उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के ऐन पहले भारतीय जनता पार्टी क्या अपनी उग्र हिंदूवादी धारा पर लौटेगी? गोरखपुर क्षेत्र के बूथ सम्मेलन में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जिस तरह का रुख दिखाया, उससे तो यही संकेत मिलता है. बिहार चुनाव के बाद भाजपा सर्वधर्म-समभाव के भाव में दिखने लगी थी, लेकिन असम चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता के बाद भाजपा अपने तेवर बदलती दिखाई दे रही है. अमित शाह के दस्ते केविश्वासी सदस्य उत्तर प्रदेश केसंगठन मंत्री सुनील बंसल ने हाल ही मचौथी दुनियाफ से हुई खास बातचीत में भाजपा केधर्मनिरपेक्षीय रुझान की तरफ सरकने का संकेत देते हुए साफ तौर पर कहा था कि राम मंदिर भाजपा का चुनावी मुद्दा नहीं है. ऐसा नहीं है कि उस साक्षात्कार में बंसल ने यूं ही कह दिया था कि भाजपा को अपनी राजनीति व्यापक करनी होगी. बंसल ने कहा था कि भारतीय जनता पार्टी अबतक सम्पूर्णता की राजनीति नहीं कर रही थी. ऐसी राजनीति, जिसमें हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमान, ईसाई और अन्य धर्मों के लोग भी शरीक रहें. उस समय बातचीत का ऐसा ही टोन करीब-करीब सारे वरिष्ठ केंद्रीय नेताओं का होने लगा था. लेकिन कैराना-फार्मूले ने अचानक ही सामने आकर यह बताया कि भाजपा उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में हिंदूवादी लाइन ही अख्तियार करेगी. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की इलाहाबाद बैठक के दरम्यान आयोजित रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में मंच से ही अमित शाह ने जिस तरह कैराना का मसला उछाला था और सभा में शामिल लोगों से इस मसले पर हुंकार-समर्थन लिया था, उससे भाजपा की यूपी लाइन स्पष्ट हो गई थी. गोरखपुर में बूथ प्रमुखों के सम्मेलन में अमित शाह ने इस पर मुहर लगा दी, जब उन्होंने कहा कि योगी आदित्यनाथ का नाम लेने मात्र से पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों और भाजपा के कार्यकर्ताओं में रोमांच आ जाता है. गोरखपुर क्षेत्र के 27 हजार बूथ प्रमुखों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए अमित शाह ने गोरखधाम पीठ के मुख्य महंत योगी आदित्यनाथ की प्रशंसा में ढेर सारी बातें कहीं. शाह ने यह प्रशंसा संयोगवश तो की नहीं होगी. सांगठनिक सभा-सम्मेलनों में संगठन के शीर्ष नेता ने सोच-समझ कर ही अपनी बात रखी होगी.
पूर्वी उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए महत्वपूर्ण है. गोरखपुर क्षेत्र में 13 लोकसभा क्षेत्र और तकरीबन 65 विधानसभा क्षेत्र हैं. गोरखपुर क्षेत्र की 12 लोकसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है. आजमगढ़ की एक सीट मुलायम सिंह यादव ने जीती थी और रमाकांत यादव चुनाव हार गए थे. गोरखपुर सम्मेलन में सभी सांसद और इस क्षेत्र के सभी विधायक भी मौजूद थे. राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के अलावा संगठन की तरफ से राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम माथुर, प्रदेश संगठन मंत्री सुनील बंसल, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष केशव मौर्य, राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री शिवप्रकाश, प्रदेश उपाध्यक्ष व राज्यसभा सदस्य शिवप्रताप शुक्ल समेत कई दिग्गज शामिल हुए. राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के मंच पर आने के पहले गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ का भाषण चल रहा था, लेकिन शाह के आते ही भाषण थम गया. बाद में शाह ने फिर से योगी को बुला कर पूरा भाषण सुना. अमित शाह ने अपने संबोधन में जैसे ही कहा कि योगी आदित्यनाथ का नाम लेते ही लोगों में रोमांच हो जाता है, लोग जोश से भर जाते हैं, तो सम्मेलन में मौजूद कार्यकर्ता योगी के समर्थन में नारे लगाने लगे, इससे माहौल असहज भी हुआ और शाह को थोड़ी नाराजगी भी हुई. अमित शाह ने अपने भाषण में योगी आदित्यनाथ के कैराना वाले बयान का समर्थन किया और कहा कि भाजपा कैराना में हिंदुओं के साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ लड़ेगी. शाह ने उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार पर कई तीखे प्रहार किए और यहां तक कह डाला कि गायों की तस्करी करने वाले सबसे ज्यादा माफिया यूपी के ही हैं. शाह ने कहा कि उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार लाने के लिए सबको मिलकर सपा को बाहर करना होगा. शाह ने विकास के मसले भी उठाए और सपा सरकार के पिछड़ने के आंकड़े सामने रखे. उन्होंने गोरखपुर में एम्स स्थापित करने का मसला भी उठाया जिसमें यूपी सरकार अड़ंगे खड़े कर रही है. शाह ने कहा कि अगर राज्य सरकार एम्स के लिए जगह नहीं भी देगी तो मोदी सरकार कोई न कोई तरीका निकालेगी. शाह बोले कि मोदी खाद की फैक्ट्री तो खुलवा सकते हैं पर चीनी मिलें फिर से खोलने के लिए राज्य में भाजपा का मुख्यमंत्री होना अनिवार्य है. अमित शाह ने मायावती पर भी निशाना साधा और कहा कि बसपा छोड़कर जाने वाले नेताओं की ही खबरें अखबारों की सुर्खियां बनी रहती हैं. ऐसा लगता है कि चुनाव तक बहनजी अकेली ही रह जाएंगी.
विधानसभा चुनाव को लेकर तमाम राजनीतिक समीक्षाओं और अर्थायनों में लगे सियासी पंडित योगी आदित्यनाथ की सार्वजनिक प्रशंसा के भी निहितार्थ निकालने लगे हैं. उनका मानना है कि अमित शाह विधानसभा चुनाव में यूपी का चेहरा कौन होगा, इस कयास पर विराम लगा गए हैं. लेकिन यह विचार भी कयास ही है, तबतक, जबतक कि आधिकारिक तौर पर पार्टी की तरफ से कोई घोषणा न हो जाए. पार्टी का चेहरा कौन होगा, इस पर बिहार चुनाव के बाद से ही चर्चा होने लगी थी और इसमें कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह से लेकर योगी आदित्यनाथ, स्मृति इरानी, वरुण गांधी और महेश शर्मा तक के नाम चल गए. लेकिन अब तक ये सब नाम चर्चाओं तक ही सीमित रहे हैं. कल्याण और राजनाथ को अलग रखें तो चर्चा में शुमार नामों में योगी का नाम ही सबसे मजबूत रहा, क्योंकि योगी की राजनीतिक जमीन भी काफी मजबूत है. योगी 1998 में पहली बार 26 साल की उम्र में ही गोरखपुर से सांसद बने और तब से लगातार जीत रहे हैं. वे पांचवीं बार सांसद हैं. योगी भाजपा के लिए सबसे बड़ा हिंदूवादी चेहरा हैं. उनके ऊपर भ्रष्टाचार का कोई मामला नहीं है. अपने फायरब्रांड बयानों के कारण उन्हें ध्रुवीकरण का विशेषज्ञ माना जाता है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह योगी के नाम पर अपनी सहमति भी दे चुके हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से अभी आखिरी सहमति नहीं मिली है. यूपी के राजनीतिक पंडितों का भी मानना है कि योगी आदित्यनाथ बसपा और सपा को कड़ी चुनौती दे सकते हैं.
शुरुआती दौर में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इरानी को संघ का समर्थन मिला, लेकिन बाद में यह फीका पड़ गया. मुखर वक्ता और विपक्षियों का सामना करने की मजबूत क्षमता के कारण स्मृति को संघ ने पसंद किया था, लेकिन उत्तर प्रदेश की बदलती राजनीतिक स्थितियों में स्मृति का नाम प्रासंगिक नहीं रहा. स्मृति के बाद सुल्तानपुर के सांसद वरुण गांधी का नाम खूब तेजी से चला. वरुण 2009 में पीलीभीत से सांसद चुने गए थे. 2009 में ही मुस्लिम विरोधी बयान देकर वरुण सुर्खियों में आ गए थे. लेकिन धीरे-धीरे वरुण गांधी का नाम वृष्टिछाया-क्षेत्र में चला गया, इसके लिए वरुण भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री का वैकल्पिक चेहरा बनने के लिए उन्होंने जो हथकंडे अपनाए, उसे भाजपा आलाकमान ने पसंद नहीं किया. विधानसभा चुनाव में यूपी के चेहरे के बतौर राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह का नाम भी चला. कभी कल्याण उत्तर प्रदेश का कट्टर हिंदूवादी चेहरा हुआ करते थे और प्रदेश के पिछड़ा वर्ग खास कर लोधी समुदाय में उनकी खासी पकड़ है. लेकिन खराब स्वास्थ्य के कारण कल्याण का विधानसभा चुनाव में जुझारू इस्तेमाल संभव नहीं है. इसके बाद केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह चर्चा में आए. लखनऊ से सांसद राजनाथ सिंह की छवि प्रदेश में अच्छी है और उन्हें भाजपा का धर्मनिरपेक्षीय चेहरा भी माना जाता है. राजनाथ सिंह का नाम अभी पार्टी में विचार में है, लेकिन निर्भर करता है कि भाजपा चुनाव में कौन सा लाइन चुनती है. केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा का नाम भी संभावित चुनावी चेहरे के रूप में चर्चा में आया था, लेकिन पश्चिम में जाना-पहचाना चेहरा मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में उतना घरेलू नहीं है. पिछड़ा समुदाय (लोध) की सांसद और केंद्रीय मंत्री साध्वी उमा भारती और ब्राह्मण सांसद व केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र के नाम भी चर्चा और सुगबुगाहटों में रहे हैं. उत्तर प्रदेश में चुनावी चेहरे की कयासबाजी का समय समाप्त हो रहा है, अब समय फैसलाकुन है.
जो बड़े नेता बहुजन समाज पार्टी छोड़ कर निकले हैं, उनका भाजपा में स्वागत करने की भी तैयारियां चल रही हैं. इन तैयारियों में पार्टी की वह रणनीति भी शामिल है कि उन्हें चुनाव में किस तरह का दायित्व दिया जाना है. बसपा से जुड़े बौद्ध भिक्षुओं को भी भाजपा के छत्र में लाने की पूरी तैयारी है. समाजवादी पार्टी के भी कुछ नेताओं के भाजपा में आने की चर्चा है. जल्दी ही इस रोमांच का भी पटाक्षेप होने वाला है. जातीय समीकरणों के मुताबिक नेताओं के चेहरे फिट करने की कवायद तेज गति से चल रही है. केशव मौर्य को प्रदेश का अध्यक्ष बनाना इसी रणनीति का हिस्सा था. कोइरी समुदाय के लोग प्रदेश में खासी संख्या में हैं, लेकिन इस समुदाय की राजनीतिक उपेक्षा होती रही है. इसे भाजपा अपने पक्ष में दुरुस्त करना चाहती है. सामाजिक-राजनीतिक तानाबाना दुरुस्त करने के इरादे से ही मुख्तार अब्बास नकवी को वाया झारखंड राज्यसभा पहुंचाया गया और ब्राह्मण नेता शिवप्रताप शुक्ल को राज्यसभा जाने का मौका मिला. इस बार भाजपा के जो जिलाध्यक्ष और नगर अध्यक्ष चुने गए, उसमें भी इस पहलू का विशेष ध्यान रखा गया. यही वजह है कि पहली बार भाजपा के 94 जिला और नगर अध्यक्षों में पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति के 44, ब्राह्मण जाति के 29, ठाकुर जाति के 10, वैश्य जाति के नौ और दलित समुदाय के चार लोग शामिल हैं. पिछले लंबे अर्से से पार्टी के जिला और नगर अध्यक्ष अधिकतर ब्राह्मण और उसके बाद राजपूत जाति के हुआ करते थे.
पार्टी ने सांगठनिक ढांचे में फेरबदल इसलिए भी किया क्योंकि उत्तर प्रदेश के पिछले तीन विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन काफी लचर रहा. वर्ष 2002, 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला सपा और बसपा के बीच ही रहा. इसमें भाजपा और कांग्रेस कहीं नहीं रही. भाजपा तीसरे स्थान पर रही. वर्ष 1991 में भाजपा को 221 सीटें मिली थीं. भाजपा का यह अच्छा प्रदर्शन था. 2012 के चुनाव में भाजपा को 15 प्रतिशत वोट मिले जो बसपा के आधे थे. 2012 के विधान सभा चुनाव में 15 फीसदी वोट हासिल करने वाली भाजपा को अचानक 2014 के लोकसभा चुनाव में 42.63 प्रतिशत वोट मिले. लोकसभा चुनाव की जीत के दबाव-मनोविज्ञान से गुजर रही भाजपा ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ मिल कर उत्तर प्रदेश में पूरी ताकत झोंक दी है. क्षेत्रवार बैठकों का सिलसिला चल रहा है. पूरे प्रदेश में सक्रियता है. रैलियों और सभाओं की अभी से लिस्ट तैयार हो रही है. इसमें वक्ता कौन होंगे, आयोजन की जिम्मेदारियां किन्हें दी जाएंगी और फंड मैनेजमेंट कैसे होगा, इस सबकी कवायद चल रही है. भाजपा का प्रदेश स्तरीय सांगठनिक चयन का काम भी खबर छपते-छपते पूरा हो जाने की संभावना है. चुनावी रैलियों को मुख्य तौर पर अमित शाह, राजनाथ सिंह और कल्याण सिंह संबोधित करेंगे. खास रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आएंगे.