भारतीय जनता पार्टी ने जिस व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, उसे लेकर पार्टी ऐसा माहौल बना रही है, जैसे समूचा देश ही उस व्यक्ति को वोट देने जा रहा है. कांग्रेस को इस झांसे में नहीं आना चाहिए. कांग्रेस को उसी राजनीतिक रास्ते पर चलना चाहिए, जिस पर वह चल रही है. हां, यह ज़रूर है कि भ्रष्टाचार अपने चरम पर है, उस पर रोक लगानी चाहिए. पार्टी के नेता गैर ज़िम्मेदाराना बयानबाजी कर रहे हैं, उस पर भी नियंत्रण करना चाहिए. चुनाव के दृष्टिकोण से देखें, तो चुनाव आयोग बखूबी अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहा है, लेकिन राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग, दोनों को आपस में इस मसले पर बात करनी चाहिए कि देश में होने वाले चुनावों को किस तरह गौरवशाली तरीके से संपन्न किया जा सके. निर्वाचक और भी ज़्यादा जागरूक हो रहे हैं और मतदान का प्रतिशत बढ़ रहा है.
संसद सत्र चल रहा है. शुरू में मौजूदा सरकार संसद के इस आख़िरी सत्र को लेकर स्पष्ट नहीं थी. दिसंबर में यूपीए सरकार ने एक निर्णय लिया कि शीतकालीन सत्र का सत्रावसान नहीं किया जाएगा, जिससे राष्ट्रपति को नए सत्र का उद्घाटन नहीं करना पड़ेगा. इस तरह फरवरी में होने वाले सत्र को शीतकालीन सत्र का ही विस्तार मान लिया जाएगा. ऐसा करने की पीछे यूपीए सरकार की सोच क्या है? दरअसल, अगले कुछ महीनों के भीतर लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में बजट सत्र नहीं पेश किया जाएगा, लेकिन इस सत्र के माध्यम से कुछ आर्थिक सुधार और बिल पेश किए जाएंगे, जो कि मौजूदा सरकार और कांग्रेस पार्टी, दोनों की छवि सुधारने में मदद करेंगे. इसके अलावा पार्टी जिस माध्यम से खुद को मजबूत करने की कोशिश में जुटी है, वह हैं राहुल गांधी. राहुल गांधी एकाएक भ्रष्टाचार से जुड़े मसलों के प्रति गंभीर होते हुए यह राय जाहिर कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए कड़े क़ानून बनाने होंगे. लेकिन, मुझे लगता है कि राहुल गांधी ने यह क़दम उठाने में काफी देर कर दी.
जुलाई 2011 में राहुल गांधी अन्ना आंदोलन के माध्यम से उठाई जा रही आवाज को अपना समर्थन देते, तो आज उनका पक्ष मजबूत रहता, क्योंकि राहुल गांधी युवा हैं, उन्होंने कभी खुद कोई मंत्री पद नहीं लिया. ऐसे में, वह आसानी से यह स्टैंड ले सकते थे कि जिस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है, उस पर क़ानून के तहत कार्यवाही होगी. लेकिन दुर्भाग्य से तब वह राजनीतिक क्रियाकलापों में इतने सक्रिय नहीं थे, इसलिए तब उन्होंने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. हालांकि, अब वह ऐसा करना चाहते हैं, लेकिन अब काफी देर हो चुकी है. बावजूद इसके वह जो कुछ कर रहे हैं, उसका स्वागत करना चाहिए. मसलन, दागी नेताओं को लेकर सरकार के अध्यादेश पर अपना कड़ा रुख और जनलोकपाल बिल पास कराने में बड़ी भूमिका और फिर इसी क्रम में उनका यह कहना कि भ्रष्टाचार से लड़ने वाले चार-पांच बिल लोकसभा में लंबित हैं और वह चाहते हैं कि वे बिल पास हों, उनकी प्रतिबद्धता जाहिर करता है.
राहुल जो भी कर रहे या कह रहे हैं, चलिए मान लेते हैं कि ठीक है. उनकी कोशिश बेहतर है, लेकिन अगर देश के हालात उनके पक्ष में नहीं रहते, तो वह कुछ नहीं कर पाएंगे, जैसे कि तेलंगाना प्रकरण के चलते संसद की कार्यवाही बाधित हो रही है. ऐसे में वह इस सत्र में कोई बिल कैसे पास करा पाएंगे?
राहुल जो भी कर रहे या कह रहे हैं, चलिए मान लेते हैं कि ठीक है. उनकी कोशिश बेहतर है, लेकिन अगर देश के हालात उनके पक्ष में नहीं रहते, तो वह कुछ नहीं कर पाएंगे, जैसे कि तेलंगाना प्रकरण के चलते संसद की कार्यवाही बाधित हो रही है. ऐसे में वह इस सत्र में कोई बिल कैसे पास करा पाएंगे? सीमांध्र और तेलंगाना की मांग कर नेता संसद की कार्यवाही बाधित करने की कोशिश कर रहे हैं और करेंगे, जब तक कि उन्हें इसका कोई हल नहीं मिल जाता. और वैसे भी मौजूदा सरकार की स्थितियों पर ग़ौर करें, तो सत्ता के दो केंद्र बने हुए हैं. एक तरफ़ हैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, तो दूसरी तरफ़ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी. अब यह संघर्ष त्रिकोणीय हो गया है, जिसके चलते कई गतिरोध बन रहे हैं. राहुल गांधी जितने आक्रामक दिख रहे हैं, उससे तुलना करते हुए लोग कह रहे हैं कि वह हाल में एक अंग्रेजी चैनल को दिए गए साक्षात्कार में खुद को सही ढंग से पेश नहीं कर पाए. बावजूद इसके, मुझे लगता है कि उनके जवाब तर्कसंगत थे, हां, यह ज़रूर है कि युवाओं को और अधिक व्यवहारिक होना चाहिए. तर्कसंगत इसलिए, क्योंकि जब उनसे पूछा गया कि क्या आप प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में हैं, तो उन्होंने सही जवाब दिया कि इस देश में राष्ट्रपति प्रणाली नहीं है. जनता जिन सांसदों को चुनती है, वही प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं.
इधर भारतीय जनता पार्टी ने जिस व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, उसे लेकर पार्टी ऐसा माहौल बना रही है, जैसे समूचा देश ही उस व्यक्ति को वोट देने जा रहा है. कांग्रेस को इस झांसे में नहीं आना चाहिए. कांग्रेस को उसी राजनीतिक रास्ते पर चलना चाहिए, जिस पर वह चल रही है. हां, यह ज़रूर है कि भ्रष्टाचार अपने चरम पर है, उस पर रोक लगानी चाहिए. पार्टी के नेता गैर ज़िम्मेदाराना बयानबाजी कर रहे हैं, उस पर भी नियंत्रण करना चाहिए. चुनाव के दृष्टिकोण से देखें, तो चुनाव आयोग बखूबी अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहा है, लेकिन राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग, दोनों को आपस में इस मसले पर बात करनी चाहिए कि देश में होने वाले चुनावों को किस तरह गौरवशाली तरीके से संपन्न किया जा सके. निर्वाचक और भी ज़्यादा जागरूक हो रहे हैं और मतदान का प्रतिशत बढ़ रहा है. बावजूद इसके, देश में बड़े पैमाने पर जाति और मजहब के आधार पर मतदान किया जाता है. इस पर रोक लगाना बेहद ज़रूरी है.
यह मौजूदा लोकसभा का आख़िरी सत्र है और मेरा मानना है कि जिस तरह से आंध्र का मसला सुलग रहा है, उसके चलते इस सत्र की कोई उपादेयता नहीं साबित हो पाएगी. ऐसा इसलिए है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी पहले ही कह चुकी है कि वह आंध्र या किसी भी मुद्दे पर कांग्रेस का समर्थन नहीं करेगी. यह बेहद मूर्खतापूर्ण क़दम है. आंध्र प्रकरण कोई चुनावी मसला नहीं है. यह एक मांग है, जो कि 1948 से ही लंबित है. ऐसे में, इस मसले पर विचार न किया जाए, यह भी संभव नहीं है. वास्तव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार को तभी तेलंगाना का गठन कर देना चाहिए था, जब उसने झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ का गठन किया था. जो हुआ सो हुआ, अब यह गठन हो जाना चाहिए. हां, यह ज़रूर है कि अब यह एक समझौते की तरह होगा, लेकिन चुनावों के बाद आप ऐसा कर सकते हैं. साथ ही सभी पार्टियों को यह सर्वसम्मति दिखानी होगी कि चुनावों के बाद यह गठन हो, भले ही चुनावों के परिणाम कैसे हों और किसी की भी सरकार बने.
एक और मुद्दा, जो कि पिछले तक़रीबन दस वर्षों से लंबित है. दरअसल, स्वर्गीय जस्टिस वर्मा ने किसी संदर्भ में एक निर्णय दिया था कि हिंदुत्व हिंदूवाद नहीं है, इसलिए अगर कोई हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगता है, तो यह नहीं माना जा सकता कि वह धर्म के नाम पर वोट मांग रहा है. निश्चित रूप से यह एक भ्रामक विचार है. अब यह मसला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और एक बड़ी बेंच के सामने विचाराधीन है. सुप्रीम कोर्ट निश्चित तौर पर इस बारे में अपना निर्णय देगा, लेकिन मेरा मानना है कि यह निर्णय चुनावों के पहले ही आना चाहिए. चुनावों के पहले ही सुप्रीम कोर्ट को यह स्पष्ट करना चाहिए कि पीपुल रिप्रजेंटेशन एक्ट के संदर्भ में धर्म का क्या आशय है? भले ही आप हिंदुत्व और हिंदूवाद के बीच एक रेखा खींचें, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि अगर हिंदुत्व के नाम पर वोट मांग रहे हैं, तो आप आरएसएस, भाजपा और हिंदू महासभा या इस विचारधारा वाली दूसरी पार्टियों के लिए वोट मांग रहे हैं. अगर ऐसा करने की अनुमति है, तो मुसलमानों को भी इस आधार पर वोट मांगने की छूट मिलनी चाहिए. ऐसे में समूची व्यवस्था ही ख़तरे में पड़ जाएगी.