घटना अनोखी नहीं थी, क्योंकि ऐसी घटना देश के किसी भी हिस्से में हो सकती है और होती भी रहती है, लेकिन ऐसी घटनाओं पर अक्सर रोशनी नहीं पड़ती. कानपुर में अपने नागरिक कर्तव्य को अंजाम देते हुए इंद्रजीत सिंह उर्फ राजू सरदार ने शहादत क्या दी, पूरे शहर, पूरे समाज को उसकी सामाजिक ज़िम्मेदारी का इस कदर एहसास हुआ कि लोगों ने शासन-प्रशासन की ओर से किसी मदद-इमदाद का इंतज़ार न करके खुद अपने दम पर पाई-पाई जमाकर एक ऐसी रकम एकत्र कर दी, जो प्रभावित परिवार के लिए न स़िर्फ एक मरहम है, बल्कि यह भरोसा भी कि वे अकेले नहीं हैं, बल्कि उनके पीछे अनगिनत हाथ हैं. श्रमिकों की काशी कहलाने वाले कानपुर के इस जज्बे को सलाम कहना चाहिए.
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मई के पहले सप्ताह में उत्तर प्रदेश के कानपुर में शास्त्री नगर इला़के में चेन स्नेचरों से मोर्चा लेते समय अपनी जान गंवाने वाले इंद्रजीत सिंह उर्फ राजू सरदार के परिवार के लिए आर्थिक सहायता जुटाने का जो जज्बा स्थानीय नागरिकों, स्वैच्छिक-सामाजिक संस्थाओं, सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों, गुरुद्वारों, रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों, डॉक्टरों, व्यापारियों एवं पत्रकार समाज ने दिखाया, वह न केवल प्रशंसनीय है, बल्कि आज के समय में, जबकि लोगों में संवेदना का स्तर शून्य हो गया है, एक राहत भरी आश्‍वस्ति का एहसास भी दिलाता है. सच तो यह है कि जन सहयोग की भावना ने इंद्रजीत के परिवार के भविष्य के लिए जो धनराशि (लगभग 16-17 लाख रुपये) एकत्र की है, वह बहुत बड़ी या पर्याप्त राशि तो नहीं है, लेकिन हक़ीक़त में यह राशि किसी सरकारी सहायता से लाख-करोड़ गुना महत्व रखती है.
किस-किस ने दिया पैसा और क्या सोच कर दिया, सवाल यह नहीं है, लेकिन किसी और की तरफ़ निहारने की बजाय अपने शहर के एक बेसहारा हो चुके परिवार के लिए यह उम्मीद पैदा करना कि उसका आने वाला कल अगर सुनहरा न हुआ, तो स्याह भी नहीं होने दिया जाएगा, यह अपने आप में एक बड़ी बात है. बूंद-बूंद से घड़ा भरता है, यह तो सभी जानते हैं, लेकिन कानपुर के लोगों ने इससे भी कहीं आगे बढ़कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि एक-एक सांस का दान किसी एक पूरे परिवार के लिए जीवन का वरदान बन सकता है. हम सरकारी कार्यालयों में कार्यरत लोगों पर पथभ्रष्ट होने का आरोप तो सहज चस्पा कर देते हैं, लेकिन अफसोस यह कि उनके द्वारा किए गए किसी अच्छे कार्य की चर्चा तक नहीं होती. इंद्रजीत के मामले में सरकारी महकमों के लोगों ने जो अपनापन दिखाया, उसे भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.
वैसे भी कानपुर हसरत मोहानी और गणेश शंकर विद्यार्थी की कर्मभूमि है, जो देश और समाज-सेवा के लिए आज भी गाहे-बगाहे याद किए जाते हैं. श्रमिकों की काशी रहा कानपुर कुछ मायनों में अभी भी बदला नहीं है, यह जानकर परम संतोष का अनुभव होता है. इंद्रजीत सिंह की शहादत शहर में एक मिसाल इसलिए भी बनी है कि दूसरों की मुसीबत को अपना समझने की प्रवृत्ति आज लोप-सी हो गई है, ऐसी स्थिति में भी यह जज्बा और जुनून! सचमुच रोंगटे खड़े कर देने वाली बात है! कत्ल हो, लड़ाई-झगड़ा हो या फिर मार्ग दुर्घटना, हमारी मानसिकता कुल मिलाकर किनारा पकड़ कर किसी तरह वहां से निकल लेने की हो गई है. ऐसे में, इंद्रजीत सिंह ने अपनी जान पर खेलकर हमें बताया कि नहीं, अपने लिए तो सभी जी लेते हैं, लेकिन असल जीना तो दूसरों के लिए भी जीना है. ऐसे में, संजीव कुमार अभिनीत फिल्म बादल (1966) के लिए जावेद अनवर द्वारा लिखा यह गीत अनायास याद आ जाता है….अपने लिए जिए, तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल, जमाने के लिए…हम इंद्रजीत को तो वापस नहीं ला सकते, लेकिन शहर में, समाज में और भी इंद्रजीत पैदा ज़रूर कर सकते हैं. और, यही संदेश इस बार कानपुर ने समवेत स्वर में दिया है.
होता यह है कि ऐसी किसी भी घटना के मौ़के पर हम शासन-प्रशासन की बाट जोहते रहते हैं कि वह आगे आएगा और पीड़ित के आंसू पोछेगा. हालांकि कभी-कभी यह इंतज़ार ख़त्म होने का नाम नहीं लेता, जबकि पीड़ित की हालत बद से बदतर होती चली जाती है. उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में सामूहिक दुष्कर्म की शिकार एक गूंगी-बहरी किशोरी कुछ दिनों पहले मां बन गई, लेकिन शासन-प्रशासन ने उसकी ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया. नतीजतन, उसके मज़दूर माता-पिता अन्याय का शिकार होने के साथ-साथ इलाकाई साहूकारों के कर्जदार भी हो गए. सच तो यह है कि अब शासन-सत्ता की ओर से भी मदद की पहल तभी होती है, जबकि उसे भविष्य में कोई राजनीतिक फ़ायदा दीख रहा हो. आर्थिक सहायता-मुआवजा, संरक्षण और पुरस्कार-सम्मान की नीति में राजनीति इस कदर घुस गई है कि अब किसी से कोई उम्मीद रखना भी बेमानी है. उदाहरण के लिए ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है. बीते दिसंबर माह में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की शिकार बनी दामिनी के परिवार को उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से 20 लाख रुपये की सहायता मिली. उसके बाद सीमा पर शहीद हुए एक सैनिक के परिवार को 20 लाख रुपये की सहायता मिली. और, कुंडा-प्रतापगढ़ में शहीद हुए सीओ जियाउल हक के परिवार को 50 लाख रुपये की सहायता मिली. यानी जहां भी वोटबैंक की राजनीति का जादू चल जाता है, वहां राहत का मरहम भी समय से पहुंच जाता है. और जहां बदले में कुछ वापस मिलने की उम्मीद न हो, वहां का रास्ता सरकारी सहायता जल्दी नहीं तय करती. आश्‍चर्य की बात है?
 

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