kamal-sirपांच राज्यों के चुनाव परिणाम आ गए हैं. ये परिणाम वैसे ही हैं, जैसी कि उम्मीद की गई थी. केरल में हमेशा सरकार बदलती रही है. एक बार एलडीएफ तो दूसरी बार यूडीएफ. इसी प्रथा के तहत यहां का चुनाव परिणाम आया है. इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. तमिलनाडु में भी आमतौर पर एआईएडीएमके और डीएमके के बीच सत्ता बदलती रही है. लेकिन, इस बार एआईएडीएमके दोबारा सत्ता में चुन कर आई है. इससे पुरानी प्रथा समाप्त हो गई है कि कोई एक दल लगातार दूसरी बार तमिलनाडु में सत्ता में नहीं आता. इसके लिए जयललिता को क्रेडिट देना चाहिए कि उन्होंने तमाम विवादों के बाद भी अभी तक लोगों के विश्वास को कायम रखा है. पश्चिम बंगाल में लोगों ने सोचा कि ममता बनर्जी साधारण बहुमत पाएंगी, लेकिन उन्हें एक शानदार बहुमत मिला है.

उनका मतदाता आधार बरकरार रहा. कांग्रेस और लेफ्ट के हाथ मिलाने का भी ममता के वोट बैंक पर असर नहीं हुआ. असम में 15 साल के कांग्रेस शासन के बाद एंटी इंकंबेंसी (सत्ता के खिलाफ लहर) होनी ही थी. अच्छी बात यह है कि असम के मतदाताओं में कोई भ्रम नहीं रहा और भाजपा को एक स्पष्ट बहुमत मिला. मैं समझता हूं कि आज कल मतदाताओं में एक नया ट्रेंड शुरू हुआ है कि जब चुनाव नजदीक आते हैं तो वे एक तरफ हो जाते हैं. अब, जनता चुनाव परिणाम आने के बाद त्रिशंकु स्थिति या हॉर्स ट्रेडिंग (विधायकों की खरीद-बिक्री) नहीं होने देना चाहती. लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत है.

कुल मिलाकर, मैं यह नहीं मानता कि तीन साल बाद होने वाले केंद्रीय चुनाव के संबंध में इन राज्यों के चुनाव परिणाम का कोई लेना-देना है. इन परिणामों से अगर कोई संकेत निकलता है तो यह कि पश्चिम बंगाल में ममता और केरल में वाममोर्चा के जीतने के तीन साल बाद लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को पहले से कहीं अधिक मेहनत करनी होगी. तीन साल का समय अभी भी बहुत है और जहां तक राष्ट्रीय परिदृश्य की बात है तो दो समस्याएं हैं. पहली तो यह कि जिन लोगों ने मोदी को वोट दिया था वे अब निराश हो रहे हैं.

लोगों ने जितनी उम्मीदें की थीं और जिस तेज़ी से परिणाम मिलनी की उम्मीदें की थीं, वे पूरी नहीं हो रही हैं. दूसरी बात यह कि कांग्रेस अगले चुनाव के लिए उत्साहित नहीं दिख रही है और न ही कोई आक्रामक लीडरशीप पेश करती नज़र आ रही है. इसका फायदा भाजपा को ही मिलेगा. निश्चित तौर पर, तीसरा मोर्चा अपने आंतरिक मतभेद की वजह से अस्तित्व में नहीं आ पा रहा है.

यदि, मुलायम सिंह, लालू यादव और नीतीश कुमार और अन्य नेता साथ आते हैं, तो यह एक ताकतवर मोर्चा हो सकता है. लेकिन, 2017 में उत्तर प्रदेश का चुनाव होना है और तभी पता चलेगा कि ये सभी बातें कहां और किस स्थिति में हैं. अभी तक लोग मान रहे हैं कि मायावती जीतेंगी. मुलायम सिंह की पार्टी के पास सोचने-विचारने के लिए बहुत सारे मुद्दे हैं. राज्यसभा में अभी मुलायम सिंह ने जिन लोगों के नाम का चयन किया है, उसमें बेनी प्रसाद वर्मा हैं. वो कुर्मी जाति से आते हैं, जो करीब 12 से 13 फीसदी हैं. उन्होंने निषाद का चयन किया है, रेवती रमण सिंह, जो कि भूमिहार हैं. राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण लोगों की जगह मुलायम सिंह ने इस बार अपने पसंदीदा लोगों का चयन किया है. इसलिए, 2017 को लेकर वे कितने गंभीर हैं, इसे समझा जा सकता है. उत्तर प्रदेश का 2017 में क्या परिणाम आता है, इसके बाद ही कोई व्यक्ति2019 के आम चुनाव की पूर्व समीक्षा कर सकता है.

ये सभी बातें तो चुनाव से संबंधित हैं. आमतौर पर देश आगे चलता रहता है. हालांकि, सुब्रमण्यम स्वामी, जो हाल ही में राज्यसभा के लिए नामांकित हुए हैं, ने कुछ मुद्दे उठाए हैं. जैसे कि  वे चाहते है कि दो लॉ ऑफीसर को बदल दिया जाए, आरबीआई के गवर्नर को बदल दिया जाए. लेकिन, जिस तरह से वह यह बयान दे रहे हैं, उससे लगता है कि उन्हें ऊपर से कोई संकेत मिल रहा है या समर्थन हासिल है. बेशक यह बहुत सारे लोगों को मालूम है कि रघुराम राजन शिकागो डॉक्टरीन की नीतियों का अनुपालन करते हैं.

एस गुरुमूर्ति ने लिखा है कि वित्तीय घाटा एक बेहतर चीज है जब क्रेडिट एक्सपेंशन और महंगाई दर व्यापक रूप लेती है. अगर यह नहीं हो तो आपको अर्थव्यवस्था में धन मुहैया कराने के लिए अतिरिक्त वित्त का नुक़सान होता है. बेशक यह एक ऐसा विषय है, जिसे अर्थशास्त्र के माहिर ही बेहतर तरीके से समझा सकते हैं. पीएमओ और वित्त मंत्रालय के अधिकारी इस पर अपनी राय दे सकते हैं. लेकिन, यह सच्चाई है कि जब तक अर्थव्यवस्था में पैसा नहीं डाला जाएगा, तब तक निवेश के वातावरण में सुधार नहीं होगा. विदेशी निवेश में सामान्य प्रवाह बना हुआ है. इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं हो रहा है, बड़ा निवेश नहीं आ रहा है. अगले छह माह से एक साल के दरम्यान सरकार को कुछ ऐसे कदम जरूर उठाने चाहिए ताकि घरेलू या विदेशी निवेश में वृद्धि हो.

आरबीआई के गवर्नर पर दो तरह की राय हैं. इनसे उद्योग जगत या विदेशी निवेशक खुश नहीं है क्योंकि वे ब्याज दर घटा नहीं रहे हैं. लेकिन, मौजूदा वक्त में उनकी साख बेहतर है. ऐसे में, उद्योग जगत यह कह सकता है कि उनको हटाने से सरकार की साख कमजोर होगी. इन सारी बातों के बावजूद, भारत जैसे विशाल देश में किसी एक व्यक्ति के होने या न होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. बहरहाल, सरकार को इस अनिश्चितता को समाप्त करते हुए कहना चाहिए कि सरकार रघुराम राजन को एक और कार्यकाल दे रही है या फिर किसी नए व्यक्ति को आरबीआई गवर्नर नियुक्त कर रही है. इस तरह की अनिश्चितता और सांसदों द्वारा दिए गए बयान सरकार के लिए ठीक नहीं हैं. देखते हैं, आगे क्या होता है.

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