दिल्ली से तीन वरिष्ठ पत्रकारों का दल कश्मीर की हक़ीक़त समझने और उसे देश के सामने लाने के लिए मध्य सितंबर में कश्मीर दौरे पर गया था. इस दल की अगुवाई चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय कर रहे थे और उनके साथ राजनीतिक विश्‍लेषक अभय दुबे और स्तम्भकार अशोक वानखेड़े थे. इस दल ने तहरीक़-ए-हुर्रियत के नेता सैयद अली शाह गिलानी से मिलने की कोशिश की. लेकिन पुलिस ने इस दल को इसकी अनुमति नहीं दी, जबकि ख़ुद गिलानी ने इस दल को अपने घर पर बातचीत के लिए निमंत्रित किया था. बहरहाल, इस दल ने उनसे कश्मीर यात्रा के दौरान ही फोन पर बातचीत की, जिसे यहां हू-ब-हू प्रकाशित किया जा रहा है.

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संतोष भारतीय : जी, आदाब.

सैयद अली शाह गिलानी :  आदाब, क्या आप ठीक हो?

संतोष भारतीय :  जी, दुआ है सब. हमलोग कश्मीर के हालात को जानने और समझने के लिए यहां आए हैं. हमलोग आपसे बात करना चाहते थे. ये जानना चाहते हैं कि इतने बुरे हालात के बाद भी इतनी असंवेदनशीलता क्यों पैदा हो रही है? आपके पास हम कल आए थे, लेकिन पुलिस ने आने ही नहीं दिया.

सैयद अली शाह गिलानी : पुलिस ने आप लोगों को रोका. हमने आपके बयान देखे और आपके आर्टिकल्स पढ़े, जो बहुत ही रियलिस्टिक हैं. इसके लिए मैं आपका शुक्रिया अदा करता हूं.

संतोष भारतीय : कश्मीर के बारे में बताएं कि यहां क्या हो सकता है? मुल्क के सारे लोग क्या कर सकते हैं? दिल्ली से आए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से क्यों नहीं मिले आप? क्यों गुस्सा हो गए थे आप?

सैयद अली शाह गिलानी : कश्मीर के हल की जो पॉलिसी है, वो हिंदुस्तान के हाथ में है. जबतक वो उसका इस्तेमाल नहीं करेंगे, तबतक यहां सूरते हाल बिगड़ी रहेगी, जो आज आप यहां देख रहे हैं. ये आज की बात नहीं है. 1947 से कश्मीर में यही हो रहा है, यही सिलसिला चल रहा है. 1947 से यहां कत्ल हो रहे हैं, खून बहाया जा रहा है. मकान जलाए जा रहे हैं, अस्मत लूटी जा रही है. ये सब पिछले 70 साल से जारी है. हिंदुस्तान ने जम्मू-कश्मीर के साथ अपने वादे को कभी पूरा करने की कोशिश नहीं की, क्योंकि वो केवल ताक़त की बुनियाद पर यहां अपना राज क़ायम करना चाह रहे हैं. उनकी यहां के लोगों के साथ कोई हमदर्दी और मोहब्बत नहीं है, वो सिर्फ यहां की ज़मीन चाहते हैं और यहां जो कुदरती संसाधन हैं, उस पर अधिकार चाहते हैं, उसे लूटना चाहते हैं. इसके अलावा, उनका कोई मक़सद नहीं है. ऐसी हालत में कश्मीर भारत की एक कॉलोनी बन कर रह गई है. पूरे मुल्क में करीब 30 रियासतें हैं, लेकिन कोई ऐसी रियासत नहीं है, जहां आर्मी का इतना बड़ा ज़मावड़ा हो. ये सिर्फ हमारे कश्मीर में है. यहां लाखों सैनिक हैं और रोज इसमें इज़ाफ़ा हो रहा है. ऐसी हालत में लोग कैसे जीएंगेे? हर जगह सेना लगा दिया गया है. सेना की छावनियों के साथ इंसान कैसे रह सकते हैं? हर दिन ज़ुल्म होता है. इज्ज़तें लूटी जाती हैं. आप देख रहे हैं कि किस तरह से यहां लोगों पर रोज गोलियां चलाई जा रही हैं. 11 हज़ार से ज्यादा लोग घायल हैं और इसमें रोज़ाना इज़ाफ़ा ही हो रहा है. इसमें कहीं कोई कमी होती नज़र नहीं आ रही है. आज के दिन ही देखिए, आज ईद है. आज के दिन कर्फ्यू है. ईद के दिन भी ये हाल रहा, तो आम दिनों में क्या हाल होगा, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. ऐसे में, हिंदुस्तान ताक़त के नशे में है, उसी ताक़त की बुनियाद पर हमारे श्रीनगर पर ज़ुल्म कर रहा है. हमारे पास कुछ नहीं है. न डंडा हमारे पास है, न गोलियां हैं, न बंदूक है और न ही पैलेट गन हमारे पास है. हमारे पास न कोई ऐसा हथियार है, जिससे हम उन पर हमला कर सकें, नुक़सान पहुंचा सकें. हमारे पास ऐसा कुछ नहीं है, जिससे हम उनका मुक़ाबला कर सकें या उन्हें मार सकें. लोगों को रोका जा रहा है आगे बढ़ने से, उस वक्त ये लोग अपनी सुरक्षा के लिए पत्थर उठाते हैं, वरना हमारे पास कोई हथियार नहीं है. हिंदुस्तान जो है, वो पूरे जंगी हथियारों के साथ हमारे जवानों पर यलगार कर रहा है. अब इसका क्या किया जाए? हमारे हाथ में तो कुछ नहीं है. सिर्फ हिंदुस्तान के हाथ में है. अब आप लोग यहां आए, यहां के हालात को ख़ुद अपनी आंखों से देखा और इसे आपने हिंदुस्तान के लोगों तक पहुंचाया, इसके लिए हम आपका एहसान मानते हैं. इसके लिए हम दिल की गहराइयों से आपलोगों का शुक्रिया अदा करते हैं. हिंदुस्तान का मीडिया यहां की तस्वीर को काट-छांट कर पेश कर रहा है. वो असली तस्वीर लोगों तक नहीं पहुंचा रहा है. आपलोग यहां आए, ख़ुद देखा कि क्या सूरते हाल है और फिर ज़िम्मेदारी के साथ इसे लोगों तक पहुंचाया, इसके लिए हम आपके शुक्रगुजार हैं.

संतोष भारतीय : ये हमारा एहसान नहीं, फर्ज है. मैं यह पूछना चाहता हूं कि भारत के जितने भी पॉलिटिकल लीडर्स हैं, इनमें से किसी पर भी आपको भरोसा है कि वे आपलोगों के लिए कुछ सोचता हो या भरोसा बिल्कुल ख़त्म हो गया है?

सैयद अली शाह गिलानी : इसलिए कि जो भी लोग यहां आते हैं, जो भी यहां सूरते हाल पर दुख का इज़हार करते हैं, वो सबसे पहले ये कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है. ये लोग हक़ीक़त को नहीं देखते और समझते. वे हक़ीक़त पसंद रवैया अख्तियार नहीं करते. ओवैसी साहब बहुत तेज तर्रार बोलते हैं. उन्होंने भी कहा कि हां जम्मू कश्मीर में ज्यादतियां हो रही हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर, हिंदुस्तान का इंटीग्रल पार्ट (अभिन्न हिस्सा) है. इसलिए जो भी लोग यहां आते हैं, हमारे साथ हमदर्दी का इज़हार करते हैं, लेकिन साथ ही कहते हैं कि हिंदुस्तान का यहां जो क़ब्ज़ा है, उससे कंप्रोमाइज (समझौता) नहीं किया जा सकता है. ऐसे हाल में, हमारे दुख-दर्द का, उसका सहना, उसका बर्दाश्त करना और हमारा जो असल मसला है, उस पर तवज्जो देने वाला अभी तक हिंदुस्तान में हमारे ध्यान में नहीं आया है. हां, एक ख़ातून हैं, अरुंधति राय और दूसरे हैं गौतम नवलखा वग़ैरह, यही दोनों हैं, जो यहां के लोगों के जो जज्बात हैं, जो डिमांड हैं, 1947 से लेकर आज तक यहां के 6 लाख से ज्यादा लोगों ने जो कुर्बानियां दी हैं, अस्मतें लूटती रही हैं, इसका उनको एहसास है. उनको एहसास है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों को अपना हक़ दिया जाना चाहिए, ताकि वो अपने मुस्तक़बिल (भविष्य) का फैसला कर सकें. हमने ये भी कहा है कि हिंदुस्तान रेफरेंडम कराए और अगर लोग हिंदुस्तान के हक में फैसला करेंगे, तो हम उसका भी एहतराम करेंगे. तब हम हिंदुस्तान को तस्लीम करेंगे. हमें किसी दूसरे मुल्क में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है. किसी दूसरे मुल्क से हमें कोई मुहब्बत नहीं है. हमें दुनिया के सारे इंसानों का इंसानी रिश्ते का एहतराम है. चाहे उसका रंग क्या हो, उसकी ज़ुबान क्या हो, उसका मज़हब क्या हो, उसका पेशा क्या हो, इन सारी चीजों से ऊपर उठकर हम इंसानों का एहतराम करते हैं और हर इंसान के लिए हमारे दिलों में बहुत मोहब्बत है. लेकिन हिंदुस्तान हमारे जज्बातों की कद्र नहीं करता है. ये आज की बात नहीं है. 1947 से लेकर आज तक. 1947 में जब पाकिस्तान बना, तो जो दूरदराजों में मुसलमान रहते थे, उनको कहा गया कि आप जम्मू आएं और हम आपको पाकिस्तान भेज देंगे. तो वहां 6 लाख मुसलमान जमा हो गए, जिनमें 5 लाख मुसलमानों को जिनमें औरतें भी थीं, बच्चे भी थे, ख़ूबसूरत लड़कियां भी थीं, उनको अगवा किया गया और उन्हें शहीद कर दिया गया. और गुज़िश्ता बरसों में एक लाख मुसलमान शहीद हो गए हैं. 6 हज़ार से ज्यादा ख़वातीनों की अस्मत लूटी गई है. 7600 ऐसी क़ब्रें हैं, जिनके बारे में पता ही नहीं है कि किन्हें दफनाया गया है. हज़ारों की तादाद में यहां के मकानात जलाए गए या ब्लास्ट किए गए. आज भी हज़ारों की तादाद में हमारे लोग जेलों में हैं. हमारी पार्टी तहरीक-ए-हुर्रियत के एक नेता हैं, डॉ. ग़ुलाम मोहम्मद बख्श साहब, छह साल गुजार चुके हैं तिहाड़ जेल में. इल्ज़ाम क्या है? इल्ज़ाम यह है कि आपके पास पाकिस्तान से पैसे आते हैं. हिंदुस्तान का जो सबसे बड़ा वकील है, राम जेठमलानी साहब उनके केस की पैरवी करते हैं. उनका कहना है कि यह बिल्कुल बेबुनियाद केस है. छह साल कैसे गुजरे? उनके केस के लिए 125 गवाह खड़े कर दिए गए. 125 में से अबतक सिर्फ 25 ने ही गवाही दी है. यानी उन्हें 15-20 साल जेल में ही सड़ाएंगे और बाद में कहेंगे कि उनका कोई क़सूर नहीं है. यही सूरते हाल है. इसी तरह 18 साल के बाद एक शख्स कोे रिहा किया गया. यहां लाल बाजार में दो युवाओं को 14 साल के बाद रिहा किया गया. इतने सालों बाद ये कह कर कि आपका कोई क़सूर नहीं है. आप अंदाज़ा कीजिए ये ज़ुल्म की इंतिहा है. इस तरह का ज़ुल्म और जब्र कहीं नहीं हो रहा है, जैसा हिंदुस्तान की तरफ से यहां के लोगों पर किया जा रहा है.

अभय दुबे : गिलानी साहब, अभी आपने कहा कि हिंदुस्तान के किसी पॉलिटिकल लीडर पर आपको भरोसा नहीं है. आपके जेहन में ऐसा कोई नाम नहीं आ रहा है, जो कश्मीर की समस्या को हल करने के लिए आगे बढ़ेगा. तो मुझे लगता है कि अगर राजनीतिक नेता इस क़ाबिल नहीं रह गए हैं, तो सिविल सोसायटी के लोगों के जरिए ही कोई पहल क्यों नहीं की जा सकती है? अभी आपने जैसे गौतम नौलखा का नाम लिया. और भी सिविल सोसायटी में बहुत से लोग हैं, जो कश्मीर के मसले पर कोई स्वतंत्र पहल शुरू कर सकते हैं.

सैयद अली शाह गिलानी : तो लेते क्यों नहीं हैं? आप फरमाते हैं, पहल ले सकते हैं, लेकिन वो पहल करते क्यों नहीं हैं.

अभय दुबे : अगर आपलोगों की तरफ से कोई प्रस्ताव जाए तो…

सैयद अली शाह गिलानी : हमारी जो बुनियादी मांग है, वो राइट टू सेल्फ डिटरमिनेशन है, जिसका नेहरू ने सबसे पहले वादा किया था. यहां श्रीनगर आकर उन्होंने ये वादा किया था कि वो अपनी फौज वापस बुलाएंगे और यहां के लोगों को अपनी मुस्तक़बिल का फैसला करने का मौक़ा देंगे. अगस्त 1952, संसद में जाकर आप देख भी सकते हैं रिकॉर्ड को. उन्होंने कहा है कि हमने जम्मू-कश्मीर के लोगों से वादा किया है, पाकिस्तान के लोगों के साथ भी ये वादा है और आलमी बिरादरी के साथ भी है. फिर उन्होंने ये भी कहा कि मैं जबरी शादियों का रवादार नहीं. ये रिकॉर्ड है. और फिर 1948 में ये मामला हिंदुस्तान संयुक्त राष्ट्र में लेकर गया था कि जम्मू-कश्मीर हमारा हिस्सा है, वहां क़बायली वगैरह आ रहे हैं. उन्हें वहां से हटाया जाए और हमें जम्मू-कश्मीर पर नियंत्रण करने का मा़ैका दिया जाए. लेकिन वहां हिंदुस्तान की बातों को तस्लीम नहीं किया गया. वहां पाकिस्तान की बातों को भी देखा गया और फिर कहा गया कि जम्मू-कश्मीर एक डिसप्यूटेड टेरीटरी है और जम्मू-कश्मीर के लोगों को राइट टू सेल्फ डिटरमिनेशन का हक़ दिया जाए. इसके बाद से 18 क़रारदाद को पास किया गया है और जिस पर हिंदुस्तान ने दस्तख़त किए हैं. हमारा यही कहना है कि भाई आपलोगों ने 18 क़रारदाद पर दस्तख़त किए हैं, आप उन पर अमल क्यों नहीं करते हैं? आप जैसा कह रहे हैं कि कोई ऐसा लीडर है, जो हमारे दर्द को समझता है और हमारे साथ हमदर्दी रखता है, लेकिन अबतक तो कोई सामने नहीं आया है.

अशोक वानखेड़े : कोई भी मसला हो, तो उसका हल कहीं न कहीं बातचीत से शुरू होती है. अगर बातचीत नहीं होेगी, तो मामले में आगे कैसे बढ़ा जा सकता है?

सैयद अली शाह गिलानी : मैं यह कहना चाहूंगा कि 150 बार से ज्यादा बातचीत हुई है हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच, दिल्ली और श्रीनगर के बीच. फिर क्यों कोई नतीजा सामने नहीं आया आजतक? इसकी वजह यह है कि हिंदुस्तान कहता है कि बातचीत करेंगे, लेकिन कहता है कि जम्मू-कश्मीर इज एन इंटीग्रल पार्ट ऑफ इंडिया. अब उसके बाद मसले-कश्मीर पर बातचीत की क्या सूरत बनेगी? हमने कहा और लिखा भी है कि जंग के बाद भी मसाइल बातचीत से ही हल होते हैं, लेकिन जब हक़ीक़त को माना जाए. हिंदुस्तान इस बात को तस्लीम करे कि जम्मू-कश्मीर इज ए डिसप्यूटेड टेरीटरी और फिर इस मसले का हल चाहे, तब हम बातचीत करेंगे. हम बातचीत के लिए तैयार हैं.

संतोष भारतीय : आपने हमसे बातचीत की. हम लोग यहां से जाकर इस पूरी बातचीत को देश के सामने रखेंगे.

सैयद अली शाह गिलानी : हमें बहुत ख़ुशी होगी कि अगर आपसे मिलने का मौक़ा मिले और आपलोगों को मुझसे मिलने की इजाजत दी जाए और आप हमसे मिलें. यहां की जो हालत है, उसे आप लोग ख़ुद जांच कर हक़ीक़त पसंद लोगों तक पहुंचाएंगे तो ये आपका जम्मू-कश्मीर के मज़लूम लोगों के लिए बहुत बड़ा योगदान होगा.

संतोष भारतीय : बहुत-बहुत शुक्रिया बातचीत करने के लिए.

सैयद अली शाह गिलानी : शुक्रिया.

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