी बातें सुनती थीं और नमस्ते करके उठ जाती थीं. लोगों को लगता था कि सोनिया गांधी समझदार हैं और वे आभास भी यही देती थीं कि जो कार्यकर्ता उनसे मिलता है और अपनी बात कहता है, उन बातों पर वे गंभीरतापूर्वक मनन और अमल करेंगी. लेकिन राहुल गांधी के पास गंभीरता नामक कोई चीज ही नहीं है, क्योंकि राहुल गांधी से जो भी कार्यकर्ता मिलता है, वह ऐसा भाव लेकर बाहर आता है, जैसे उसने अपना वक्त बर्बाद किया हो. अब कांग्रेस में यह लगभग सा़फ है कि आने वाला चुनाव राहुल गांधी अपने नए चुने हुए उम्मीदवारों के सहारे लड़ेंगे. यह भी सच है कि जितना पैसा कभी कांग्रेस ने ख़र्च नहीं किया, इस बार ख़र्च किया जाएगा. पैसा इकट्ठा होना शुरू हो चुका है. कमान प्रत्यक्ष रूप में कनिष्क,
भंवर जितेंद्र और मोहन प्रकाश संभालेंगे. राहुल गांधी 320 सीट लाने के इरादे से चुनाव में उतरेंगे और उन्हें भरोसा है कि नालायक कांग्रेसियों की जगह वे अपने निष्ठावान नए लोगों को कांग्रेस में लाकर और ज़्यादा सार्थक रोल निभा पाएंगे.
राहुल गांधी की यह सोच और रणनीति यही बताती है कि कांग्रेस के भीतर अभी एक और उथल-पुथल का दौर आने वाला है, क्योंकि कांग्रेस के सहयोगी, खासकर शरद पवार इस सारी स्थिति को देखते हुए चुनाव से पहले अपना कोई नया ठिकाना तलाशेंगे, ऐसा लगता है. वह ठिकाना कहां होगा, फिलहाल यह नहीं पता. लेकिन शरद पवार शायद पहले व्यक्ति होंगे, जो राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़े जाने वाले चुनाव की जगह किसी अन्य के नेतृत्व में लड़े जाने वाले चुनाव में शामिल होना ज़्यादा पसंद करेंगे.
फिर से कांग्रेस के मुख्य संगठन की तरफ आते हैं. हर प्रदेश का नेता राहुल गांधी से बात करना चाहता है, लेकिन उनके पास बात करने का वक्त नहीं है या शायद वे बात करना ही नहीं चाहते. इसके दो कारण हो सकते हैं. पहला, राहुल गांधी को लगता है कि ये सब मूर्ख हैं और इन्होंने उनकी मां को बेवकूफ बनाकर अपना घर भरा है. दूसरा, राहुल गांधी के मन में ख़ुद कोई चोर बैठा हुआ है कि वह राजनीतिक चरित्र नहीं जानते, राजनीतिक कौशल नहीं जानते, राजनीतिक ज्ञान नहीं जानते और दूसरी पार्टियों की कमज़ोरियां एवं ताक़त नहीं जानते. इसीलिए उन्हें डर है कि अगर वे बातचीत करेंगे, तो वे एक्सपोज़ हो जाएंगे. यह भी सच है कि कांग्रेस के सारे बड़े नेता, जो सोनिया गांधी की कोर कमेटी के सदस्य कहलाते थे, वे उनके न रहने पर अनाथ हो चुके हैं. सोनिया गांधी की इच्छा को एक किनारे डाल राहुल गांधी उनसे न कोई बातचीत करना चाहते हैं और न शायद भविष्य में कभी करेंगे.
जो सबसे अजीब जानकारी हमारे पास आई है, वह यह है कि राहुल गांधी का व्यवहार इन दिनों अपनी मां के साथ भी राजनीतिक नहीं है, क्योंकि जब वह अपनी मां के घर जाते हैं, तो उनके साथ कम बैठते हैं, टेलीविज़न ज़्यादा देखते हैं, दूसरे कमरे में काम ज़्यादा करते हैं और मां के साथ कम से कम वक्त बिताना चाहते हैं. हो सकता है कि यह कोरी अफवाह हो, लेकिन ये अफवाहें भी कांग्रेस के उच्च क्षेत्रों से ही निकली हुई हैं और अफवाहें कभी भी बिना आधार के नहीं होतीं. अगर राहुल गांधी ऐसा करते हैं, तो वे अपनी बीमार मां के साथ बहुत अत्याचार करेंगे. उन्हें चाहिए कि वे अपनी मां का और कांग्रेस का सहारा बनें, न कि कांग्रेस में एक हीन भावना पैदा करने वाले ऐसे नेता बनें, जिसे आम कांग्रेसी कभी मा़फ न कर पाए. और ऐसे में राहुल गांधी को कभी भी प्रेस कांफ्रेंस संबोधित करते या किसी सेमिनार में बिना लिखा हुआ भाषण देते देखना हिंदुस्तान के लोगों के लिए सपना ही रह जाएगा. राहुल गांधी कितने भी महत्वपूर्ण लोगों के बीच में हों, उनका मोबाइल एसएमएस प्राप्त भी करता है और उनकी उंगलियां भी एसएमएस करती रहती हैं. इससे वे लोग ख़ुद को बहुत अपमानित महसूस करते हैं, जो कांग्रेस से जुड़ी हुई गंभीर चर्चा करने उनके पास जाते हैं. अब देखना यह है कि राहुल गांधी कांग्रेस के लिए कुछ अच्छा करने में कामयाब होंगे या फिर कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित होंगे.
अचानक राहुल गांधी के हाथ में एक सफलता लग गई. नरेंद्र मोदी और पूरी भारतीय जनता पार्टी पहले कांग्रेस के ऊपर भ्रष्टाचार, चाहे वह टू जी हो, कोयला स्कैम हो, महंगाई हो, को अपना मुद्दा बनाते थे, लेकिन अब अचानक नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी और अपने बीच के मुद्दों को प्रमुख बना लिया है. राहुल गांधी की कांग्रेस या उनके सलाहकार इस स्थिति से बहुत ख़ुश हैं. उन्हें लगता है कि उम्र, पैसा और महिलाओं का झुकाव राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी से प्रधानमंत्री पद का बेहतर दावेदार साबित करेगा. राहुल गांधी और उनके सलाहकारों के लिए एक सुकून की बात यह है कि वे इस बात पर आश्वस्त हो चुके हैं कि नरेंद्र मोदी के सहयोगी, जिन पर उन्हें भरोसा है कि वे उनका साथ देंगे, सारे चुनाव से पहले ही उनका साथ छोड़ जाएंगे. कांग्रेस को यह पक्का विश्वास है कि ममता बनर्जी, जयललिता एवं चंद्रबाबू नायडू उनका साथ नहीं देंगे और नीतीश कुमार उनका साथ पहले ही छोड़ देंगे. इस समय राहुल गांधी की तऱफ से नीतीश कुमार से संपर्क बनाया जा चुका है और कांग्रेस एक फॉर्मूले की तलाश कर रही है, जिससे कि नीतीश कुमार भाजपा से निकलने का सार्थक बहाना तलाश सकें. यह स्थिति राहुल गांधी के लिए बहुत फायदेमंद है और भारतीय जनता पार्टी के लिए थोड़ी नुक़सानदेह. कांग्रेस इस अंतर्विरोध से ही अपनी ज़मीन बनाने की कोशिश करेगी. हां, कांग्रेस के लिए एक और सहारा देश का मुस्लिम वोट है, जो नरेंद्र मोदी के भारतीय जनता पार्टी का उम्मीदवार होने की स्थिति में सीधे कांग्रेस को वोट करेगा, क्योंकि 16 या 18 प्रतिशत वोट लोकसभा के चुनाव में बहुत बड़ा रोल अदा करता है.

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