किसी भी देश को चलाने के लिए लोकतंत्र सबसे अच्छी शासन प्रणाली है. यह सही है कि इस प्रणाली में भी कई ख़ामियां हैं, लेकिन यह सभी देशों में अलग-अलग तरह से उजागर होती है. दुर्भाग्यवश पिछले साठ सालों में हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का जितना विकास होना चाहिए था, उतना हुआ नहीं, बल्कि इसकी ख़ामियां ही ज़्यादा उजागर हुई हैं. यहां जिस बात को उठाने की कोशिश मैं कर रहा हूं, वह है लोकतंत्र के विरुद्ध हमारा गुस्सा. इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में आई ख़ामियों से लोग परेशान हैं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि इस व्यवस्था को समाप्त करने की कोशिश की जाए. जो भी ऐसा करता है, वह ग़लत है. व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है, न कि व्यवस्था को ख़त्म करने की.
अगर राजनीतिक दलों के भीतर लोकतांत्रिक व्यवस्था क़ायम नहीं हो सकती है तो लोगों को चाहिए कि वे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की नियुक्ति प्रत्यक्ष मतदान के माध्यम से एक निश्चित समय के लिए करें. ऐसा करने से सांसदों एवं विधायकों के पास उन्हें कार्यकाल के भीतर हटाने की शक्ति नहीं रह जाएगी. इस व्यवस्था में कैश फॉर वोट जैसी घटनाएं नहीं दोहराई जाएंगी, क्योंकि प्रधानमंत्री उनके प्रति नहीं, बल्कि प्रत्यक्षत: जनता के प्रति ज़िम्मेदार होंगे और जनता ही उनके कार्यों का आकलन करके तय करेगी कि उन्हें सत्ता में रहना चाहिए अथवा नहीं.
भारत में काम कर रही सिविल सोसाइटी को चाहिए कि वह देश, राज्य एवं स्थानीय स्तर पर व्यवस्था में सुधार लाने के लिए विरोध करे. अगर वह अपनी भूमिका सही तरीक़े से निभा सके तो फिर इसी लोकतंत्र में सुधार कर इसे बेहतर बनाया जा सकता है. दुनिया में कई देश ऐसे हैं, जहां के नागरिकों को किसी तरह का कर नहीं देना पड़ता है. यह सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि वहां के नागरिकों के पास अधिकार नहीं होते, वे सरकार के अत्याचारों के विरुद्ध किसी तरह का कोई विरोध नहीं कर सकते हैं, लेकिन भारत में तो ऐसा नहीं है. यहां सभी नागरिक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कर देते हैं. इस हिसाब से देखा जाए तो उनका सरकार में किसी न किसी रूप में योगदान है. अत: अपने अधिकारों की रक्षा करने का उन्हें पूरा अधिकार है. लोकतंत्र में चुनाव होता है और हम लोग विधायक, सांसद एवं अन्य अनेक प्रतिनिधियों को चुनते हैं, जो प्रशासन और जनता के बीच की कड़ी होते हैं, लेकिन जब भ्रष्टाचार बढ़ने लगा तो ये लोग भी प्रशासन का ही हिस्सा बन गए और जनता के प्रति धीरे-धीरे असंवेदनशील होने लगे. इसमें सुधार की आवश्यकता है, जिसे सतर्क और सावधान जनता ही कर सकती है. मीरा सान्याल जैसे कुछ लोगों ने किसी पार्टी की सहायता के बिना चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली, क्योंकि भारतीय राजनीति में पार्टियों की स्थिति काफी मज़बूत है. इसलिए यह जरूरी है कि राजनीतिक दल ही सुधार की कोशिश करें. अगर राजनीतिक दल अच्छे प्रत्याशियों को चुनाव में खड़ा करें तो समस्या का समाधान हो सकता है, लेकिन ऐसा होता नहीं है. अगर देखा जाए तो 70 के दशक के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि राजनीतिक दलों के अध्यक्ष तानाशाह हो गए हैं. किसी भी दल में प्रत्याशियों का चयन योग्यता के आधार पर नहीं होता, बल्कि पार्टी अध्यक्ष के साथ उनकी निकटता के आधार पर होता है. यह लोकतंत्र के लिए घातक है. किसी भी राजनीतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है, जैसा कि संसदीय व्यवस्था में होता है. एक तरह से देखा जाए तो राजनीतिक दलों के अंदर अध्यक्षीय व्यवस्था क़ायम हो गई है.
अगर राजनीतिक दलों के भीतर लोकतांत्रिक व्यवस्था क़ायम नहीं हो सकती है तो लोगों को चाहिए कि वे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की नियुक्ति प्रत्यक्ष मतदान के माध्यम से एक निश्चित समय के लिए करें. ऐसा करने से सांसदों एवं विधायकों के पास उन्हें कार्यकाल के भीतर हटाने की शक्ति नहीं रह जाएगी. इस व्यवस्था में कैश फॉर वोट जैसी घटनाएं नहीं दोहराई जाएंगी, क्योंकि प्रधानमंत्री उनके प्रति नहीं, बल्कि प्रत्यक्षत: जनता के प्रति ज़िम्मेदार होंगे और जनता ही उनके कार्यों का आकलन करके तय करेगी कि उन्हें सत्ता में रहना चाहिए अथवा नहीं. इसलिए कोई भी सिविल सोसाइटी यह दावा नहीं कर सकती है कि उसने जो बिल रखा है, वही सही है और उसमें किसी भी तरह का संशोधन वह स्वीकार नहीं करेगी. ऐसा कहना अपने आप में अलोकतांत्रिक है और यह बुद्धिजीवियों के बीच फासिस्ट सोच पैदा करेगा. यूं ही नेताओं और राजनीति, दोनों के बारे में शिक्षित वर्ग के बीच घृणा का माहौल बना हुआ है. यह ख़तरनाक है, क्योंकि लोकतंत्र नेताओं के बिना नहीं चल सकता है और इसका विकल्प तो इससे भी ज़्यादा ख़राब है.