उदारवादियों की एक समस्या है कि वे बहस बहुत करते हैं। कोई हल निकले न निकले उनके भीतर का सब कुछ निकल जाता है और उन्हें जो शांति, तसल्ली मिलती है वह उनके उदार बने रहने के लिए काफी है। पर इसका खतरा भी है कभी कभी दारू के नशे में उदारता के बीच जो बहस होती है वह बड़े खतरनाक मुकाम पर पहुंच जाती है। इसलिए ऐसी बहसें यदि दिन के उजाले में और दफ्तर में लोगों के बीच की जाएं तो ज्यादा फलित रहती हैं। मुझे लगता है एक ऐसी ही बहस दफ्तर में ‘वायर’ की आरफा खानम शेरवानी और वायर के फाऊंडर या कहिए बास ( गोकि उदारवादी बास वाली मानसिकता को पसंद नहीं करते) सिद्धार्थ वरदराजन के बीच हुई। मेरा अनुमान है कि इस बहस में दोनों को मजा आया होगा और आरफा का यह प्रस्ताव रहा होगा कि इस बहस को एअर किया जाए और सिद्धार्थ मान गये होंगे तो हमने एक गजब की बहस देखी। इस बात को मानना पड़ेगा कि आरफा की इस पहल ने एक बहुत स्वस्थ उदाहरण हम सबके बीच प्रस्तुत किया। अगर स्टूडियो में होने वाली ऐसी बहसों का चलन जनता के लिए हो जाए तो समाज और प्रौढ़ बनेगा। लेकिन यहां एक प्रश्न तो नहीं पर एक शंका जैसी है कि उदारवादियों का जरूरत से ज्यादा उदार होना कहीं फैशन तो नहीं बन जाता।

अब इस बहस को ही लीजिए। क्यों ऐसा लगता है कि पूरी बहस सुनकर सिद्धार्थ से सहमत होते हुए भी हम आरफा के साथ खड़े हैं। सिद्धार्थ उसूलों की बात करते हैं और चेताते हैं कि यह कोई ऐसा उदाहरण न बन जाए दूसरी सरकारों के लिए। ऐसे ही कुछ कुछ लिखते हुए रवीश कुमार ने भी अपनी पोस्ट में अर्नब की गिरफ्तारी की निंदा करते हैं। हालांकि लंबी पोस्ट में यह बात सिर्फ़ बात भर रह गयी। लेकिन सिद्धार्थ से अंत तक आरफा आधी सहमत और आधी असहमत रहीं। पर हम आरफा से पूरी तरह सहमत हैं और उनके तर्कों पर रहेंगे भी। क्या अच्छा नहीं कि इस पर सिद्धांतवादी उदारवादी लोग मौन धारण कर लें। पर यह हो नहीं सकता। यह एक लंबी परम्परा का हिस्सा है। एडीटर्स गिल्ड और एनसीबी ने भी इस गिरफ्तारी की निंदा की है। ये संस्थाएं तो हमेशा विवाद में रही हैं। इनसे पूछा जाना चाहिए कि देश भर में और विशेषकर उप्र में पत्रकारों पर ज्यादतियों के समय ये कहां थीं। इनकी कार्यप्रणाली हमेशा विवादित रही है।

बहरहाल, आरफा और सिद्धार्थ की बहस बहुत प्रेरक, मजेदार और उदाहरण पेश करती है। दोस्तों को मेरी सलाह है इस बहस को जरूर देखें। यूट्यूब पर उपलब्ध है। जिन्हें न मिले तो मुझे बताएं। आरफा ने ही लालू के जंगल राज पर एक बढ़िया चर्चा की जिसमें शामिल थे सतीश के सिंह, प्रो. रतनलाल और जामिया के एक चर्चित प्रोफेसर, नाम इस समय याद नहीं। बहुत रोचक चर्चा रही।

बिहार चुनाव पर जितनी चर्चाएं होती हैं उनमें ज्यादातर अटकलबाजी ही होती है। इसलिए उससे अलग हट कर विषयों में ताजगी मिलती है। जैसे आलोक जोशी ने फ्रांस की घटनाओं और मायावती की राजनीति पर चर्चा चलाई। सुनने में मजा आया। यह तो मैं पहले भी लिख चुका हूं कि अपने गिरते स्वास्थ्य के चलते सारी बहसों के मुद्दों और लोगों की तर्कों को लिख सकूं अब संभव नहीं। पहले लिखता था और हफ्ते में दो तीन बार भी। खैर।

फ्रांस और बिहार के विषय पर ही आशुतोष ने भी चर्चा की। फ्रांस वाले विषय पर आलोक जोशी, पुष्पेन्द्र पंत, शीबा और इतिहासकार हुसैन थे। बहुत गम्भीर और रोचक। आलोक जोशी ने कहा कि हम बचपन से देखते आए हैं यह समस्या और सोचते आए कि समय रहते चली जाएगी पर यह तो और ज्यादा गम्भीर होती गयी दिनोंदिन। बहुत सही बात है। बात निकल कर आयी कि समस्या इस्लाम में नहीं है। पुष्पेश पंत और शीबा को बहुत दिन बाद सुना। इसी तरह बिहार वाले मुद्दे पर आशुतोष के साथ रहे कमर वहीद नकवी, रामकृपाल सिंह, राहुल देव, विनोद अग्निहोत्री और आलोक जोशी। इसमें आलोक जोशी को सुनना चाहिए। एकदम तर्कपूर्ण और संतुलित। रामकृपाल सिंह और राहुल देव बीच की कठपुतली जैसे ही लगे। विनोद और नकवी से भी ज्यादा दमदार थे जोशी के तर्क। शीतल पी सिंह ने अपने कार्यक्रम शीतल के सवाल में अर्नब के मुद्दे पर तमाम पत्रकारों की लिस्ट बताई जो प्रताड़ित हुए हैं। शीतल को सुना जाना सुकूनदायी रहता है।

भाषा सिंह फिर एक नया मुद्दा लेकर आयीं। दिल्ली के द्वारका इलाके में घटी एक घटना पर विस्तार से वहां की महिलाओं और गृहणियों से उनकी बातचीत लाजवाब थी। मुद्दा था एक पुलिस इंस्पेक्टर द्वारा महिलाओं को अपनी हवस का टारगेट बनाना। यह उसका पेशा बन गया था। पर एक लड़की ने हिम्मत दिखाई और वह सलाखों के पीछे गया। इस एक विषय को चुनना ही भाषा की खूबी है। नीलू व्यास ‘सत्य हिंदी’ के लिए नया कार्यक्रम ‘आज का एजेंडा’ लेकर आयीं हैं। उनके पिछले कार्यक्रम ‘सुनिए सच’ से यह काफी बेहतर है। उसमें वे भागती थीं बिना सांस लिए। लेकिन इसमें तसल्ली के साथ तीन मुद्दों पर उम्दा तरीके से अपनी बात रखती हैं। प्रसून वाजपेयी का तो सब वैसा ही है हाथ मसलते हुए तिरछी गरदन करके। लेकिन कोई कोई एपीसोड तो बढ़िया रहते हैं फिर भी पूरा सुनना जैसे एक सजा हो। तिस पर उनके सच इतने होते हैं कि कल तो खयाल आया कि मान लिया जाए वे किसी तेंदुए की खबर दे रहे हों तो जरूर बोलेंगे कि तेंदुए का सच यह है …फिर भी उन्हें सुना जाना चाहिए।

एनडीटीवी को फिर सम्मानित किया गया है। रवीश के कार्यक्रम ‘देस की बात’ को भी। रवीश मौजूदा वक्त की पत्रकारिता के धारदार हथियार हैं। यदि हथियार का मानवीकरण किया जाए तो। यह अलग बात है कि बनियान धोकर नील लगाने के बाद भी उनसे सफेदी नहीं लायी जाती। पर उनकी पत्रकारिता में तो सब उजला उजलापन है। बधाई उन्हें एक बार फिर पुरस्कृत होने पर। अपूर्वानंद को पढ़ा जाना ज्यादातर रह ही जाता है। वे बराबर अपने लेख भेजते हैं। पर वे मेरी दिक्कतें भी जानते समझते हैं। मैं इतना जरूर अपने मित्रों से कहूंगा कि सत्य हिंदी और इंडियन एक्सप्रेस आदि में अपूर्वानंद जी के लेख पढ़ते रहें किसी को न मिलें तो मुझे लिखें बताएं।

 

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