बरस दर बरस की मेहनतें, मशक्कतें, कई बार मिन्नतों के भी हाल और कई मौकों पर फाकाकशी के भी हालात… किसी फनकार के हिस्से आने वाली ये चंद चीजें कई बार उसकी मारूफियत, मकबूलियत और मशहूरियत के लबादे में छिपकर रह जाती हैं…। शौहरत की चमक में माज़ी का संघर्ष कहीं दुबक भी जाता है। फन की दाद, खुले दिल से मिली तारीफ और कमियों को इंगित करती स्वथ्य और स्वच्छ आलोचना भी फनकार को ईनाम की तरह मंजूर ए नज़र होता है। सरकारी, समाजी, सांस्कृतिक तौर पर मिलने वाले ऐजाजत उसकी कला को दम देने से ज्यादा, उसके हौसले बुलंद करने का काम करते हैं…। लेकिन अफसोस दर अफसोस, ऐजाजों और सम्मान पर छाई सियासत कई बार असल हकदार तक पहुंच ही नहीं पाती है। आपसी समझौते से लेकर गिव एंड टेक का कल्चर कला को अपने मकड़जाल में तेज़ी से कसता गया और हालात यहां तक पहुंच गए कि जिंदगी के हाशिए पर पहुंच चुके, बुजुर्गियत का लिबास ओढ़ चुके, अपनी पारी खत्मशुद लिखे जाने की राह तकते लोग भी इस आस के सहारे पल गुज़ार रहे हैं कि कभी तो कोई सुबह आएगी, जिसमें उनकी कला और फन का सोना दमक कर अपनी चमक दिखा पाएगा…।
मेहरबानियों का किस्सा उन लोगों के साथ न जुड़े, जिन्हें अपना वकार और वजूद अपने उसूलों के साथ ही कुबूल है, सामाजिक साहित्यिक संस्था हम एक हैं ने एक कदम आगे बढ़ाया, तय किया गया कि उन्हें सम्मानित किया जाए, जिन्हें अपने फन और कला के लिहाज़ से कुछ नहीं मिल पाया, या मिला तो ऐसे कि, अरमान रह गया, बहुत निकले मेरे अरमां, फिर भी कम निकले…! 12 सितंबर को नवाबों, झीलों, खूबसूरत वादियों के शहर भोपाल में ये तहरीर लिखी जा रही है…। अदब, मंच, तालीम, सहाफत, खेल से जुड़े प्रो शकूर, आरिफ अजीज़, राजीव वर्मा, ईनाम उर रहमान, जफर सहबाई उस सम्मान के नजदीक पहुंच रहे हैं, जिसके वे हकदार भी हैं और जिसके लिए वे अपने शहर से उम्मीद भी करते हैं…! सम्मान की इस गंगा में उस शख्सियत को भी नवाजा जाएगा, जिनके नाम से शहर भोपाल का नाम दुनिया में जाना, पहचाना और सराहा जाता है…! दुनिया भर में मकबूल शायर मंजर भोपाली के घर की अलमीरा में सजे बड़े सम्मानों में ये एक बड़ा अवसर कहा जायेगा, जब उनका अपना शहर उनको सिर आंखों पर बैठाने वाला है…!
हम एक हैं का ये अहम कदम उदास चेहरों पर मुस्कान की लकीर खींचे हुए है, उम्मीद की जाना चाहिए कि ये महज पड़ाव है, मंज़िल के रास्ते कई बड़े आयाम और आने वाले हैं। कल फिर आयोजन होंगे, कला, संस्कृति, खेल, शिक्षा, सहाफत को नई दिशा देने वाले, अपने शहर का नाम आगे करने वाले अपने असल सम्मान की मंज़िल तक पहुंचेंगे…!
पुछल्ला
मजबूरियों की दास्तां
कोविड हालात में रुके हुए आयोजन। जमा होने पर सीमित तादाद की सरकारी बंदिशें। देश दुनिया में अपने शहर की पताका फहराने वालों की शान में कसीदे पढ़े जाने का वक्त। लेकिन लोगों के न पहुंच पाने की मजबूरी। कोई मुंबई से आकर इन लम्हों को देखना चाहता है तो किसी ने इंदौर से यहां आने के घुंघरू बांध रखे हैं, लेकिन मजबूरी की दास्तां का पन्ना इन सभी की हसरतों को दूर से ही दर्शन करने की तरफ धकेल रहा है।