ये शरणार्थी सही मायने में कई समस्याओं का सामना कर रहे है, जिनका सहानुभूति पूर्वक समाधान करने की जरूरत है. लेकिन इन समस्याओं से निपटने में राज्य सरकार बड़ा जोखिम उठा रही है. दरअसल, एक बहस पहले ही कश्मीर में शुरू हो चुकी है. इस सन्दर्भ में संघ परिवार का विभाजनकारी हिन्दू राष्ट्रवाद का एजेंडा इस मामले को और भी हवा दे रहा है, जिसमें घर वापसी यानी मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू धर्म में वापस लाना भी शामिल है.
बहस का एक हिस्सा संख्या और आबादी के स्वरूप के विवाद में फंस गया है. पश्चिमी पाकिस्तान शरणार्थी संगठन के अध्यक्ष, लाभा राम गांधी का दावा है कि केवल 5,764 हिंदू और सिख परिवार 1947 में पलायन कर जम्मू से आए थे. लेकिन अब उन परिवारों की संख्या ब़ढ कर 25,460 हो गई है, जिनमें कुल 1,50,000 लोग रहते हैं. कुछ लोगों को इन आंकड़ों पर एतराज है.
जम्मू के मुसलमानों से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर काम करने वाले एक विशेषज्ञ के अनुसार, उस समय इन शरणार्थी परिवारों की संख्या लगभग 12,000 थी, जो आज ब़ढकर अवश्य ही 50,000 हो गई होगी. जिनकी आबादी अनुमानत : 3,00,000 होगी. वे कहते हैं कि ऐसे कई परिवार हैं, जो इस संगठन के साथ पंजीकृत नहीं हुए.
वास्तविक आंकड़ा जो भी हो, लेकिन माना यही जा रहा है कि उन्हें आवास अधिकार देने का फैसला राजनीति से प्रेरित है. सबसे विवादास्पद सिफारिश, उन्हें मतदान का अधिकार प्रदान करने की है.
भाजपा इस मुद्दे को चर्चा का विषय बना रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी रैलियों में इसका जिक्र कर रहे हैं और लोगों को ये लग रहा है कि समिति की सिफारिशों को लागू किया जा रहा है. लोग यह भी देख रहे हैं कि पीडीपी चुपचाप इन घटनाओं का अनुमोदन कर रही है.
भविष्य में यह फैसला उन ताकतों को मदद पहुंचाएगा, जो सीटों की संख्या के मामले में जम्मू को कश्मीर के बराबर देखना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि कश्मीर के मतदाताओं पर निर्भर रहे बिना उन्हें राज्य में सत्ता मिल सके. हालांकि विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन 2026 तक नहीं होगा, लेकिन इस कदम से उन पार्टियों को फलने-फूलने का मौका मिलेगा, जो ‘भेदभाव’ और ‘कश्मीरी वर्चस्व’ को हथियार बनाती हैं.
जिस तरह पलायन पर बहस जोर पकड़ रही है, उस तरह एक और पलायन हुई थी, जिसपर कोई बात नहीं हो रही है. एक सवाल यह भी है कि इन शरणार्थियों को 1947 में जम्मू ही क्यों भेजा गया? उन्हें भारत के किसी अन्य हिस्से में क्यों नहीं भेजा गया? जैसे-जैसे इतिहास के पन्ने खुलते गए, यह स्पष्ट होता गया कि यह काम राज्य की आबादी के स्वरूप को बदलने के उद्देश्य से किया गया था.
शायद 3 लाख मुसलमानों के कत्ल के साथ-साथ यही तरीका था, जम्मू की मुस्लिम बहुल क्षेत्र की पहचान को बदलने का. ढहते डोगरा राजशाही ने जाते-जाते अपनी उस प्रजा को यह ‘अनमोल उपहार’ (नरसंहार) दिया था, जो सदियों से उसकी वफादार रही थी. आज जम्मू में मुस्लिम आबादी मात्र 5 फीसदी है, जबकि 1947 में यह 39 फीसदी थी. उसी तरह 1947 में कठुआ जिले में 30 फीसदी मुस्लिम थे, आज मात्र 8 फीसदी रह गए हैं.
कश्मीरी पंडितों के पलायन के पच्चीसवें वर्षगांठ पर 19 जनवरी 2015 को टाइम्स ऑफ इंडिया में पत्रकार स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर लिखते हैं कि हमारा मीडिया अपने स्वतंत्र और मजबूत भाषण पर गर्व करता है, फिर भी उसने कथित राष्ट्रीय हित से संबंधित कुछ मुद्दों पर साजिश भरी चुप्पी साध रखी है. स्वामीनाथन अय्यर का इशारा 1947 में बड़े पैमाने पर हुए मुसलमानों की हत्या और पलायन की तरफ था. उन्होंने लिखा कि इस कहानी को इस निराशाजनक बरसी पर याद किया जाना चाहिए.
जम्मू-कश्मीर से गए करीब 1.2 मिलियन शरणार्थी मुख्य पाकिस्तान (पीओके के अलावा) में रहते हैं. उनमें से लगभग 1.1 मिलियन तत्कालीन जम्मू और कठुआ जिलों से गए हुए लोग हैं. किस तरह से उनकी हत्या हुई और उन्हें अपना घर छो़डना पडा, उसकी कहानी प्रतिष्ठित पत्रकार वेद भसीन ने बयान की है. 2003 में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि यह योजना महाराजा की सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा बनाई गई थी.
मीर चंद महाजन (प्रधानमंत्री) एक बार तब जम्मू आए थे, जब सांप्रदायिक दंगें हो रहे थे. उन्होंने कुछ अल्पसंख्यक नेताओं को आमंत्रित किया, जिसमें सांप्रदायिक दल और नेशनल कांफ्रेंस भी शामिल थे. त्रिलोक चंद दत्त, गिरधारी लाल डोगरा और ओम सर्राफ वहां थे. मैं भी एक छात्र प्रतिनिधि के रूप में वहां उपस्थित था.
महाराजा पैलेस में उन्होंने कहा था कि सत्ता जब जम्मू-कश्मीर राज्य के लोगों को दी जा रही है, तो आप हिंदू और सिख समानता की मांग क्यों नहीं करते हो? समानता का मतलब हिंदू और मुसलमान (मुस्लिम लीग) में बराबर का प्रतिनिधित्व. ओम सर्राफ को छोड़कर किसी ने इसका जवाब नहीं दिया. सर्राफ ने कहा कि हम कैसे समानता की मांग कर सकते हैं? हिंदुओं और मुसलमानों की जनसंख्या में भारी अंतर है.
मुसलमानों के पास एक विशाल बहुमत है, हिंदू अल्पसंख्यक हैं. यह कैसे व्यावहारिक और संभव है? इस पर मीर चंद महाजन ने महाराज पैलेस के नीचे एक वन क्षेत्र (जहां कुछ गुर्जरों के शव प़डे हुए थे) की ओर इशारा करते हुए कहा कि जनसंख्या बदल भी सकती है. भसीन कहते हैं कि इसका क्या मतलब था? इन शरणार्थियों के पास कोई पूर्ण अधिकार नहीं था, सिवाए जम्मू और कश्मीर विधानसभा में आरक्षित आठ सीटों के.
पाकिस्तान में रहने वाले जम्मू एवं कश्मीर के शरणार्थियों की वापसी के लिए, शेख मोहम्मद अब्दुल्ला एक पुनर्वास विधेयक 1977 में (जिसे बिल संख्या 9 के नाम से भी जाना जाता है) ले कर आए. यह बिल 1954 तक पलायन कर चुके लोगों के लिए था. लेकिन अभी तक इस बिल पर कोई निर्णय नहीं हो सका है.
अभी जब पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों के बारे में बहुत चर्चा हो रही है, ऐसे में कोई भी उनकी बात नहीं करता है, जो न केवल 1954 बल्कि 1990 के बाद भी सीमा पार से होने वाली गोलाबारी से बचने के लिए पाकिस्तान में पलायन कर गए. ऐसे लोगों की संख्या 35,000 से अधिक है और वे पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में एक कठिन जीवन जी रहे हैं. कश्मीरी पंडितों की वापसी और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हुए लोगों, इन दोनों मुद्दों का समाधान एकरूपता के साथ निकालना चाहिए.