अब फैसला सुप्रीम कोर्ट को करना है. साठ साल बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. बिना किसी प्रमाण के कोर्ट ने कहा है कि राम का जन्म वहां हुआ है, जहां बीस साल पहले बाबरी मस्जिद के गुम्बद थे. यह आस्था है और इसे अदालत ने प्रमाण के रूप में माना है. अगर जन्म स्थान कोर्ट मानता है तो कहीं उनका महल होगा, कहीं राजा दशरथ का दरबार होगा, कहीं तीनों महारानियों का निवास रहा होगा. कोई इसे कुतर्क कहेगा, पर अदालत अगर ऐसे ही आधार पर फैसला दे तो क्या कहेंगे? इसीलिए आशा करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट बताए कि वास्तविकता क्या है.
हमारे पास मंदिर-मस्जिद जैसे सवालों से बड़े सवाल हैं, बेकारी, भुखमरी, महंगाई, बीमारी, अशिक्षा, विकास और भ्रष्टाचार जैसे सवाल खड़े हैं और हम उनसे नहीं लड़ पा रहे हैं. अगर राजनैतिक दल पहल नहीं करते तो क्यों सामाजिक संगठन पीछे हैं, उन्हें आगे आना चाहिए. वैसे यह बड़े अ़फसोस की बात है कि सौ करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले देश में एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जो देश को सामने रख कोई नई पहल कर सके या जिसके पास जाकर नई पहल करने की बात की जा सके. लोग भी हैं, संगठन भी हैं, लेकिन अपने छोटे स्वार्थों से घिरे हैं.
इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला ऐसा समझदारी भरा फैसला है, जिसने सभी पक्षों को न तो पूरी तरह असंतुष्ट किया और न संतुष्ट. इसने सभी को कुछ न कुछ दिया तथा संकेत दिया कि भारत में सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान साथ रहते आए हैं और रहते रहेंगे. जितना भव्य मंदिर बनेगा, उतनी ही भव्य मस्जिद बनेगी, दोनों की दीवारें पास-पास होंगी. वैसे ही, जैसे अयोध्या में हिंदू-मुसलमान साथ-साथ प्यार से रहते हैं.
सुप्रीम कोर्ट को एक फैसला और करना होगा. इलाहाबाद के इस फैसले को उसे असाधारण और नज़ीर से अलग रखने का आदेश देना होगा, अन्यथा भारत में एक हज़ार के आसपास ऐसे स्थान हैं, जहां म़ुकदमे प्रारंभ हो जाएंगे और इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले को नज़ीर के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा. शरारती दिमाग़ की हमारे यहां कमी नहीं है.
इतिहास की एक ऐसी घटना आपको बताते हैं, जिसे आपके लिए जानना बहुत ज़रूरी है. आज से बीस साल पहले राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का मसला हल हो सकता था, बशर्ते एक महीने चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री और बने रह जाते. चंद्रशेखर जी ने विश्व हिंदू परिषद और बाबरी एक्शन कमेटी से कई बार बात की. विश्व हिंदू परिषद की राजमाता के घर बैठक हो रही थी. चंद्रशेखर वहीं पर चले गए. उनके जाने को उनकी कमज़ोरी समझा गया और कुछ सदस्यों ने तेज़ और ऊंची आवाज़ में कहा कि वे मस्जिद को गिरा देंगे. चंद्रशेखर जी ने सारी बातें सुनीं और उनसे कहा कि आप भारत के प्रधानमंत्री से बातें कर रहे हैं. अगर एक भी आदमी मस्जिद की तऱफ बढ़ा तो मैं सेना को आदेश दूंगा कि वह गोली चला दे. चंद्रशेखर जी ने इतनी सख्त भाषा में कहा कि सभी सदस्य सोच में पड़ गए कि यह आदमी तो बंद कमरे में बात कह रहा है, यह कोरी धमकी नहीं हो सकती. सभी के स्वर बदल गए तथा सबने कहा कि वे शांति से रास्ता निकालने के लिए तैयार हैं.
दूसरी तऱफ उन्होंने एक्शन कमेटी से कहा कि उनके लिए मुश्किल होगा, अगर देश में दंगे हो जाते हैं, क्योंकि विश्व हिंदू परिषद कुछ करने के लिए आमादा जान पड़ती है. उनके पास न इतनी पुलिस है और न सेना, जो बड़े पैमाने पर होने वाले दंगों को नियंत्रित कर सके. एक्शन कमेटी ने भी उन्हें आश्वासन दिया कि वह रास्ता निकालने की कोशिश करेगी. चंद्रशेखर जी ने भैरो सिंह शेखावत जी एवं शरद पवार को बातचीत करने का ज़िम्मा सौंपा. दिल्ली के जोधपुर हाउस में बातों का दौर चला. वातावरण सुखद था. चंद्रशेखर जी के पास सर्वसम्मत हल का मसौदा गया.
सारी ज़मीन मंदिर को देना तय हुआ तथा एक क़ानून बनाना तय हुआ कि देश में जो भी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा एवं गिरजाघर जिस स्थिति में हैं, उसी में रहेंगे. इसकी घोषणा चंद्रशेखर जी करने वाले थे. अब यह शरद पवार जी बता सकते हैं कि क्या हुआ कि घोषणा नहीं हुई और चंद्रशेखर जी की सरकार पांच दिनों के बाद गिर गई.
आज हम पुनः ऐसे ही मोेड़ पर खड़े हैं. भारत की संसद को तत्काल क़ानून पास करना चाहिए कि 1947 में जो मंदिर था, जो मस्जिद थी, जो गिरजाघर या गुरुद्वारा था, यानी जो पूजास्थल जैसा था, वैसा ही रहेगा. यही समझौते का आज भी आधार बन सकता है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की रोशनी में सरकार को, सामाजिक संगठनों को, बुद्धिजीवियों को इसकी पहल करनी चाहिए और संसद को क़ानून बनाना चाहिए.
हमारे पास मंदिर-मस्जिद जैसे सवालों से बड़े सवाल हैं, बेकारी, भुखमरी, महंगाई, बीमारी, अशिक्षा, विकास और भ्रष्टाचार जैसे सवाल खड़े हैं और हम उनसे नहीं लड़ पा रहे हैं. अगर राजनैतिक दल पहल नहीं करते तो क्यों सामाजिक संगठन पीछे हैं, उन्हें आगे आना चाहिए. वैसे यह बड़े अ़फसोस की बात है कि सौ करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले देश में एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जो देश को सामने रख कोई नई पहल कर सके या जिसके पास जाकर नई पहल करने की बात की जा सके. लोग भी हैं, संगठन भी हैं, लेकिन अपने छोटे स्वार्थों से घिरे हैं.
अगर संसद अपनी संकीर्ण दृष्टि और काहिली की वजह से ऐसा क़ानून बनाने में देर करे या टाले तो सुप्रीम कोर्ट यह काम कर सकता है. क़ानून सुप्रीम कोर्ट नहीं बना सकता, पर ऐसा फैसला दे सकता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला अति विशिष्ट फैसला है तथा 15 अगस्त, 1947 के दिन देश में जैसी स्थिति पूजास्थलों की थी, वही बनी रहेगी, उसे अब दोबारा नहीं उठाया जा सकता.
आवश्यक इसलिए है, क्योंकि देश की शांति भंग करने में रुचि रखने वाली देसी और विदेशी ताक़तें चाहेंगी कि भारत में झगड़े होते रहें और लोग बंटे रहें. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का सहारा लेकर आस्था के नाम पर मुसलमान हों या हिंदू, जिनका वह हिस्सा जो देश की शांति में विश्वास नहीं रखता, इसका फायदा न उठा पाएं. इसके लिए पहले संसद और अगर संसद असफल हो जाए तो सर्वोच्च न्यायालय के ऊपर ज़िम्मेदारी आ जाती है. लोकतंत्र के ये दोनों प्रमुख पाए हैं. देखते हैं, कौन कितनी ज़िम्मेदारी निभाता है.