चैत्र और बैसाख के महीने में अमूमन तेज़ पछुआ हवाएं चलती हैं. इन हवाओं की रफ्तार से किसानों की खुशी का का़फी गहरा रिश्ता है. हालांकि, पिछले दिनों उत्तर भारत के कई राज्यों में पुरवा हवाओं के साथ तेज़ बारिश और ओलावृष्टि ने किसानों को निराश कर दिया. भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रबी की फसल तैयार होने पर घरों में मांगलिक कार्य होते हैं, लेकिन इस बार उन करोड़ों किसानों की आंखों में आंसू हैं और जेब खाली है, जिन्होंने खेतों में दिन-रात मेहनत कर बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद की थी. बेमौसम बारिश के चलते उन बटाईदार किसानों को अब यह चिंता सता रही है कि वे ज़मीन मालिक को मनठीका या नगदी कहां से देंगे. केंद्र सरकार ने फौरी तौर पर भले ही किसानों के लिए राहत का ऐलान किया हो, लेकिन इसका फायदा उन किसानों को मिलेगा, जिनके पास भू-स्वामित्व का दस्तावेज़ है. पेश है, देश में बटाई पर खेती करने वाले मूल किसानों की समस्याओं पर चौथी दुनिया की यह ख़ास रिपोर्ट…

kisanमार्च-अप्रैल का महीना देश के करोड़ों किसानों के लिए कहर बनकर टूटा. खेतों में खड़ी फसलें बेमौसम बारिश की वजह से तबाह हो गईं. अपनी महीनों की मेहनत बेकार जाते देख देश सैकड़ों किसानों ने आत्महत्या भी कर ली. बारिश, ओलावृष्टि और तेज़ हवाओं ने उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों में किसानों की रबी की फसलों को का़फी नुक़सान पहुंचाया. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पूरे देश में लाखों हेक्टेयर खड़ी फसल बर्बाद हो गई. यह जानकारी केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने राज्यसभा में दी. उनके मुताबिक़, 27 लाख हेक्टेयर फसल का नुक़सान अकेले उत्तर प्रदेश में हुआ है. इसी के मद्देनज़र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फसलों को हुए नुक़सान से प्रभावित किसानों को राहत पहुंचाने के लिए मुआवज़ा राशि में 50 ़फीसद इजा़फा करने का ऐलान किया. इसके अलावा उन्होंने मुआवज़े के मानदंडों में भी बदलाव करने का निर्णय किया है. पहले जहां 50 फीसद फसल के नुक़सान होने पर ही कोई किसान मुआवज़े का हक़दार होता था, वहीं अब 33 फीसद फसल के नुक़सान पर भी उसे मुआवज़ा दिया जाएगा. किसानों पर आई इस विपदा के बाद केंद्र सरकार ने भले ही उनके लिए मुआवज़े का ऐलान किया हो, लेकिन मुआवज़े के नाम पर किसानों के साथ किस तरह भेदभाव किया जाता है, यह जानना बेहद ज़रूरी है.
बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि और आंधी से तबाह होने वाली फसलों के लिए सरकारें मुआवज़े का ऐलान करती हैं, लेकिन इसका लाभ उन किसानों को मिलता है, जिनके पास भू-स्वामित्व सिद्ध करने संबंधी दस्तावेज़ होते हैं. एक अध्ययन के मुताबिक़, जिन लोगों के पास ख़ुद की ज़मीन है, उनमें से ज़्यादातर लोग स्वयं खेती नहीं करते हैं. वे अपने खेत बटाई, अधबटाई और मनठीका (मनहुंडा) पर लगा देते हैं. बटाई पर अपनी ज़मीन देने वाले किसानों को कुल कृषि लागत का आधा हिस्सा देना होता है, जबकि मनठीका (मनहुंडा) पर अपनी ज़मीन देने वाले भू-स्वामियों का एक रुपया भी ख़र्च नहीं होता है. ऐसे भू-स्वामी निजी व्यस्तताओं, शहरों में प्रवास और खेती में अरुचि की वजह से अपनी ज़मीनें
सालाना 15-20 हज़ार रुपये या 10 से 15 मन प्रति बीघा अनाज पर स्थानीय छोटे या भूमिहीन किसानों को दे देते हैं. वह किसान अपने पूरे परिवार के साथ उन खेतों में साल भर कड़ी मेहनत करता है, अपनी पूंजी लगाकर अनाज पैदा करता है और अपने परिवार का भरण-पोषण करता है. दुर्भाग्यवश, अगर उसकी ़फसल बाढ़, सूखा और ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं की वजह से नष्ट हो जाती है, तो ऐसे किसानों की हालत का़फी दयनीय हो जाती है. फसलों के तबाह होने पर केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से किसानों को मिलने वाली राहत योजनाओं का सर्वाधिक लाभ भू-स्वामियों को मिलता है, न कि बटाईदार किसानों और खेतिहर मज़दूरों को. बैंकों से मिलने वाले केसीसी ऋण का लाभ भी बटाई और मनठीका पर खेती करने वाले किसानों को नहीं मिलता. बटाईदार किसानों की यह समस्या देशव्यापी है. इसे लेकर देश में आंदोलन भी होते हैं, लेकिन सरकार किसानों की इस मांग के प्रति गंभीर नहीं दिखती है. इसका एक बड़ा कारण है, देश में किसान राजनीति का लगातार कमज़ोर होना. देश की सभी राजनीतिक पार्टियां किसानों की ताक़त से वाक़िफ हैं, लेकिन अ़फसोस की बात यह है कि ख़ुद किसानों को अपनी शक्ति का एहसास नहीं है, उनमें एकजुटता का अभाव है, जिसका फायदा राजनीतिक दल उठाते रहे हैं. पिछले महीने चौथी दुनिया का यह संवाददाता बिहार के खगड़िया ज़िले में था.

केंद्रीय कृषि एवं सहकारिता मंत्रालय से सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत देश के क़र्ज़दार किसानों के बाबत मांगी गई एक जानकारी के विषय में मंत्रालय ने जवाब दिया कि वर्ष 2014 तक देश के 11.69 करोड़ किसानों ने 6,44000 करोड़ रुपये का क़र्ज़ लिया. वर्ष 2009-10 में किसानों पर 3,25000 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था, जो वर्ष 2012 तक 5,90532 करोड़ रुपये तक पहुंच गया. यानी तीन वर्षों के भीतर ही किसान दो गुने क़र्ज़दार हो गए. सूचना के अधिकार के तहत मांगी जानकारी के अनुसार, देश में सर्वाधिक क़र्ज़दार किसानों की संख्या आंध्र प्रदेश में है और किसानों की आत्महत्या के मामले में भी यह पहले स्थान पर है. दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र है, यहां किसान के्रडिट कार्ड (केसीसी) धारक किसानों की संख्या 87,09348 है. कर्नाटक में किसान के्रडिट कार्ड (केसीसी) धारक किसानों की कुल संख्या 57,11916 है.

उस समय बिहार में सरकारी स्तर पर धान ख़रीद हो रही थी. जिन किसानों के पास भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ थे, उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान बेचने में कोई विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा. वहीं दूसरी ओर नगदी बटाई, अधबटाई और मनी बटाई (मनठीका) पर खेती करने वाले किसानों को धान बेचने में का़फी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. विभागीय निर्देशों के मुताबिक़, सरकारी धान क्रय केंद्रों पर उन्हीं किसानों का धान ख़रीदने का नियम है, जिनके पास मालगुजारी (लगान) की अद्यतन रसीद हो. खगड़िया ज़िले के गोगरी प्रखंड अंतर्गत राटन पंचायत के पैक्स अध्यक्ष फणिभूषण यादव ने बटाई पर खेती करने वाले किसानों की इस समस्या को गंभीर बताते हुए सरकार से उनके लिए विशेष प्रावधान करने की मांग की. चौथी दुनिया के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि ज़िले में बेमौसम बारिश की वजह से फसलों को का़फी नुक़सान पहुंचा है. लिहाज़ा सरकार को चाहिए कि वह बटाईदार किसानों के लिए भी राहत की घोषणा करे. भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा के नेता सह सांसद प्रतिनिधि नीतीश कुमार सिंह ने किसानों को शीघ्र राहत पहुंचाने की मांग सरकार से की. इसके अलावा, उन्होंने पांच वर्षों तक मालगुजारी (लगान) मा़फ करने की मांग ज़िला प्रशासन से की.
राटन गांव के 36 वर्षीय किसान सुजान सिंह की मानें, तो केंद्र और राज्य सरकारों के लिए किसान महज़ एक चुनावी मुद्दा है. सरकार के पास किसानों की भलाई के लिए कोई दीर्घकालिक उपाय नहीं है. बेमौसम बारिश से हुए फसलों को नुक़सान के बारे में उन्होंने कहा कि सरकार स़िर्फ फसलों की क्षति का जायजा ले रही है, लेकिन देश के अंतिम किसान तक उसकी राहत का फायदा कब पहुंचेगा, यह कोई नहीं बता सकता. किसान रामू यादव ने निराशा ज़ाहिर करते हुए कहा कि खगड़िया ज़िले में मक्के की सर्वाधिक खेती होती है. पिछले साल मक्के की क़ीमत कम रहने की वजह से किसानों को बाज़ार की मार झेलनी पड़ी. इसलिए किसानों ने का़फी उम्मीद के साथ गेहूं की खेती की, लेकिन इस बार उन्हें प्रकृति की मार झेलनी पड़ी. नतीजतन, ज़िले के किसान आज दोराहे पर खड़े हैं.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य सह अखिल भारतीय खेत और ग्रामीण मज़दूर सभा के राष्ट्रीय महासचिव धीरेंद्र झा ने चौथी दुनिया से बातचीत करते हुए बताया कि बिहार में क़रीब 70 फीसद किसान नगदी बटाई, मन बटाई और अधबटाई पर खेती करते हैं. ऐसे किसानों को प्राकृतिक आपदाओं की वजह से नष्ट हुई फसलों पर कोई मुआवज़ा नहीं मिलता, क्योंकि उनके पास ख़ुद की ज़मीन नहीं है. यह समस्या स़िर्फ बिहार के किसानों की नहीं है, बल्कि देश के करोड़ों किसानों को इससे दो-चार होना पड़ता है. उनके अनुसार, केसीसी ऋण भू-स्वामियों के अलावा, बटाईदारों को भी मिलना चाहिए. हालांकि, नाबार्ड की ओर से बटाई पर खेती करने वाले किसानों को अधिकतम 50 हज़ार रुपये केसीसी ऋण देने का प्रावधान किया गया है, लेकिन इसकी प्रगति का़फी धीमी है. ऐसे में किसानों को स्थानीय महाजनों से ऊंची ब्याज़ दर पर क़र्ज़ लेना पड़ता है. बेमौसम बारिश और उससे फसलों को हुए नुक़सान के बारे में उन्होंने कहा कि बिहार में किसान आत्महत्या की घटनाएं तो ़िफलहाल नहीं हुई हैं, लेकिन राज्य सरकार की ओर से इस दिशा में ठोस पहल नहीं गई, तो बिहार भी किसान आत्महत्या का केंद्र बन सकता है.
बारिश और आंधी की वजह से रबी फसलों को हुए नुक़सान के बारे में खगड़िया के ज़िलाधिकारी राजीव रौशन ने चौथी दुनिया से ख़ास बातचीत में बताया कि ज़िले के सभी प्रखंडों में गेहूं, मक्का, दलहन और आम की फसलों को हुए नुक़सान का आकलन कर उसकी रिपोर्ट सरकार के पास भेज दी गई है. उनके अनुसार, ज़िले में गेहूं और मक्का की 45 फीसद फसल बर्बाद हुई है. किसानों को राहत मुहैया कराने के बारे में उन्होंने कहा कि राज्य सरकार और ज़िला प्रशासन किसानों को हरसंभव मदद पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध है. कृषि ऋण मा़फ करने के सवाल पर उन्होंने कहा कि क़र्ज़ मा़फी का फैसला अंतत: सरकार को करना है, लेकिन ज़िले के किसानों पर बैंकों द्वारा ऋण वसूली के लिए अनावश्यक दबाव न बनाया जाए, इसके लिए प्रयास किए जा रहे हैं.


फसल बीमा को लेकर किसान जागरूक नहीं
भारत जैसे विशाल देश में हर साल किसी न किसी तरह की प्राकृतिक विपदाएं आती रहती हैं, जिनसे फसलों को का़फी नुक़सान होता है. बीमा एक ऐसी योजना है, जिससे किसानों को प्राकृतिक आपदाओं के समय राहत मिल सकती है. इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि फसल बीमा के प्रति किसानों में जागरूकता की का़फी कमी है. एसोचैम और स्कायमेट के एक अध्ययन के अनुसार, देश भर में 20 फीसद से भी कम किसान बीमित हैं. नतीजतन, मौसम की अनिश्चितताओं की वजह से उन्हें का़फी नुक़सान झेलना पड़ता है. हैरानी की बात यह है कि देश में क़रीब 80 फीसद किसानों को फसल बीमा के बारे में कोई जानकारी नहीं है. इस अध्ययन में कहा गया है कि ग़ैर-बीमित किसानों में से 46 फीसद तो ऐसे किसान हैं, जिन्हें फसल बीमा के बारे में जानकारी है, लेकिन उनकी रुचि इसमें नहीं है. 24 फीसद किसानों का कहना है कि यह सुविधा उन्हें उपलब्ध नहीं है. 11 फीसद किसानों का कहना है कि वे समय पर बीमा के प्रीमियम का भुगतान नहीं कर सकते, इसलिए उनकी दिलचस्पी बीमा कराने में नहीं है.


इन बिंदुओं पर ग़ौर करे सरकार

  • बेमौसम बारिश से तबाह हुई फसलों के लिए 50,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से मुआवज़ा दिया जाए.
  • गेहूं के समर्थन मूल्य पर प्रति क्ंिवटल अतिरिक्त बोनस दिया जाए.
  • 50 फीसद फसल बर्बाद होने पर ही मुआवज़ा देने का प्रावधान ख़त्म करते हुए, नई मुआवज़ा नीति घोषित की जाए.
  • बटाईदार किसानों के लिए सरकार विशेष राहत पैकेज का ऐलान करे.
  • फसल की बर्बादी के कारण आत्महत्या करने वाले किसानों के परिजनों को बीस लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी जाए.
  • खेतों का सर्वे कर फसलों के नुक़सान का आकलन किया जाए.
  • आत्महत्या करने वाले बटाईदार किसानों के परिजनों को जोत भूमि की गारंटी दी जाए.
  • तबाह हुई नगदी फसलों के नुक़सान की भरपाई की जाए.
  • किसानों का एक साल का बिजली का बिल मा़फ किया जाए.
  • पांच वर्ष तक मालगुज़ारी (लगान) की वसूली न हो.
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