देवघर की संगीता की कहानी अजीब है. जिस बेटे को उन्होंने बड़े प्यार से पाल-पोसकर बड़ा किया, उसी ने मुश्किल घड़ी में मुंह फेर लिया. पिता की मौत के बाद बेटे ने अपनी मां को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया था. मां ने पहले ही अपनी सारी संपत्ति बेटे के नाम कर दी थी, तब भी बेटे को उस पर तरस नहीं आया. इतना ही नहीं, हद तो तब हो गई जब कलियुगी बेटे ने अपनी मां को पागल बताकर रांची के मानसिक अस्पताल रिनपास में भर्ती करा दिया. वे करीब 22 वर्षों से इस अस्पताल में भर्ती हैं. पूरी तरह से स्वस्थ होने के बावजूद बेटे ने अपनी मां को पहचानने से ही इनकार कर दिया है. अच्छे पद पर कार्यरत होने के बाद भी बेटा अपनी मां को घर लाने के लिए तैयार नहीं है.
संगीता जैसी कई औरतों की यहां एक ही दास्तां है, जिन्हें उनके परिजनों ने त्याग दिया है. उनके अपने ही अब बेगाने हो गए हैं. ये महिलाएं अब अस्पताल परिवार की ही सदस्य हो गई हैं. इन महिलाओं के परिजनों ने ऐसा जख्म दिया कि वे मानसिक रोगी हो गईं. इसके बाद परिजन उन्हें रांची के मानसिक आरोग्यशाला रिनपास में भर्ती करा चले गए. ईलाज के बाद ऐसी महिलाएं ठीक भी हो गई, पर उनके परिजन कभी नहीं लौटे. अस्पताल प्रबंधन ने परिजनों को दर्जनों बार फोन भी किया, पर परिजनों ने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया. परिवार द्वारा दिये गये दर्द का यह असर हुआ कि वे अब इस मानसिक अस्पताल के ही अंग होकर रह गए हैं. 550 बेड वाले इस मानसिक अस्पताल में ऐसे करीब 80 स्थायी रोगी हैं, जिनमें अधिकतर महिलाएं हैं. इनमें से कुछ तो बड़े घरों से संबंध रखती हैं, पर जब परिजन ही भाग्य के सहारे छोड़ दें, तो फिर कहां जाएं? इनमें से कुछ जमीन-जायदाद विवाद में तो कुछ पतियों ने दूसरी महिलाओं से संबंध होने के कारण, तो कुछ बेटों ने अपनी मां से छुटकारा पाने के लिए पागल बताकर इस अस्पताल में भर्ती करा दिया.
हद तो तब हो जाती है, जब मरने के बाद भी परिवार का कोई सदस्य शव लेने नहीं आता है. अस्पताल के चिकित्सकों ने बताया कि मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी ने अपनी पत्नी को यहां ईलाज के लिए भर्ती कराया था. जांच में डॉक्टरों ने पाया कि उनकी मानसिक स्थिति बिल्कुल ठीक थी, उनमें रोग के कोई लक्षण नहीं पाये गये. लेकिन इस अधिकारी ने अपनी पहुंच और पैरवी के बल पर अपनी पत्नी को जबरन भर्ती करा दिया. एक-दो माह बाद जब अस्पताल प्रबंधन ने अधिकारी को सूचित किया कि उनकी पत्नी पूरी तरह से स्वस्थ हैं, वे उसे अस्पताल से ले जाएं, तो अधिकारी ने अपनी पत्नी को पहचानने से ही इनकार कर दिया. उन्होंने साफ तौर पर यहां तक कह दिया कि उनकी पत्नी अस्पताल में भर्ती हुई ही नहीं. उनके बेटा, जो एक अधिकारी है, को भी इस संबंध में जानकारी दी गई तो उसने अपनी मां को ले जाने में असमर्थता जतायी. पर जब इन्हीं महानुभावों को किसी कागज पर दस्तखत कराना था, तो बाप-बेटे दोनों पहुंच कर कुछ कागजातों पर हस्ताक्षर कराये, फिर चुपचाप यहां से चले गये. इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोगों की संवेदनाएं कितना मर गयी हैं.
रिनपास के क्लीनिक साइकोलॉजी विभाग के हेड डॉ. जय प्रकाश का कहना है कि अस्पताल में कई ऐसे मरीज हैं, जिन्हें समाज अब स्वीकार नहीं करना चाहता है. उनके परिवार ने उनसे नाता तोड़ लिया है. चालीस वर्षों से कई मरीजों का आसरा अस्पताल बना हुआ है. धुंधली यादों में ये महिलाएं अपने घर को खोजने का प्रयास तो जरूर करती हैं, लेकिन अंत में उन्हें अपने परिजनों से निराशा ही हाथ लगती है. ऐसे में उन्हें अस्पताल प्रबंधन ही उनके परिवार का हिस्सा बनकर सहारा देता है. यहां उनकी उचित तरीके से देखभाल की जाती है और हर समस्या का खास तौर पर ख्याल रखा जाता है.
बिहार की एक महिला की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि एक साठ वर्षीया महिला जो नवादा की रहने वाली थी, उसकी मौत पिछले वर्ष रिनपास में हो गयी थी. वे पिछले तीस साल से अस्पताल में थीं. उनके परिवार वालों को कई बार उनकी मृत्यु हो जाने की सूचना दी गई, पर उनका शव तक लेने कोई नहीं आया, आखिरकार अस्पताल प्रबंधन ने ही अंतिम संस्कार की जिम्मेवारी भी उठाई. अब तो रिनपास ने ऐसे मरीजों के दाह संस्कार के लिए एक अलग से फंड ही बना लिया है.
बिहार की ही एक अन्य महिला का स्थायी पता अब रिनपास ही बन चुका है. अब उनके परिवार के सदस्य यहां के डॉक्टर एवं केयरटेकर हैं. इनकी संपत्ति एक जोड़ी कपड़ा और बेड पर बिछा हुआ चादर है. इन्होंेने अपनी जिंदगी के चालीस साल अस्पताल की चारदीवारी के भीतर ही गुजार दिए. यादों के पिटारे से गांव का नाम कभी-कभी जुबां पर लाती हैं. बेटे और पति का चेहरा भी पूरी तरह याद है. परिवार पूरी तरह से सुखी-संपन्न है, पर पिछले कई वर्षों से कोई देखने भी नहीं आ रहा है. अस्पताल प्रबंधन ने कई बार इस महिला को घर भेजने की कोशिश की. दर्जनों बार पत्र भेजा गया, आदमी भी भेजे गए, पर परिवार वालों ने अपनाने से ही इनकार कर दिया. यह महिला हमेशा गुमसुम सी अपनी यादों में खोई रहती है. कोई पास बैठता है तो अपने बच्चों और पति के संबंध में तरह-तरह की बातें करती हैं, पर उनकी जेहन में बसे ये नाम उनके लिए खुद बेगाने हो गए. धनबाद की नीलिमा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उसके पूरी तरह से स्वस्थ होने के बाद अस्पताल प्रबंधन ने उन्हें घर पहुंचा दिया था, पर लगभग एक सप्ताह बाद परिवार वाले उसे फिर गेट पर छोड़कर चले गये. वह लावारिस हालत में अस्पताल के बाहर पड़ी हुई थीं, परिवार वालों ने उसे दवाईयां भी नहीं दी थीं, आखिरकार अस्पताल प्रबंधन ने फिर से मजबूरी में अस्पताल में भर्ती कर लिया. अब फिर वह इसी अस्पताल की होकर रह गई है.
इस अस्पताल के मरीजों की ऐसी हृदय विदारक कहानियां सुन पत्थर दिल इंसान भी पसीज सकता है, लेकिन इनके परिजनों को दया नहीं आई. इन महिलाओं को एक ही समस्या है कि वे स्वस्थ होने के बाद भी जाएं तो कहां जाएं? जब अपनों ने ही मुंह फेर लिया, तो फिर समाज में किससे आसरे की उम्मीद करें. ऐसे में ये लोग अस्पताल परिसर को ही स्थायी ठिकाना बना लेते हैं. अस्पताल प्रबंधन से जब इन महिलाओं को मिल रही सुविधाओं के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था कि ये हमारे परिवार की तरह हैं. हम ऐसे मरीजों को खाना-पीना, रहना, दवा, साज-श्रृंंगार के समान, कपड़े व खाना बनाने की सुविधा भी देते हैं. इसके अलावा साल में अस्पताल प्रबंधन द्वारा दो बार विभिन्न स्थानों पर घुमाने के लिए ले जाया जाता है. इनलोगों को सिलाई-कढ़ाई एवं अन्य तरह की ट्रेनिंग भी दी जाती है.
सामाजिक कार्यकर्ता वासवी का कहना है कि रिनपास में भर्ती अधिकतर महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं. परिवार वाले जमीन-जायदाद एवं संपत्ति पर कब्जा करने के लिए अकेली या विधवा महिलाओं को जबरन पागल करार देकर अस्पताल में भर्ती कराकर चले जाते हैं. रांची के पास के गांव की एक महिला की पंद्रह एकड़ जमीन पर कब्जा करने के उद्देश्य से रिनपास में भर्ती कराकर उसे पागल बना दिया गया. उस महिला की कोई संतान नहीं थी और पति के कम उम्र में मृत्यु हो जाने के बाद उसकी संपत्ति पर परिवार वालों की नजर थी. ऐसा कर परिजनों ने उसकी पूरी संपत्ति पर कब्जा कर लिया. कुछ को डायन-बिसाही एवं कुछ पतियों ने दूसरी महिला के प्यार में फंसकर अपनी पत्नी को पागल करार दिया और फर्जी मेडिकल सर्टिफिकेट के सहारे इस अस्पताल की चारदीवारी के भीतर पहुंचा दिया. अस्पताल प्रबंधन की समस्या है कि इन महिलाओं के कारण दूसरे मरीजों को यहां जगह नहीं मिल पाती है. सबसे दुखद यह है कि स्वस्थ होने के बाद भी हमेशा गंभीर मरीजों के बीच रहने के कारण इनकी मानसिक स्थिति भी वैसी ही हो जाती है.