प्रधानमंत्री के रूप में अपने 8 महीने से भी कम समय के कार्यकाल में चंद्रशेखर ने नेतृत्व क्षमता और दूरदर्शिता की जो छाप छोड़ी, उसे हमेशा याद रखा जाएगा. चाहे बाबरी मस्जिद विवाद हो, कश्मीर मसला या पूर्वोत्तर की समस्याएं, चंद्रशेखर ने तमाम विवादित मुद्दों को स्पष्ट सियासी रणनीति के जरिए सुलझाने की कोशिश की. वे न सिर्फ एक लोकप्रिय राजनेता थे, बल्कि प्रखर वक्ता, विद्वान लेखक और बेबाक समीक्षक भी थे. उनके सियासी व्यक्तित्व को इस बात से भी समझा जा सकता है कि वे एक ऐसे नेता थे, जो सीधे प्रधानमंत्री बने. प्रधानमंत्री बनने से पहले उन्हें किसी भी मंत्रालय का कोई अनुभव नहीं था.
चन्द्रशेखर का जन्म 1 जुलाई 1927 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में इब्राहिम पट्टी गांव के एक किसान परिवार में हुआ था. वे अपने छात्र जीवन से ही राजनीति की ओर आकर्षित थे. 1950-51 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में मास्टर डिग्री करने के बाद वे समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए. चंद्रशेखर बलिया में जिला प्रजा समाजवादी पार्टी के सचिव चुने गए. इसके बाद 1955-56 में वे उत्तर प्रदेश में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के महासचिव बने.
1962 में वे उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने गए. इसके बाद जनवरी 1965 में चंद्रशेखर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए. 1967 में उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का महासचिव चुना गया. एक संसद सदस्य के रूप में उन्होंने समाज में हाशिए पर पड़े लोगों के लिए मुखरता से आवाज उठाई. इस संदर्भ में जब उन्होंने समाज में उच्च वर्गों के गलत तरीके से बढ़ रहे एकाधिकार का विरोध किया, तो सत्ता में बैठे कई नेताओं से उनके मतभेद भी हुए.
लेकिन इस युवा तुर्क ने हमेशा ही दृढ़ता, साहस एवं ईमानदारी के साथ निहित स्वार्थ के खिलाफ लड़ाई लड़ी. चंद्रशेखर एक राजनेता से इतर पत्रकार भी थे. उन्होंने 1969 में यंग इंडियन नामक साप्ताहिक पत्रिका शुरू की, जो दिल्ली से प्रकाशित होती थी. इस पत्रिका के स्पष्टवादी लेखों के कारण आपातकाल के दौरान इसपर प्रतिबंध लगा दिया गया. हालांकि फरवरी 1989 से पुन: इसका नियमित प्रकाशन शुरू हुआ.
कहा जाता है, जब इंदिरा गांधी ने चंद्रशेखर से पूछा कि आपके जैसे मुखर समाजवादी आखिर कांग्रेस में आने को क्यों तैयार हुए, तो चंद्रशेखर का स्पष्ट जवाब था- मैं कांग्रेस के चाल, चरित्र और चेहरे को बदलने आया हूं. फिर जब इंदिरा गांधी ने पूछा कि अगर ऐसा सम्भव नहीं हुआ तो? इसपर चन्द्रशेखर का जवाब था, फिर मैं कांग्रेस को तोड़ दूंगा. चन्द्रशेखर ने हमेशा ही व्यक्तिगत राजनीति के खिलाफ रहकर वैचारिक एवं सामाजिक परिवर्तन की राजनीति का समर्थन किया. यही कारण भी था कि 1973-75 के दौर में जब कांग्रेस संगठन पर इंदिरा गांधी हावी हो गई थीं, तब चंद्रशेखर जयप्रकाश नारायण के विचारों के करीब आए.
इस वजह से वे जल्द ही कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष का कारण बन गए. ये बात स्पष्ट रूप से तब सामने आ गई, जब कांग्रेस के शीर्ष निकायों, केंद्रीय चुनाव समिति तथा कार्य समिति का सदस्य होने के बावजूद आपातकाल के दौरान चंद्रशेखर को गिरफ्तार किया गया. 25 जून 1975 की रात जब उन्हें गिरफ्तार किया गया, उस समय वे संसद भवन थाने से जयप्रकाश नारायण से मिलकर निकल रहे थे. आपातकाल के दौरान जेल में उन्होंने एक डायरी लिखी थी, जो बाद में मेरी ‘जेल डायरी’ के नाम से प्रकाशित हुई. ‘सामाजिक परिवर्तन की गतिशीलता’ उनके लेखन का एक प्रसिद्ध संकलन है.
आपातकाल के दौरान ही जब चुनाव की घोषणा हुई और जनता पार्टी का विधिवत गठन हुआ, तो रामलीला मैदान में हुई जनता पार्टी नेताओं की सभा में चंद्रशेखर को पार्टी का अध्यक्ष चुना गया. चंद्रशेखर की सियासी स्वीकार्यता को इस बात से समझा जा सकता है कि उनका मोरारजी देसाई से मतभेद था, लेकिन फिर भी अध्यक्ष पद के लिए मोरारजी देसाई ने ही उनके नाम की घोषणा की. 24 मार्च, 1977 को मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी.
उस समय तमाम बड़े नेता सरकार में मंत्री बनने के लिए मशक्कत करते दिखे. चंद्रशेखर को भी मंत्री बनने का प्रस्ताव था, जेपी ने भी उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया. चंद्रशेखर ने प्रस्ताव इसलिए ठुकराया, क्योंकि मोरारजी देसाई से उनका मतभेद था और वे ऐसा मानते थे कि कैबिनेट प्रणाली में प्रधानमंत्री से मतभेद रह कर मंत्रिमंडल में शामिल होना उचित नहीं है. ये बात उन्होंने जेपी को भी बताई थी और मोरारजी देसाई को भी.
चंद्रशेखर भले ही सरकार में शामिल नहीं हुए, लेकिन पार्टी अध्यक्ष के रूप में जनता पार्टी को लोकतांत्रिक बनाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. खींचतान के बावजूद वे पार्टी में समरसता और समन्वय बनाने की दिशा में काम करते रहे. हालांकि 1979 में ही जनता पार्टी टूट गई थी. चंद्रशेखर 1977 से 1988 तक जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे. इस दौरान उन्होंने उन्होंने भारत यात्रा की. सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से उन्होंने केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा सहित देश के विभिन्न भागों में लगभग पंद्रह भारत यात्रा केंद्रों की स्थापना की.
इसके पीछे उनका उद्देश्य ये था कि देश के पिछड़े इलाकों में लोगों को शिक्षित व जागरूक किया जा सके, ताकि वे जमीनी स्तर पर कार्य कर सकें. इससे पहले 6 जनवरी 1983 से 25 जून 1983 तक चंद्रशेखर ने दक्षिण के कन्याकुमारी से नई दिल्ली में महात्मा गांधी की समाधि राजघाट तक लगभग 4,260 किलोमीटर की पदयात्रा की. इस पदयात्रा के दौरान वे लोगों से मिले एवं उनकी महत्वपूर्ण समस्याओं को समझा.
1984 से 1989 तक की संक्षिप्त अवधि को छोड़ कर 1962 से वे संसद के सदस्य रहे. 1989 में उन्होंने अपने गृह क्षेत्र बलिया और बिहार के महाराजगंज संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा एवं दोनों ही चुनाव जीते. बाद में उन्होंने महाराजगंज की सीट छोड़ दी. विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के गिरने और जनता दल में फूट के बाद कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर 10 नवंबर 1990 को भारत के ग्यारहवें प्रधानमंत्री बने. वे जब प्रधानमंत्री बने उस समय देश मंदिर और मंडल की आग में जल रहा था.
चंद्रशेखर की पहली प्राथमिकता थी, स्थिति सामान्य करना. राम मंदिर विवाद को लेकर जब विश्व हिंदू परिषद के लोगों ने उनके पास संदेश भेजा कि वे मिलना चाहते हैं, तो प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का जवाब था कि तुरंत आ जाइए. लेकिन जब विश्व हिंदू परिषद वाले मिलने नहीं आ सके, तो चंद्रशेखर खुद ही उनकी बैठक में पहुंच गए. वे इस विवाद को सुलझाने के करीब पहुंच गए थे, लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में पर्याप्त समय नहीं मिल पाया.
कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद चंद्रशेखर ने 5 मार्च 1991 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया. राम मंदिर विवाद के अलावा कश्मीर, पंजाब में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद और उत्तर-पूर्व के उग्रवाद को लेकर भी चंद्रशेखर सरकार ने कई निर्णायक कदम उठाए थे. ऐसा कहा जाता है कि अगर चंद्रशेखर की सरकार पूरे एक साल भी चली होती तो इन तमाम विवादित मुद्दों की स्थिति आज कुछ और होती. दिल्ली में 8 जुलाई 2007 को ये ओजस्वी आवाज और दुरदर्शी आंखें हमेशा के लिए बंद हो गईं, लेकिन भारतीय राजनीति में इस युवा तुर्क का योगदान हमेशा याद रखा जाएगा.