तेलंगाना का गठन किए जाने का निर्णय गलत नहीं है लेकिन इसके लिए जो तरीका अपनाया गया वह ठीक नहीं था. इस देश में इससे पहले किसी भी राज्य का गठन संबंधित राज्य की विधान सभा द्वारा प्रस्ताव पारित किए बगैर नहीं किया गया था. यहां तक कि झारखंड का गठन भी बिहार विधान सभा द्वारा प्रस्ताव पारित करने के बाद ही किया गया था. यहां बिहार खोने वाले पक्ष में था, बावजूद इसके ऐसी परिस्थितियां निर्मित की गईं कि बिहार विधानसभा को को प्रस्ताव पारित करना पड़ा. यहां आंध्रप्रदेश विधानसभा, जहां कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं, ने यह साफ कर दिया कि वह किसी भी सूरत में तेलंगाना के गठन संबंधी प्रस्ताव को विधानसभा में पास नहीं होने देगी. व्यवहारिक समझ के अनुसार इस विषय को अभी छोड़ देना चाहिए और तेलंगाना का गठन चुनावों के बाद होना चाहिए.
भावनात्मक मुद्दों को कभी भी बहसों के माध्यम से नहीं सुलझाया जा सकता फिर चाहे वह अयोध्या का मसला हो, मंडल कमीशन प्रकरण हो या फिर ऐसा कोई भी मुद्दा जिसमें दोनों ही पक्षों से खुद को सही साबित करने का शोर उठ रहा हो. ऐसे मुद्दों को कभी भी निष्क्रिय होकर सुलझाया नहीं जा सकता. इसके लिए बड़े पैमाने पर सक्रियता की आवश्यक्ता होती है. और तेलंगाना के मसले में देखें तो यह सक्रियता जिम्मेदार लोगों और खासकर प्रधानमंत्री को दिखानी चाहिए कि दोनों प्रमुख दलों की संयुक्त बैठक बुलाएं. इस मसले का हल खोजने के लिए बातचीत करें भले ही इसमें एक दिन लगे, दो दिन लगे या फिर हफ्ता भर लगे. इस तरह बातचीत के माध्यम से मसले का हल खोजने के बाद इसे संसद के संज्ञान में लाना चाहिए. लेकिन मौजूदा यूपीए सरकार इस मसले में जो कर रही है वह बेहद बचकाना है. पहले तो उन्होंने तेलंगाना पर अपनी घोषणा करने में काफी देर लगा दी. यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में ही उन्होंने इसका वायदा किया था. फिर यूपीए-2 के चुनावी घोषणापत्र में भी इस वायदे को दोहराया गया था. ऐसे में जब वे 2009 में दोबारा सत्ता में आए उन्हें तभी इस मसले पर कोई राय लेनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. लेकिन कुछ महीने पहले अचानक कांग्रेस वर्किंग कमेटी की एक बैठक के बाद मौजूदा सरकार ने यह घोषणा कर दी. यह भी एक बचकाना कदम ही है.
वास्तव में अलग तेलंगाना राज्य का गठन एक राष्ट्रीय मुद्दा है. इस तेलुगू भाषी राज्य के दो समूहों की भावनाओं को मद्देनजर रखा जाए तो यह मुद्दा राष्ट्रीय है न कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी का विषय है. वास्तव में चाहिए कि इस विषय पर इन दोनों पार्टियों के बीच बड़े पैमाने पर बहस हो, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि चुनावी लाभ को इस देश में वरीयता दी जाती है. कांग्रेस सोचती है कि इस घोषणा के साथ वह उस क्षेत्र में खुद को मजबूत कर लेगी. कांग्रेस की यह सोच गलत है. आज हालात ऐसे हैं कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश को या तो दो राज्यों में बांट देना चाहिए या फिर इस निर्णय को स्थगित कर देना चाहिए. लेकिन कांग्रेस जो कर रही है उससे तो वह खुद को और मुश्किल में डाल रही है. वास्तव में कांग्रेस और भाजपा दोनों को चाहिए कि वह इस विषय को आंध्र प्रदेश की राजनीति के लिए चुनावी मुद्दा न बनाएं. बीते दिनों लोकसभा में राजनीतिक गुंडागर्दी का असंसदीय दृश्य देखने को मिला. यह दृश्य हैरानी भरा जरूर था, लेकिन आश्‍चर्यजनक नहीं था. अगर मुद्दों पर महत्वाकांक्षाएं हावी हो जाएंगी और देश की दोनों ही प्रमुख पार्टियां खुद की बात को सही साबित करने की कोशिश करेंगी तो ऐसा ही होगा. यहां पर लोकसभा के स्पीकर, या फिर प्रधानमंत्री या सोनिया गांधी की जिम्मेदारी थी कि वे इस मुद्दे पर संबंधित सांसदों से अलग से बात करते लेकिन किसी ने भी यह पहल नहीं की. कमलनाथ के बारे में यह राय है कि वह पार्टियों के भीतर सामंजस्य बैठाने और पक्ष-विपक्ष के बीच मध्यस्थता कराने में वे प्रवीण हैं, लेकिन क्या ऐसा हो पाया? मुझे नहीं लगता कि इस विषय पर उन्होंने एक भी बैठक की होगी. इस विषय पर जयपाल रेड्डी व अन्य मंत्रियों की एक कमेटी बनाई गई थी जिनके ऊपर यह जिम्मेदारी थी कि वे इस मुद्दे का हल खोजें, लेकिन इस दिशा में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
वास्तविकता तो यह है कि आंध्र प्रदेश की समस्या की शुरुआत 1956 से हुई. तब पोट्टी श्रीराममालु ने यह मांग करते हुए उपवास शुरू किया कि मद्रास के तेलुगू भाषी क्षेत्रों को आंध्रप्रदेश में शामिल करना चाहिए. इस मांग के लिए किए गए उपवास के दौरान उनकी मृत्यु हो गई. इस दबाव के चलते जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने यूनाइटेड आंध्र के गठन की घोषणा कर दी जो कि एक भारी गलती थी. तब यह कहा गया कि मद्रास के तेलुगू भाषी क्षेत्रों को अलग करके आंध्र प्रदेश में शामिल किया जाएगा और तेलंगाना जो कि पुराने निजाम का स्टेट है, तेलंगाना बना रहेगा. 1956 में की गई यह गलती एक बार फिर 58 साल बाद फिर से अपना असर दिखा रही है.

वास्तव में कांग्रेस और भाजपा दोनों को चाहिए कि वह इस विषय को आंध्र प्रदेश की राजनीति के लिए चुनावी मुद्दा न बनाएं. बीते दिनों लोकसभा में राजनीतिक गुंडागर्दी का असंसदीय दृश्य देखने को मिला. यह दृश्य हैरानी भरा जरूर था, लेकिन आश्‍चर्यजनक नहीं था. अगर मुद्दों पर महत्वाकांक्षाएं हावी हो जाएंगी और देश की दोनों ही प्रमुख पार्टियां खुद की बात को सही साबित करने की कोशिश करेंगी तो ऐसा ही होगा.

तेलंगाना का गठन किए जाने का निर्णय गलत नहीं है लेकिन इसके लिए जो तरीका अपनाया गया वह ठीक नहीं था. इस देश में इससे पहले किसी भी राज्य का गठन संबंधित राज्य की विधान सभा द्वारा प्रस्ताव पारित किए बगैर नहीं किया गया था. यहां तक कि झारखंड का गठन भी बिहार विधान सभा द्वारा प्रस्ताव पारित करने के बाद ही किया गया था. यहां बिहार खोने वाले पक्ष में था, बावजूद इसके ऐसी परिस्थितियां निर्मित की गईं कि बिहार विधानसभा को को प्रस्ताव पारित करना पड़ा. यहां आंध्रप्रदेश विधानसभा, जहां कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं, ने यह साफ कर दिया कि वह किसी भी सूरत में तेलंगाना के गठन संबंधी प्रस्ताव को विधानसभा में पास नहीं होने देगी. व्यवहारिक समझ के अनुसार इस विषय को अभी छोड़ देना चाहिए और तेलंगाना का गठन चुनावों के बाद होना चाहिए. अब जो कोई भी यह समझता है कि तेलंगाना का गठन करने से उसे वोट मिल जाएंगे तो यह मूर्खता है. इससे वाईएसआर कांग्रेस, टीडीपी और चंद्रशेखर राव की पार्टी इन सभी को फायदा पहुंचने वाला है न कि कांग्रेस और भाजपा को. वाकई में यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर कांग्रेस और भाजपा को संविधान की रक्षा और अपनी इज्जत बचाने के लिए एकसाथ खड़े हो जाना चाहिए. राष्ट्रीय छवि के लिए आंध्र की चंद सीटों को भूल जाना दोनों के लिए श्रेयस्कर होगा, क्योंकि इनसे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. भाजपा को यह बात समझनी चाहिए कि उसके अनुसार यदि मोदी प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं तो आंध्र की हां और ना से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. कांग्रेस को भी यह बात समझनी चाहिए कि मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने में आंध्र प्रदेश से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. तेलंगाना का मुद्दा नियंत्रण से बाहर चला गया है, संसद में अप्रिय घटनाओं को रोकना होगा. जैसा कि हाल ही में संसद में हुआ जब एक सांसद ने संसद में मिर्च का स्प्रे का उपयोग किया जैसे कि वह कोई ऐसी महिला हो, जिसका बलात्कार होने वाला हो और उसने बचने के लिए स्प्रे का उपयोग किया. यह बहुत ही हास्यास्पद है. ऐसे लोगों को सार्वजनिक जीवन में जगह नहीं मिलनी चाहिए. इस मामले पर उच्चतम न्यायालय जाना चाहिए और उच्चतम न्यायालय को नियम बनाना चाहिए. सांसद को सुरक्षा जांच से छूट मिलती है ऐसे में वे अगर इस तरह पेश आएं तो देश की आम जानता की सुरक्षा का क्या होगा?
यह ऐसा मुद्दा है जिसमें कांग्रेस, भाजपा और संभवतः सीपीआई(एम) को गंभीरता से विचार करना चाहिए और कोइ रास्ता तलाशना चाहिए. हो सकता है कि इस मसले पर कोई सहमत हो और कोई असहमत. लेकिन आखिरकार में सांसदों के व्यवहार के संबंध में नियम कायदे होने चाहिए.
अध्यक्ष पर आरोप मढ़ देना ठीक नहीं है. बेचारा अध्यक्ष आखिर करे तो क्या करे क्योंकि ऐसा व्यवहार संसद के सम्माननीय सदस्यों द्वारा किया जा रहा है. भले ही आप तेलंगाना बिल पास करना चाहते हों या नहीं, लेकिन यह आह्वान है कि साथ बैठकर संसद की मर्यादा को वापस लाना होगा. वक्त की यही मांग है.

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