पाकिस्तान में सार्वजनिक स्थलों एवं इबादतगाहों पर जिस तरह से बम धमाके और आत्मघाती हमले हो रहे हैं, हत्या-लूटमार का बाज़ार गर्म है और क्षेत्रीय एवं भाषाई उन्माद चरम पर है, उससे लगता है कि यह देश 1971 वाली स्थिति से एक बार फिर गुज़र रहा है. सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान सरकार इस ख़तरनाक रुझान को रोक पाएगी या फिर गृहयुद्ध में फंसकर एक बार फिर देश का विभाजन हो जाएगा?

newपाकिस्तान के हालात के बारे में निश्‍चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वहां कब क्या स्थिति होगी. बम धमाके और आत्मघाती हमले आम ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं. धार्मिक उन्माद और इबादतगाहों पर हमले आम बात हो चुकी है. बम धमाकों और हमलों में अब तक सैकड़ों निर्दोषों की जानें जा चुकी हैं. हर धमाके के बाद सरकार हरकत में आती है, आतंकवादियों के ख़िलाफ़ कुछ कार्रवाई करती है, कुछ लोगों की पकड़-धकड़ होती है, लेकिन कुछ दिनों के बाद फिर सब कुछ पहले जैसा चलने लगता है. अभी हाल में सिंध सूबे के शिकारपुर के इमामबाड़े में हुए एक बम धमाके में 57 लोगों की जानें चली गईं. इससे पहले पेशावर के एक आर्मी स्कूल पर हमला हुआ और 132 बच्चों समेत 142 लोगों की जानें चली गईं. ये दो बड़ी घटनाएं बिल्कुल ताज़ा हैं. वैसे ऐसी अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं.
अब सवाल यह पैदा होता है कि आख़िर पाकिस्तान सरकार ऐसी घटनाओं पर रोक क्यों नहीं लगा पाती? आख़िर ज़र्ब-ए-अज़ब और खै़बर-1 जैसे ऑपरेशन के बाद भी आतंकवाद ख़त्म क्यों नहीं होता? इन सवालों का जवाब तलाश करने के लिए हमें पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य का जायज़ा लेना होगा. पाकिस्तान की स्थापना के समय से ही एक ऐसा वर्ग मौजूद है, जो धार्मिक कट्टरता पर कायम है. इस वर्ग को विशेष रूप से सिंध सूबे और वजीरिस्तान में फलने-फूलने का अवसर मिला. यह एक कबायली क्षेत्र है. कबायली सरकार के किसी भी ऐसे क़ानून को नहीं मानते, जो उनकी खानदानी परंपरा के विरुद्ध हो. यही वजह है कि सरकार की ओर से कई क़दम उठाए गए, कई ऑपरेशन हुए, लेकिन नतीजे अच्छे नहीं निकले. भौगोलिक एवं पारंपरिक रूप से यह क्षेत्र कट्टरपंथियों के लिए बहुत प्रभावशाली-लाभकारी साबित हुआ. धार्मिक कट्टरपंथियों ने इस क्षेत्र को अपनी पनाहगाह बनाया. 2007-08 में सिपाहे सहाबा ने इसी क्षेत्र के सेखर में अपना ज़बरदस्त नेटवर्क फैलाया था. दूसरी ओर तालिबानियों ने ब्लूचिस्तान और दक्षिणी पंजाब से सटे क्षेत्रों में अपनी जड़ें मज़बूत कीं. हक्कानी नेटवर्क ने यहां से धार्मिक हिंसा को हवा देने के लिए मैदान तैयार किया. यह क्षेत्र हिंसा की ज़मीन तैयार करने के लिए उपजाऊ रहा है.
पाकिस्तान सरकार की ग़लती यह है कि उसने कभी इस बात पर गंभीरता से विचार नहीं किया कि कट्टरपंथियों को क़बायलियों की ओर से सहयोग मिलने का असल कारण क्या है. आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर इस क्षेत्र में बेरोज़गारी, व्यवसायिक अवसरों एवं मूलभूत सुविधाओं, जैसे शिक्षा, बिजली-पानी का अभाव आदि दूर करने के लिए गंभीर कोशिश नहीं की गई. इसका अंजाम यह हुआ कि नौजवान तेज़ी से इन कट्टरपंथी जमाअतों में शामिल होते चले गए. जब उनकी ताकत बहुत बढ़ गई और पानी सिर से ऊपर बहने लगा, तो सरकार ने उन्हें कुचलने की कोशिश की. ज़र्ब-ए-अज़ब और खै़बर-1 ऑपरेशन के नाम पर उत्तरी वज़ीरिस्तान में ज़बरदस्त सैन्य कार्यवाही हुई. वज़ीरिस्तान के मशहूर क्षेत्रों, जैसे मीर अली, मीर निशाह, दत्ता खैल, बोया एवं वानावरदीगान आदि में बड़े पैमाने पर ऑपरेशन हुए. उक्त ऑपरेशनों के चलते कुछ आतंकवादी और जेहादी संगठनों के लोग गिरफ्तार किए गए या मारे गए, लेकिन जो मज़बूत व प्रभावशाली थे, जैसे हक्क़ानी नेटवर्क आदि, वे सब अफगानिस्तान में स्थानांतरित हो गए. परेशान वे हुए, जो आम आदमी थे. उन्हें बेघर होकर दूसरे क्षेत्रों में पनाह लेनी पड़ी.
उत्तरी वज़ीरिस्तान से लगभग तीन लाख लोग पलायन करके पाकिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में खुले आसमान के नीचे ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं. वे अपना घर-बार छोड़कर गए हैं. उन्हें दोबारा आबाद करने के लिए 70 करोड़ डॉलर की ज़रूरत होगी, जो पाकिस्तान के लिए एक बड़ी धनराशि है. ज़ाहिर है, जो लोग पाकिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में बिखरे हुए हैं, उन्हें रोज़गार चाहिए. अगर रोज़गार न मिला, तो नौजवान हिंसा का रास्ता अपना सकते हैं. पाकिस्तान के लिए यह एक गंभीर समस्या है. इन तमाम परिस्थितियों को जन्म देने के पीछे पाकिस्तान सरकार की दो मूल भूलें हैं. पहली यह कि वज़ीरिस्तान की रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर कभी ध्यान नहीं दिया गया, जिसके चलते वहां के नौजवान आसानी से भटक गए और कट्टपंथी संगठनों से जुड़ते चले गए. दूसरी ग़लती यह कि सरकार ने धर्म के नाम पर कट्टरपंथी संगठनों को नज़रअंदाज़ कर दिया, जिसके चलते उक्त संगठन इस क्षेत्र के नौजवानों को गुमराह करने में कामयाब हो गए.
दिलचस्प बात यह है कि कट्टरपंथी संगठनों में भी दो समूह थे. एक समूह वह था, जो पाकिस्तान के अंदर तो कुछ नहीं करता था, लेकिन धर्म के नाम पर अफगानिस्तान, कश्मीर और भारत के विभिन्न हिस्सों में अपनी गतिविधियां अंजाम देता था. ऐसे लोगों में हाफिज़ सईद और लखवी आदि का नाम लिया जा सकता है. इस समूह को पाकिस्तान सरकार में उच्च पदों पर बैठी शख्सियतों द्वारा संरक्षण-समर्थन दिया जाता था. दरअसल, सईद और लखवी जैसे लोग या समूह दूसरे देशों में कुछ भी करते हैं, लेकिन पाकिस्तान को कोई नुक़सान नहीं पहुंचाते. लिहाज़ा, सरताज अज़ीज़ और परवेज़ मुशर्रफ़ जैसे क़द्दावर रहनुमा उनके हक़ में बयान दे चुके हैं. जो दूसरा समूह था, वह देश के अंदर हिंसा को बढ़ावा दे रहा था. उस समूह में सिपाहे सहाबा आदि शामिल थे. उस समूह ने शुरुआत में सिंध में कुछ जनहित के कार्य किए, जिसके चलते नौजवानों की एक बड़ी संख्या उससे जुड़ गई. जब उसकी ताक़त बढ़ गई, तो उसने धर्म के नाम पर पाकिस्तान के अंदर शिया और कादियानियों के विरुद्ध गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया. उनकी इबादतगाहों और इमामबाड़ों पर हमले किए. पाकिस्तान में मस्जिदों और इमामबाड़ों पर वर्ष 2014 में पांच बड़े हमले हुए, जिनमें 12 लोग मारे गए और 65 घायल हुए. वर्ष 2015 के पहले महीने में ही दो बड़े हमले हो गए. पहला हमला नौ जनवरी को रावलपिंडी के इमामबाड़े में हुआ, जिसमें आठ लोग मारे गए और 25 घायल हुए. फिर जनवरी के अंतिम सप्ताह में शिकारपुर के एक शिया इमामबाड़े पर हमला हुआ, जिसमें लगभग 57 लोग मारे गए. हालांकि, अब सिपाहे सहाबा नामक संगठन कमज़ोर पड़ चुका है और वह ऐसे हमलों की ज़िम्मेदारी भी नहीं लेता, लेकिन उसने जिस मानसिकता की बुनियाद डाल दी है, वह अपना काम जारी रखे हुए है और धर्म के नाम पर दूसरे समुदायों को निशाना बनाया जा रहा है. जाहिर है, हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है. जब शिया समुदाय की इबादतगाहों पर हमले होते हैं, तो जवाब में सुन्नी इबादतगाहों पर भी हमले होते हैं. और, इस सबके बीच पाकिस्तान गृहयुद्ध की ओर लगातार बढ़ता जा रहा है. वज़ीरिस्तान के जो लाखों लोग इधर-उधर पनाह लिए हुए हैं, वे सब कबायली हैं और अपनी खानदानी परंपराओं के मुक़ाबले में किसी नियम-क़ानून को नहीं मानते. वे धार्मिक मामले में भी बहुत कट्टर होते हैं. लिहाज़ा, पाकिस्तान के लिए वे सब अलग एक ख़तरा बने हुए हैं.
ऐसे में इस आशंका को ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान एक तरफ़ धार्मिक हिंसा और दूसरी तरफ़ वज़ीरिस्तान के दबाव में है और एक बार फिर दो हिस्सों में बंट सकता है. वज़ीरिस्तान उसी तरह स्वयं को पाकिस्तान से अलग होने का दबाव बनाना शुरू कर सकता है, जिस तरह बांग्लादेश ने धार्मिक बुनियाद पर स्वयं को अलग कर लिया था. अगर किसी देश में जनता का रुझान केंद्रीय विचारधारा के विरुद्ध दिशा में हो, तो वह देश विभाजन के ख़तरे में पड़ जाता है. यह स्थिति पाकिस्तान में चरम पर है. सरकार देश में लोकतंत्र की बहाली और सबके लिए समान अधिकारों का दावा करती है, धार्मिक भेदभाव को ख़ारिज करती है, लेकिन व्यवहारिक दुनिया में जनता धार्मिक भेदभाव में इस हद तक आगे बढ़ चुकी है कि अगर एक मसलक पर आफत आती है, तो दूसरी उस ओर ध्यान नहीं देती. इसकी मिसाल शिकारपुर में देखी गई, जहां एक धार्मिक स्थल पर हुए हमले में 57 लोग मारे गए, लेकिन अफ़सोस कि वहां के चैनलों और अख़बारों में इस घटना को कोई विशेष कवरेज नहीं दी गई. निश्‍चित तौर पर यह निहायत घटिया सोच है. यह सोच सवाल खड़ा करती है कि क्या पाकिस्तान की जनता इस हद तक बंट चुकी है कि उसके लिए दूसरी मसलक वालों के खून की कोई अहमियत नहीं है. अगर वाकई यही स्थिति है, तो मतलब साफ़ है कि देश गृहयुद्ध और विभाजन की ओर तेज़ी से बढ़ता जा रहा है.

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