यूपीए-दो के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के स्तर पर भी यह सरकार असफल ही रही. हालांकि, इस मामले में यूपीए सरकार का ही सारा दोष नहीं है, क्योंकि वैश्‍विक अर्थव्यवस्था ही संकट के दौर से गुज़र रही है. लेकिन दुर्भाग्य से इन घोटालों और कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के बीच सत्ता के दो केंद्र हो जाने की वजह से पूरा तंत्र ही कुप्रबंधन का शिकार हो गया. उस पर तुर्रा यह कि कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा जैसे मंत्री, जो कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के क़रीबी मंत्रियों में से हैं, वे मीडिया के सामने इस तरह पेश आए जैसे वे उन पर कृपा कर रहे हों, जबकि अगर वे चाहते तो मीडिया के सारे सवालों के जवाब दे सकते थे.
लंबे समय बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश के सामने एक प्रेस क्रॉन्फ्रेंस के माध्यम से अपने विचार रखे. देशवासियों को बड़ी उम्मीदें थीं कि प्रधानमंत्री अपने विचार रखेंगे, जिससे उनकी सोच सामने आएगी, लेकिन जैसा कि मैंने हमेशा कहा कि प्रधानमंत्री हमेशा तयशुदा विचार रखते हैं और वैसा ही उन्होंने किया भी. जो दो अलग बातें उन्होंने कहीं, उनमें से एक बेहतर थी और दूसरी नकारात्मक. अच्छी बात जो उन्होंने कही, और ऐसा उन्होंने सीधे तौर पर पहली बार कहा कि अगर नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो देश के लिए यह स्थिति भयावह होगी. प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि एक मज़बूत प्रधानमंत्री होने का यह मतलब नहीं है कि वह देश निर्दोष नागरिकों को मारने की अनुमति दे. मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री को यह वक्तव्य पहले ही देना चाहिए था, हालांकि थोड़ी देर से ही सही, उन्होंने सही बात कही. उनके वक्तव्य का नकारात्मक पहलू वह था, जब उनसे उनके कार्यकाल की उपलब्धियों और इस कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने जो तर्क दिया, उसकी उम्मीद उनसे नहीं थी. प्रधानमंत्री ने कहा कि ज़्यादातर घोटालों का संबंध यूपीए-एक के समय से है, बावजूद इसके देश की जनता ने यूपीए-दो के पक्ष में मतदान किया.
प्रधानमंत्री शायद यह भूल रहे हैं कि देश की जनता को तब इन सारे प्रकरणों व घोटालों की जानकारी नहीं थी. जनता ने जब अपना समर्थन इस सरकार को दिया, उस समय तक इन सभी घोटालों की परतें खुली नहीं थीं, हक़ीक़त लोगों के सामने नहीं आई थी. हर कोई यही समझ रहा था कि विकास दर अच्छी है, सब कुछ ठीकठाक है. लेकिन यूपीए-दो के दौर में यूपीए-एक के दौर के सारे घोटाले सामने आ गए और अब तक सरकार की जो प्रतिष्ठा बनी हुई थी, वह जाती रही.
इस बहस से कई महत्वपूर्ण बिंदु हमारे सामने आए. पहला तो यही की वास्तव में यूपीए-दो की उपलब्धि क्या रही? दो बातें हैं जिन पर मैं चर्चा करना चाहूंगा. पहली बात तो यह बिल्कुल सत्य है कि सीएजी की जो रिपोर्ट आई, उससे सरकार की छवि इस हद तक अपराधी साबित हुई कि फिर से पहले की प्रतिष्ठा को हासिल नहीं किया जा सकता. फिर भी सरकार इस क्षति को कुछ हद तक तो ठीक कर ही सकती थी. जो ग़ैर-क़ानूनी तरी़के से लाइसेंस हासिल किए गए थे, सरकार को चाहिए था कि वह अपनी पहल पर उन्हें निरस्त कर देती, बजाए इसके कि इस बात का इंतज़ार किया जाता कि सुप्रीम कोर्ट ऐसा करे. सरकार को चाहिए था कि वह कोल ब्लॉक आबंटन को निरस्त कर देती, लेकिन विडंबना तो यह है कि अभी तक ऐसा नहीं हुआ है. स्पष्ट है कि सरकार अपनी तरफ़ से अपनी छवि को बेहतर बनाने के लिए कोई पहल कर ही नहीं रही है.

प्रधानमंत्री ने सीधे तौर पर पहली बार कहा कि अगर नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो देश के लिए यह स्थिति भयावह होगी. प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि एक मज़बूत प्रधानमंत्री होने का यह मतलब नहीं है कि वह देश निर्दोष नागरिकों को मारने की अनुमति दे. मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री को यह वक्तव्य पहले ही देना चाहिए था, हालांकि थोड़ी देर से ही सही, उन्होंने सही बात कही. उनके वक्तव्य का नकारात्मक पहलू वह था, जब उनसे उनके कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार के बारे में पूछा गया.

इससे भी ज़रूरी बात जिसका मैं ज़िक्र करना चाहूंगा कि यूपीए-दो के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के स्तर पर भी यह सरकार असफल ही रही. हालांकि, इस मामले में यूपीए सरकार का ही सारा दोष नहीं है, क्योंकि वैश्‍विक अर्थव्यवस्था ही संकट के दौर से गुज़र रही है. लेकिन दुर्भाग्य से इन घोटालों और कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के बीच सत्ता के दो केंद्र हो जाने की वजह से पूरा तंत्र ही कुप्रबंधन का शिकार हो गया. उस पर तुर्रा यह कि कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा जैसे मंत्री, जो कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के क़रीबी मंत्रियों में से हैं, वे मीडिया के सामने इस तरह पेश आए जैसे वे उन पर कृपा कर रहे हों, जबकि अगर वे चाहते तो मीडिया के सारे सवालों के जवाब दे सकते थे. लेकिन दुर्भाग्य से सत्ता ने उन्हें ताक़त के नशे में चूर कर दिया. पांच वर्ष कम नहीं होते. लेकिन इस सरकार ने इन पांच वर्षों को केवल आपस में लड़ने में ही बिता दिया.
मौजूदा संदर्भों में देखें तो अब मैन्यूफैक्चरिंग आदि को ताक़त देने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इसका असर और इसके परिणाम आने में वक्त लगेगा. यूपीए-दो ने शुरुआत में कई बड़े निर्माण कार्यों की शुरुआत की थी. कई बड़े मैन्यूफैक्चरिंग प्रोग्राम शुरू किए थे. लेकिन अब यह सब कुछ बंद हो गया है. 2011 में इस सरकार ने एक मैन्यूफैक्चरिंग पॉलिसी बनाई, लेकिन तब तक काफ़ी देर चुकी थी, इसके बाद सरकार के पास केवल दो-ढाई वर्ष का ही वक्त बचा था. इसी तरह सड़क मार्ग और बड़े हाइवे के मसले में भी देखा गया कि सड़क मंत्रालय और प्लानिंग कमीशन के चेयरमैन के कुछ सलाहकारों के बीच विवाद दिखा.
एनडीए सरकार के समय में प्रतिदिन 11 किलोमीटर सड़क का निर्माण हो रहा था, जबकि यूपीए-एक और यूपीए-दो दोनों सरकारों का कार्यकाल मिला लें तो भी यह आंकड़ा तीन-चार किलोमीटर से ज्यादा का नहीं ठहरता. यूपीए-दो तो यूपीए-एक से भी बदतर रही. एक अर्थशात्री प्रधानमंत्री और एक योग्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष से यह उम्मीद नहीं थी. इन सबके बावजूद मेरा मानना है कि अगर समग्रता से यूपीए-दो के कार्यकाल का आंकलन किया जाए तो मैं इसे एक और औसत सरकार मानता हूं. यह सरकार बहुत अच्छी भी नहीं रही और बहुत बुरी भी नहीं. यूपीए-एक के दौर में हुए घोटालों की कुछ हद तक क्षतिपूर्ति करने की कोशिश इस सरकार ने की, लेकिन समस्या इतनी बड़ी थी कि पहले की प्रतिष्ठा को हासिल करना मुश्किल रहा.
 
 

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