‘मैं मरता था जिन होठों पर, वो बिकने लगे हैं नोटों पर..’ पता नहीं ये लोकगीत विधानसभा उपचुनाव में भाजपा के उस आयातित प्रत्याशी ने सुना था नहीं, लेकिन भरी सभा में खुद के ‘बिकने’ की स्वीकारोक्ति और उसका औचित्य जिस अंदाज में उसने साबित किया, उसे इक्कीसवीं सदी के ‘राज’ और ‘नीति’ शास्त्र का सूत्र वाक्य समझना चाहिए। जाने-अनजाने ही सही, उस प्रत्याशी ने देश की वर्तमान पतनशील राजनीति में नैतिकता की तलहटी पर ईमानदार पोंछा लगाने की कोशिश की। उसने एक गंभीर नैतिक अपराध को ‘साध्य’ की दृष्टि से जायज ठहराने का ऐसा सार्वजनिक कबूलनामा पेश किया, जो इन उपचुनावों के बाद भी नजीर की तरह बरसों याद रखा जाएगा।

ध्यान रहे कि इन दिनो मप्र की 28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं। ये थोक उपचुनाव इसलिए हो रहे हैं,क्योंकि कांग्रेस के 25 विधायकों ने आठ माह पूर्व भाजपा का दामन थामकर पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार को गिरा दिया था। ये सभी प्रत्याशी अब भगवा दुपट्टे ओढ़कर मल खिलाने में लगे हैं। इनमें भी 22 प्रत्याशी ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक हैं। इन उपचुनावों में सत्ता पक्ष और मुख्‍य विपक्षी पार्टी की स्थिति एक- सी है। यानी धड़ किसी का तो शरीर किसी का। पार्टी भाजपा है तो प्रत्याशी पूर्व कांग्रेस का है। कुछ जगह दल कांग्रेस तो प्रत्याशी पूर्व भाजपा का। उम्मीदवारों की ऐसी छीना-झपटी और पार्टी बदल ‘गंगा स्नान’ पहले भी होता था, लेकिन अपवादस्वरूप। इस चुनाव में तो दलीय निष्ठाओं के पारंपरिक व्याकरण को ही बदल दिया गया है और नए नियम पार्टी कार्यकर्ताओं को रटवाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। ‘आायातित नेता देवो भव’ का सुभाषित कार्यकर्ताओं ने कितना आत्मसात किया है, यह तो उपचुनाव के नतीजे ही बताएंगे। अलबत्ता इन परिणामों से प्रदेश के कुछ दिग्गज नेताओं का राजनीतिक भविष्य जरूर तय होना है। किसकी नैया पार होगी और कौन सदा के लिए किनारे लग जाएगा, इसका फैसला भी होना है। ये उपचुनाव दो मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंदवी भाजपा और कांग्रेस के लिए इसलिए भी अहम है, क्योंकि इन्हीं के माध्यम से राजनीतिक लंगडी को सत्ता का नैतिक आधार साबित करने की महती चुनौती है। भाजपा ने कांग्रेस में हाशिए पर डाले गए ज्य‍ोतिरादित्य सिंधिया को उनके समर्थकों सहित अपने पाले में खींचा या वो चले आए। तब वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजयसिंह ने आरोप लगाया था कि उनके एक-एक विधायक को 30 से 35 करोड़ में ‘खरीदा’ गया है। हालांकि भाजपा ने यह आरोप सिरे से खारिज करते हुए इसे सिंधिया की कांग्रेस में उपेक्षा का नतीजा बताया था। खुद सिंधिया समर्थकों ने भी ऑन रिकाॅर्ड यही कहा कि वो अपने नेता के साथ हैं और उनका अपमान नहीं सह सकते। इसी क्रम में उन्होने कांग्रेस पार्टी और अपनी विधायकी से भी इस्तीफे दे दिए। अब वही पूर्व विधायक भाजपा के बैनर पर फिर चुनाव जीतने अखाड़े में उतरे हैं। भाजपा को भरोसा है कि उसके मैनेजमेंट के चलते वो उपचुनाव जीत लेगी। पार्टी अनुशासन और आला नेताओं के कहने पर भाजपाई ऊपरी तौर इन ‘अतिथि प्रत्याशियों’ की पालकी उठाते दिख रहे हैं, लेकिन मन में एक कसक और अपराध बोध कायम है। कहने को चुनाव प्रचार शुरू हो चुका है। पार्टी के शीर्ष नेता घुटनों के बल जनता के हाथ जोड़ रहे हैं कि भैया वोट जरूर देना। असल में यह दंडवत उन कार्यकर्ताओं के प्रति ज्यादा है, जो तन से भले साथ हो, मन से कितने हैं, कोई नहीं जानता। कुछ ऐसा ही हाल कांग्रेसी तम्बू में भी है। उनका कोई नेता इस सवाल का छाती ठोक जवाब देने की स्थिति में नहीं है कि जब जनता ने तुम्हें सत्ता सौंपी थी तो उसे सम्हाल क्यों नहीं पाए?

उधर मतदाता इन सब राजनीतिक तमाशो के प्रति उदासीन है और अपने चेहरे के साथ आंखों पर भी मास्क लगाए हुए है। उसे समझ नहीं आ रहा कि सत्ता बचाने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग को तिलांजलि क्यों दी जा रही है? इसी माहौल में भाजपा के एक चुनाव प्रत्याशी सुरेश धाकड़ ने पोहरी में अपनी चुनावी सभा में कबूलनामा पेश किया कि ‘हां, मैं बिका, लेकिन आपकी खातिर बिका।‘ जो वीडियो वायरल हुआ, उसमें धाकड़ यह कहते हुए सुनाई दे रहे हैं कि ‘मैंने अपने आप को बीजेपी को ‘बेच’ दिया है, लेकिन मैं सिंधिया के लिए बिका हूं।‘ बता दें कि धाकड़ सिंधिया खेमे के उन 22 बागी विधायकों में हैं, जिन्होंने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था। कांग्रेस ने इसी दल बदल को ‘बिकना’ कहा था। वो जुमला इन प्रत्याशियों का इस चुनाव में भी पीछा कर रहा है। हालांकि ज्यादातर ने ‘बिकने’ के इस आरोप को नकार दिया लेकिन सुरेश इस मामले में ‘धाकड़’ निकले। उन्होंने सरे आम कहा-‘हां, मैं बिका हूं।‘ खास बात यह है कि सुरेश ने अपनी इस फरोख्त में उस आम जनता को भी भागीदार बना लिया है, जो हतप्रभ भाव से इस राजनीतिक सौदेबाजी का आख्यान सुन और देख रही है। सुरेश ने कहा- ‘मैं आपकी यानी जनता की खातिर बिका हूं।‘ इसका एक अर्थ यह है कि जनता खुद किसी ‍बिकाऊ बंदे की तलाश में थी, जो उसे अब मिल गया है। और पब्लिक चाहे भी तो इस सौदे को रद्द नहीं कर सकती। दूसरे, धाकड़ ने दबी जबान से यह भी कहा कि’ मैं (अपने नेता) सिंधिया के लिए बिका हूं।‘ इसके भी कई राजनीतिक और आर्थिक मायने निकाले जा रहे हैं।

जाहिर है यह कोई आध्यात्मिक सौदा नहीं था, जो आत्मा से परमात्मा के बीच होता है। जिसका साध्य केवल ऐहिक बंधनो से मुक्ति होता है। यह तो सियासत के प्रांगण में सत्ता का सौदा था, एक सत्ता को ठुकराकर सत्ता के नए शीशमहल में निवास के लिए ‘बिक’ जाना था। क्योंकि सत्ता है तो रौब है, दाब है। धंधा है, दुकान है। जनता की सेवा है,मुकद्दर का मेवा है। मुख्य धारा में तैरते रहने का असीम सुख है। सत्ता की डुप्लीकेट चाबी से विचारधारा के उन गोदामो के ताले खोलने की कोशिश है, जिस तरफ फिरकना भी कभी गुनाह था। लेकिन वही अब पवित्र प्र (दक्षिणा) में तब्दील हो गया है। इसलिए भाइयों, हमे वोट जरूर देना। क्योंकि सौदे को स्वीकारने का नैतिक साहस हममे है। राजनीतिक अनैतिकता के स्मार्ट युग में इतनी स्वीकारोक्ति क्या कम नहीं है? कुछ ‘दुष्ट’ लोग इस सौदे की रकम तलाश रहे हैं। लेकिन वो हमेशा घर की गुल्लक की तरह पोशीदा रहेगी। बिकने की कीमत लाखों में थी, करोड़ों में थी या केवल दिल पर हाथ रखकर खाई कसम की शक्ल में थी, यह बताना गैर जरूरी है।

यूं भी आम जनता भोली-भाली है। वह यह हिसाब कभी नहीं पूछेगी कि सौदा कितने में हुआ, किसने, किसको, किसकी गारंटी पर खरीदा? वर्चुअली या फिजीकली? सुरेश धाकड़ की बयानी ने मानो जनता को ही सफाई देने पर विवश कर दिया है कि भाई कम से कम हमे तो माफ करो ! हमने तो कभी किसी से बिकने के लिए नहीं कहा।
इस ‘धाकड़’ बयान के बाद सम्बन्धित प्रत्याशी की पुरानी पार्टी के संगियों ने ही पलटवार किया कि सुरेश का नार्को टेस्ट कराना चाहिए कि उन्होंने खुद को कितने में बेचा है? ये सौदा किसकी निगरानी में हुआ और इस खरीद-फरोख्‍त के लिए पैसा आया कहां से?

वैसे बाजार में माल बेचने के भी एथिक्स होते हैं। वो ये ‍कि बेचे जा रहे माल के बारे में ग्राहक को सही और प्रामाणिक जानकारी देना, ‘आफ्टर सेल सर्विस’ मुहैया कराना, वाजिब दाम में माल बेचना, खरीदार को संतुष्ट करना और माल के बारे में किए गए दावों पर खरा उतरना।

लेकिन राजनीतिक सौदों की नैतिकता अलग होती है। यहां ‘बिकने’ का अर्थ घर बदलना और छोड़े गए घर को ‘खंडहर’ बताने में तनिक भी देरी न करना होता है। यहां दलीय निष्ठाएं कपड़ों की माफिक होती हैं। लिहाजा बिकने का भावार्थ वक्त की नजाकत देख नया दांव खेलने से होता है। बिना उस पब्लिक से पूछे कि जिसने कल किसी और झंडे के साथ आपको जिताया था। यहां नीति-अनीति जैसा कुछ नहीं होता। सत्ता की खातिर बिक जाना भी एक तरह का ‘पराक्रम’ है, जिसको लेकर निगाहें झुका लेना भी पाप है। इस ’राजनीतिक बिक्री’ का जनता कैसा ऑडिट करती है, यह चुनाव नतीजों से पता चलेगा। फिलहाल ‘दि एंड’ फिर एक लोकगीत के साथ- चाहे बिक जाए हरो रूमाल, बैठूंगी मोटर कार में…!

अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक
‘सुबह सवेरे’

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