संसद के मानसून सत्र में सरकार अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से लंबित पड़े विधेयकों को पास कराने की जी-तोड़ कोशिश करेगी. इन विधेयकों की भीड़ में एक ऐसा विधेयक भी है जो तकरीबन 20 साल से लंबित पड़ा है और पिछले कुछ वर्षों से उस पर चर्चा तक नहीं हुई है. यह विधेयक है देश की आधी आबादी को देश के नीति निर्धारण में प्रतिनिधित्व देने वाला महिला आरक्षण विधेयक या संविधान (108 वां संशोधन) विधेयक. इस विधेयक में लोकसभा और राज्यों के विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई भागीदारी देने का प्रावधान है. एक-दो राजनीतिक दलों को छोड़कर देश के लगभग सभी दल इस बिल के समर्थन में हैं. हालांकि जो दल इस विधेयक का समर्थन कर रहे हैं, वहां भी संदेह की दबी हुई आवाजें मौजूद हैं, जो गाहे-बगाहे मुखर हो उठती हैं. उदाहरण के लिए 2010 में राज्यसभा की मंज़ूरी के बाद जब इस विधेयक को लोकसभा में पेश किया गया, तब भाजपा के प्रभावशाली ओबीसी नेता गोपीनाथ मुंडे ने इस विधेयक का खुलकर विरोध किया था. नतीजा यह हुआ कि यह बिल ठंडे बस्ते में चला गया. यूं तो महिला सशक्तिकरण की बात सत्ता पक्ष और विपक्ष सभी की तरफ से होती है, सरकार घोषणाएं करती है, अलग से कार्यक्रम भी चलाए जाते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर जब कुछ कदम उठाने की बात होती है, तब हर तरफ सन्नाटा छा जाता है. राजनीतिक दलों के मामूली विरोध को बहाना बनाकर महिला सशक्तिकरण की कोशिशों को फाइल में बंद कर दिया जाता है और सभी पक्ष अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं.
लाल किला से अपने पहले संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीति में महिलाओं का नेतृत्व बढ़ाने की बात की थी. अपने दो साल के कार्यकाल में महिला सशक्तिकरण पर वे कई बार बोल चुके हैं. बेटी बचाओे, बेटी पढ़ाओ अभियान शुरू कर चुके हैं. उनके मंत्रीमंडल में महिलाओं की ठीक-ठाक भागीदारी है, हालांकि वह एक-तिहाई नहीं. प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी भाषणों में भी महिला सशक्तिकरण की बात की थी, जिसने काफी हद तक महिला वोटरों को उनकी तरफ आकर्षित किया था, जिसका फायदा चुनाव में एनडीए को दो-तिहाई बहुमत के रूप में मिला था. ज़ाहिर है अगर वे देश की आधी आबादी की सशक्तिकरण के लिए कोई ठोस काम उठाएंगे तो इसका चुनावी फायदा उनकी पार्टी को ज़रूर मिलेगा. वहीं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लोकसभा में महिला दिवस के मौके पर कहा था कि प्रधानमंत्री के मैक्सिमम गवर्नेंस की संकल्पना में महिलाओं का अधिकार भी आना चाहिए, इसलिए सरकार को महिला आरक्षण विधेयक को जल्द से जल्द संसद से पारित कराना चाहिए. हालांकि इस बयान के बाद कांग्रेस नेे मुकम्मल ख़ामोशी आ़ेढ ली है.
महिला आरक्षण विधेयक पहली बार 12 सितंबर 1996 को तत्कालीन एचडी देवगौड़ा सरकार ने सदन में पेश किया था. विडंबना रही कि तब इस विधेयक के सबसे मुखर विरोधी मुलायम सिंह यादव और लालू यादव, देवगौड़ा सरकार के प्रमुख स्तम्भों में से थे. लिहाज़ा यह बिल पास नहीं हो सका. वर्ष 1997 में एक बार फिर इसे पास करने की कोशिश की गई, लेकिन इस बार भी नतीजा शून्य रहा. 1998, 1999 और 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने इस बिल को सदन में पेश किया, लेकिन हर बार यह हंगामों की भेंट चढ़ गया. इस दौरान यह महसूस किया गया कि बिल को समर्थन देने वाली पार्टियों के अंदर भी कुछ ऐसे लोग हैं, जो इस बिल को पास होते नहीं देखना चाहते.
2010 में भाजपा, वामदलों और जदयू के समर्थन से यूपीए सरकार ने राज्य सभा से इस बिल को पारित करा लिया, लेकिन लोक सभा में मामला तब फंस गया जब गोपीनाथ मुंडे व कुछ भाजपा सदस्यों ने इस बिल के खिलाफ पार्टी में आवाज़ उठाई. तब से यह बिल आज तक धूल खा रहा है और किसी राजनीतिक दल में इसे लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही है. इसमें कोई शक नहीं कि संसद और विधान सभाओं में देश की महिलाओं का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी की तुलना में नहीं के बराबर है (देखें टेबल). जब महिला आरक्षण विधेयक पास नहीं हो सका तो यह बात कही गई कि राजनीतिक दल अपने स्तर पर महिलाओं को प्रतिनिधित्व दें. जब तक महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित नहीं हो जाती हैं, तब तक सभी दल जो इस बिल के समर्थन में हैं, अपनी पार्टी की ओर से अधिक से अधिक महिला उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारें. लेकिन यह कवायद भी ज़बानी जमा खर्च साबित हुई (देखें टेबल). एक बार फिर यह साबित हुआ कि महिलाओं को लोकसभा और विधान सभा में उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने के मामले में कोई भी दल गंभीर नहीं है.
बहरहाल, मौजूदा सरकार के पास लोकसभा में बहुमत है. अगर वह चाहे तो इस बिल को संसद से भी पास कराकर राज्यों की मंज़ूरी के लिए भेज सकती है. या फिर समाजवादी पार्टी या दूसरे अन्य दल और खुद अपने सांसदों के संदेहों को दूर करने का प्रयास कर सकती है. जहां तक इस विधेयक का विरोध करने वाली पार्टियों का सवाल है तो अब उनकी संख्या लोकसभा में काफी सिमट गई है. लिहाज़ा सत्ता पक्ष की ओर से ऐसी पार्टियों के विरोध का बहाना अब नहीं चलेगा. लेकिन यदि यह बिल लोकसभा में पेश नहीं होता है या इस पर बहस नहीं होती है तो सरकार की नियत पर प्रश्न चिन्ह लगना लाज़मी है. एक बात तो तय है कि महिलाओं को अपना जायज़ हक हासिल करने के लिए अभी और इंतज़ार करना पड़ेगा और लंबी लड़ाई लड़नी होगी.