मनमोहन सिंह की सरकार ने खुद को एक झूठी, भ्रष्ट, जनविरोधी और आज़ाद भारत की सबसे बदनाम सरकार के रूप में स्थापित किया है. यह एक ऐसी सरकार है, जिसने संसद और सुप्रीम कोर्ट में झूठ बोलने का कीर्तिमान स्थापित किया. यह आज़ाद भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है. एक ऐसी सरकार, जिसके कार्यकाल में ऐतिहासिक महंगाई और बेरोज़गारी देखी गई. मनमोहन सिंह की सरकार ऐसी सरकार साबित हुई, जिसके कार्यकाल में किसानों ने सबसे ज़्यादा आत्महत्याएं कीं. पिछले दस सालों में यूपीए सरकार असमर्थ, अविश्‍वसनीय, संवेदनहीन, गैर ज़िम्मेदार, नाकारा और धृष्टतापूर्वक भ्रष्ट सरकार साबित हुई है. इसकी वजह यह है कि यूपीए सरकार के दौरान एक-एक करके कई सारे प्रजातांत्रिक संस्थानों की विश्‍वसनीयता को ही नष्ट कर दिया गया.
prajatantra
मनमोहन सिंह को विश्‍वास है कि वर्तमान समय की मीडिया से ज़्यादा इतिहास उनका उदारपूर्ण विश्‍लेषण करेगा. शायद उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं कि इतिहास बड़ा क्रूर होता है. यह किसी को नहीं छोड़ता. कई लोकप्रिय नेता इतिहास के आईने में खलनायक साबित हुए हैं. वैसे भी यूपीए सरकार के 10 साल के कार्यकाल का चैप्टर कालिख से लिखा जा चुका है. यूपीए सरकार के 10 साल भारत पर इतने भारी पड़ने वाले हैं, जिसका खामियाजा देश आने वाले कई सालों तक भुगतने वाला है. इसकी वजह साफ़ है कि इन दस सालों में भारत के प्रजातंत्र की नींव पर ही कुठाराघात हुआ है. मनमोहन सिंह के दुर्बल नेतृत्व की वजह से देश के कई प्रजातांत्रिक संस्थानों की विश्‍वसनीयता ही सवालों के घेरे में आ गई.
शुरुआत मनमोहन सिंह से ही करते हैं. मनमोहन सिंह कोई लोकप्रिय नेता नहीं, बल्कि एक अफसरशाह हैं, जो एक टेक्निकल प्रधानमंत्री हैं. वर्ना क्या किसी प्रजातंत्र में ऐसा हो सकता है कि एक व्यक्ति, जिसे कभी भी जनता ने नहीं चुना, वह एक प्रजातांत्रिक सरकार का मुखिया बन जाए. संविधान के मुताबिक, देश का प्रधानमंत्री लोकसभा का नेता होता है. समस्या यह है कि मनमोहन सिंह न तो लोकसभा के सदस्य हैं और न लोकसभा के सदस्य उन्हें अपना नेता मानते हैं. मनमोहन सिंह राज्यसभा के सदस्य हैं. वह भी अपने राज्य से नहीं, बल्कि असम से सांसद हैं. राज्यसभा सदस्य बनने के लिए यह ज़रूरी होता है कि वह सदस्य उसी राज्य का निवासी हो. मनमोहन सिंह असम के निवासी नहीं हैं. फिर भी वह असम से कैसे नियुक्त हुए, यह ऐसा सवाल है, जिससे साफ़ पता चलता है कि फर्जी तरीके से उनका असम का पता तैयार किया गया.
2009 में मनमोहन सिंह के सामने एक मौका आया था, जब वह लोकसभा चुनाव लड़ सकते थे और प्रधानमंत्री की गरिमा को न्याय दे सकते थे, लेकिन उन्होंने यह मौका जाने दिया. दुर्भाग्य की बात यह है कि दस सालों तक प्रधानमंत्री रहते हुए भी मनमोहन सिंह खुद को न तो पार्टी का नेता और न ही सरकार का नेता साबित कर सके. पहली बार प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं हुआ, बल्कि सोनिया गांधी ने उन्हें नियुक्त किया. सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नियुक्त कर प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ही ख़त्म कर दिया. पहली बार सरकार चलाने वाली पार्टी ने यह माना कि देश में सत्ता के दो-दो केंद्र हैं और यह एक सफल प्रयोग है. देश के संवैधानिक लोकतंत्र के लिए इससे शर्मनाक बात कोई और नहीं हो सकती. समझने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री का पद कोई नौकरी या करियर नहीं है, यह देश को नेतृत्व देने वाला और लोगों की समस्याओं को हल करने की ज़िम्मेदारी है. मनमोहन सिंह ने इसे अपने प्रोफेशनल करियर का एक पड़ाव माना, जो प्रधानमंत्री नामक संस्था पर कुठाराघात है.
प्रधानमंत्री की गरिमा तो डूबी ही, साथ-साथ कमजोर नेतृत्व की वजह से देश की सर्वोच्च डिसिजन मेकिंग संस्था, यानी यूनियन कैबिनेट भी मजाक का पात्र बनी. पहली बार भारत के इतिहास में कैबिनेट के ़फैसले को सरकार चलाने वाली पार्टी के एक उपाध्यक्ष ने नॉनसेंस कहा और कैबिनेट द्वारा पास किए गए बिल को फाड़कर डस्टबिन में फेंकने को कह दिया. इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री और पूरी कैबिनेट ने उस बिल को कूड़ेदान में फेंक भी दिया. देश की सर्वोच्च डिसिजन मेकिंग संस्था हंसी की पात्र में तब्दील हो गई. चूंकि प्रधानमंत्री को किसी ने नेता नहीं माना, इसलिए कैबिनेट में कई सारे मंत्री अपने हिसाब से काम करने लगे. यही वजह है कि इस सरकार के मंत्रियों ने मनमोहन सिंह की बात नहीं सुनी. पहली बार प्रधानमंत्री की तरफ़ से लगातार पत्र भेजे जाते रहे कि हर मंत्री अपने क्रियाकलापों की जानकारी प्रधानमंत्री को देता रहे. जैसा कि 2जी घोटाले से यह बात सामने आई कि कैबिनेट मंत्री ने आवंटन के दौरान प्रधानमंत्री को दखलअंदाजी करने से मना कर दिया. कई बार मंत्री लोकसभा में झूठ बोलते पकड़े गए. यही वजह है कि देश के लोगों का विश्‍वास मंत्रिमंडल से उठता चला गया.
यूपीए सरकार के रिकॉर्ड तोड़ घोटाले और भ्रष्टाचार लोगों की उदासीनता की मुख्य वजह रही. पहली बार एक कैबिनेट मंत्री ए राजा को 2जी घोटाले में जेल जाना पड़ा. पहली बार कोयले घोटाले में स्वयं प्रधानमंत्री घिर गए. भ्रष्टाचार और घोटालों का पर्दाफाश यूपीए से पहले भी हुआ, लेकिन यूपीए के दौरान यह पहली बार हुआ, जब सरकार घोटालों को छुपाने और गुनहगारों को बचाने के दौरान बेनकाब हो गई. पहली बार प्रधानमंत्री के खासमखास मंत्री अश्‍विनी कुमार सीबीआई की जांच रिपोर्ट बदलते पकड़े गए और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. एक और मंत्री पवन बंसल का भी इस्तीफा हुआ, क्योंकि रेल मंत्रालय में पदोन्नति के लिए उनके रिश्तेदार पैसे ले रहे थे. यूपीए सरकार के दौरान इतने घोटाले हुए कि यह लोगों की नज़रों में आज़ाद भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार बन गई. यह देश का दुर्भाग्य है कि सरकार ने गुनहगारों को सजा दिलाने के बजाय घोटालेबाजों को बचाने की हरसंभव कोशिश की. स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तीन सालों तक 2जी घोटाले में ए राजा को बचाते रहे. लोग कार्रवाई चाह रहे थे, गुनहगारों को जेल में देखना चाहते थे, लेकिन सरकार ने उनका बचाव किया. यूपीए का मंत्रिमंडल भ्रष्टाचार के मामले में बिल्कुल नाकारा साबित हुआ.
भ्रष्टाचार के मामले में जिन लोगों के ख़िलाफ कार्रवाई हुई, वह सुप्रीम कोर्ट की वजह से हुई. ए राजा जेल गए, तो अदालत की वजह से गए, वर्ना यूपीए सरकार ने तो उन्हें क्लीन चिट दे ही दी थी. कोयला घोटाले में जो हो रहा है, वह सरकार की वजह से नहीं, बल्कि अदालत की वजह से हो रहा है. यूपीए सरकार तो फाइलें गायब करने का बहाना बना रही थी. हैरानी की बात यह है कि भ्रष्टाचार के मामले को दबाने के चक्कर में सरकार ने कई संस्थानों को तिलांजलि दे दी. सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि अदालत अब प्रधानमंत्री कार्यालय से हलफनामा मांगती है. यह यूपीए सरकार की विश्‍वसनीयता पर सबसे बड़ा सवाल है. पहले अदालत सरकार का पक्ष मांगती थी और अटॉर्नी जनरल या सरकार की तरफ़ से जो बयान अदालत में दिया जाता था, उसे सच मान लिया जाता था. यूपीए सरकार के दौरान यह पहली बार हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री कार्यालय और सरकार से हलफनामा मांगा. समझने वाली बात यह है कि हलफनामा मांगने का मतलब यह है कि कोर्ट को इनकी बातों पर भरोसा नहीं है या फिर कोर्ट को यह लगता है कि सरकार अपने बयान से पलट सकती है. 2जी घोटाले या दूसरे कई मामलों में अटॉर्नी जनरल अपने बयान से पलटे. सबसे शर्मनाक बात यह कि अटॉर्नी जनरल पर कोई कार्रवाई भी नहीं हुई. अगर कोई सरकार अदालत में झूठ बोले, तो उसकी विश्‍वसनीयता पर कौन भरोसा करेगा. वर्तमान अटॉर्नी जनरल की बात करें, तो उनका नाम खुद ही आरोपों के घेरे में है. सवाल यह उठता है कि जब संवैधानिक संस्थानों की विश्‍वसनीयता ही नहीं रहेगी, तो प्रजातंत्र कैसे बचेगा?
सीबीआई की कहानी तो और भी शर्मनाक है. पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सरकार का पिंजर बंद तोते की संज्ञा दी. कोयला घोटाले की सुनवाई के दौरान जब इस बात का पर्दाफाश हुआ कि एक केंद्रीय मंत्री ने जांच रिपोर्ट को कोर्ट में जमा करने से पहले देखा और उसमें बदलाव किया, तो कोर्ट नाराज हो गई. जब मीडिया ने सीबीआई के चीफ से सवाल पूछा, तो उन्होंने साफ़-साफ़ कहा कि वह केंद्र सरकार के अधीन काम करते हैं. कहने का मतलब यह कि मनमोहन सरकार ने अपने भ्रष्टाचार और घोटालों को छिपाने के लिए सीबीआई का खुल्लमखुल्ला इस्तेमाल किया. यही वजह है कि लोगों की नज़रों में देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई घोटाले छुपाने वाली एजेंसी में तब्दील हो गई. उसकी विश्‍वसनीयता शून्य हो गई. यही नहीं, भ्रष्टाचार पर नज़र रखने वाली सीवीसी को भी मनमोहन सिंह ने सरेआम बदनाम कर दिया. सीवीसी की नियुक्ति में लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष की सहमति ज़रूरी होती है, लेकिन सुषमा स्वराज के विरोध के बावजूद एक ऐसे व्यक्ति को सीवीसी नियुक्त किया गया, जिस पर पहले से ही भ्रष्टाचार के आरोप थे. जब यह मामला सामने आया, तब भी सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही. सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में कूदना पड़ा और जब वहां से नकारात्मक निर्देश आए, तो उन्हें हटना पड़ा. कहने का मतलब यह कि यूपीए सरकार ने प्रजातांत्रिक संस्थानों को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

प्रधानमंत्री की गरिमा तो डूबी ही, साथ-साथ कमज़ोर नेतृत्व की वजह से देश की सर्वोच्च डिसीजन मेकिंग संस्था, यानी यूनियन कैबिनेट भी मज़ाक का पात्र बनी. पहली बार भारत के इतिहास में कैबिनेट के ़फैसले को सरकार चलाने वाली पार्टी के एक उपाध्यक्ष ने नॉनसेंस कहा और कैबिनेट द्वारा पास किए गए बिल को फाड़कर डस्टबिन में फेंकने को कह दिया. इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री और पूरी कैबिनेट ने उस बिल को कूड़ेदान में फेंक भी दिया. देश की सर्वोच्च डिसिजन मेकिंग संस्था हंसी की पात्र में तब्दील हो गई.

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पहली बार देश के थलसेना अध्यक्ष और सरकार के बीच जंग शुरू हुई. यही नहीं, मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पहली बार ऐसा देखा गया कि जब सरकार और सीएजी के बीच मतभेद सामने आए, लेकिन यूपीए के नेताओं ने अपने बयानों से सीएजी नामक संस्था पर ही हमला शुरू कर दिया. समझने वाली बात यह है कि संविधान निर्माताओं ने सीएजी को प्रजातंत्र की एक बहुमूल्य संस्था बनाया था. डॉ. भीमराव अंबेडकर ने सीएजी को सुप्रीम कोर्ट जैसा महत्वपूर्ण बताया. उन्होंने कहा कि सीएजी का दायित्व न्यायपालिका से कहीं ज़्यादा बड़ा है. संविधान के कई प्रावधानों के ज़रिए सीएजी की स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा स्थापित की गई है. ग़ौर करने वाली बात यह है कि नियुक्ति के वक्त सीएजी वैसे ही शपथ लेते हैं, जैसे सुप्रीम कोर्ट के जज लेते हैं. इन दोनों पर संविधान को सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी है, लेकिन मंत्री जब शपथ लेते हैं, तो कहते हैं कि वे संविधान के मुताबिक़ काम करेंगे. डॉ. भीमराव अंबेडकर के बयान की रोशनी में यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सीएजी पर यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी द्वारा जो दलीलें दी गईं, वे सरासर गलत थीं और प्रजातंत्र के लिए ख़तरनाक हैं.
जब देश आज़ाद हुआ था, तब दुनिया के सारे राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना था कि दस सालों के अंदर भारत का विघटन हो जाएगा, क्योंकि भारत की सामजिक परिस्थितियां ऐसी हैं, जिनमें प्रजातंत्र विकसित हो ही नहीं सकता, लेकिन बाबा भीमराव अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में संविधान निर्माताओं ने उन्हें गलत साबित कर दिया. इसकी वजह यह थी कि संविधान निर्माताओं ने प्रजातंत्र के विकास और मजबूती के लिए संस्थानों को स्थापित किया. उनका मानना था कि प्रजातांत्रिक संस्थानों के जरिए देश में लोकतंत्र की स्थापना हो सकती है और उसे सुदृढ़ किया जा सकता है. इन्हीं संस्थानों की वजह से देश में आज भी प्रजातंत्र जिंदा है, लेकिन पिछले दस सालों में यूपीए सरकार ने एक-एक करके हर प्रजातांत्रिक संस्थान पर कुठाराघात किया है. कांग्रेस पार्टी को समझना पड़ेगा कि प्रजातंत्र लोगों के विश्‍वास पर चलता है. अगर देश के संस्थानों की विश्‍वसनीयता ही ख़त्म हो जाएगी, तो देश का प्रजातंत्र कैसे बचेगा? महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी एवं अशिक्षा प्रजातंत्र के लिए ख़तरा तो ज़रूर हैं, लेकिन इनका इलाज आसान है. कोई भी सक्षम नेतृत्व इनसे बड़ी आसानी से निपट सकता है, लेकिन अगर प्रजातांत्रिक संस्थानों की विश्‍वसनीयता चली गई, तो उसका इलाज ढूंढना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. इतिहास में यूपीए सरकार के इन दस सालों को एक ऐसे अध्याय के रूप में शामिल किया जाएगा, जिन्होंने देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था को सबसे ज़्यादा कमजोर किया.
 

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here