पंजाब में कांग्रेस पार्टी की अंतहीन अंतर्कलह के बीच पार्टी हाइकमान द्वारा दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को राज्य का मुख्‍यमंत्री बनाने के फैसले को ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा जा रहा है, लेकिन यह ‘सियासी मास्टर स्ट्रोक’ होगा या ‘राजनीतिक ब्लंडर’ साबित होगी, यह तो राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव नतीजो से ही पता चलेगा। हालांकि यह फैसला लेकर कांग्रेस ने न केवल पंजाब बल्कि आसन्न विस चुनाव वाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में भी एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की है। ऐसा संदेश, जिसने खुद को दलितों की एकमात्र नेता मानने वाली मायावती को भी चिंता में डाल दिया है। कांग्रेस को उम्मीद है कि दलित सीएम का कार्ड चलकर उसने राज्य में सत्ता के एक प्रमुख दावेदार अकाली दल- बसपा गठबंधन के अरमानो पर खांडा चला दिया है तो दूसरी दावेदार आम आदमी पार्टी को भी निहत्था कर दिया है। पंजाब में बीजेपी का कोई खास वजूद नहीं है। वो अभी भी हाशिए पर डाल दिए गए पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से आस लगाए बैठी है। दूसरी तरफ उसने नए मुख्‍यमंत्री चन्नी पर हमले करने का राजनीतिक उद्दयोग शुरू कर दिया है। चन्नी के सीएम बनने के बाद कांग्रेस की कलह कथा का एक अध्याय भले समाप्त हो गया लगता हो, लेकिन इसी के साथ भीतरी जंग के नए अध्याय की शुरूआत भी हो चुकी है। यही नया अध्याय आगामी चुनाव की पटकथा भी लिखेगा। इसी के साथ पार्टी में राहुल गांधी की निर्णय क्षमता और दूरदर्शिता का परीक्षा परिणाम भी सामने आ जाएगा।

दरअसल चरणजीत सिंह को मुख्यमंत्री बनाना कांग्रेस की अंदरूनी मारकाट पर पैबंद लगाने की कोशिश ज्यादा है, क्योंकि इससे पंजाब कांग्रेस में जारी महत्वाकांक्षाओ के महायुद्ध के सारे मोर्चे शांत हो जाएंगे, यह तो कोई अतिआशावादी भी शायद ही मानेगा। बेशक 58 वर्षीय रविदासिया‍ सिख चरणजीत चन्नी सुशिक्षित और अनुभवी राजनेता हैं। उन पर कुछ आरोप भी है। लेकिन वो कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जो खुद दलित सिखों में सर्वमान्य हो। कैप्टन के सीन से हटने के बाद राज्य में सीएम के लिए जिस तरह कई नाम उछले फिर खारिज‍ किए गए, उस से यह संदेश गया कि खुद कांग्रेस आलाकमान का दिमाग ही साफ नहीं है कि क्या और किस रणनीति के तहत फैसला लिया जाए। पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सिद्धू को मुख्‍यमंत्री पद से दूर रखने के लिए उनके ‘पाकिस्तान प्रेमी’ होने की मिसाइल दाग कर पहले ही हाइकमान को ठिठका दिया था। इसका असर तो चुनाव बाद भी दिखेगा। कैप्टन ने जिस राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दा उछाला, वो भाजपा को ज्यादा सूट करता है। ऐसे में चर्चा चलने लगी कि कैप्टन भाजपा का दामन भी थाम सकते हैं।
यह बात सही है कि देश में आजादी के बाद से अब कुल 7 दलित मुख्यमंत्री ही बन पाए हैं, इनमें से भी 4 कांग्रेस ने ही बनाए हैं। भाजपा जातीय समरसता की बात करती जरूर है, लेकिन दलित सीएम उसने एक भी नहीं बनाया। जबकि देश की कुल आबादी में दलितो की हिस्सेदारी 15 फीसदी से ज्यादा है। उधर कांग्रेस ने जो दलित सीएम बनाए, उनमें से एक को भी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। देश के पहले दलित मुख्‍यमंत्री आंध्र प्रदेश ( अविभाजित) के डी. संजीवैया थे। वो दो साल ही सीएम रह सके। बावजूद इसके कि उन्हीं के नेतृत्व में कांग्रेस आंध्रप्रदेश में 1962 का विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीती थी।

चुनाव जीतते ही राज्य की कमान प्रभावशाली रेड्डी समुदाय से आने वाले नीलम संजीव रेड्डी को सौंप दी गई और संजीवैया को ‍केन्द्र में मं‍त्री बना दिया गया। कांग्रेस के दूसरे दलित सीएम राजस्थान के जगन्नाथ पहाडि़या थे, जो 11 महीने बाद ही हटा दिए गए। यही हाल कांग्रेस के एक और दलित मुख्यमंत्री सुशील ‍शिंदे का हुआ। 2004 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने एनसीपी के साथ सुशील शिंदे की अगुवाई में लड़ा। लेकिन चुनाव जीतते ही शिंदे की रवानगी हो गई और सीएम पद मराठा नेता‍ विलासराव देशमुख को सौंपा गया। शिंदे पौने दो साल ही सीएम रह सके। केवल बसपा सुप्रीमो मायावती ही ऐसी अकेली दलित मुख्‍यमंत्री हैं, जो यूपी में बतौर सीएम पांच साल का संलग कार्यकाल पूरा कर सकीं। देश में छठे दलित सीएम बिहार में (जद) यू के जीतनराम मांझी( बाद में उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली) रहे, जिन्होंने नीतीश कुमार का खड़ाऊं राज पौने दो साल तक चलाया और बाहर हो गए। अब चरणजीत सातवें दलित सीएम हैं, वो कितने दिन पद पर रह पाते हैं, देखने की बात है। माना जा रहा है कि वो भी चुनाव तक के ही मुख्यमंत्री हैं।
वैसे भी राजनीतिक चालें तात्कालिक लक्ष्यों को पूरा करने के उद्देश्य से ज्यादा चली जाती हैं।

सो चरणजीत भी इसी मकसद से लाए गए हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस परिवर्तन से पंजाब में कांग्रेस के दोबारा सत्ता में वापसी का इच्छित लक्ष्य पूरा हो सकेगा? पंजाब में दलितों की आबादी करीब 32 फीसदी है, इनमें भी अधिकांश महजबी सिख हैं। ये सिख भी रविदासिया और वाल्मीकि सम्प्रदायों तथा केशधारी और सहजधारी में बंटे हैं। जबकि राज्य में सिखों की कुल आबादी का आधे जाट (जट्ट) सिख हैं। बाकी में खत्री, अरोड़े व अन्य सिख आते हैं। यूं सिख धर्म में जातिभेद नहीं है, लेकिन हकीकत में दलित सिखों को वो दर्जा और अधिकार प्राप्त नहीं हैं, जो जाट व अन्य सिखो को मिले हुए हैं। कई जगह तो दलित सिखों ने अपने गुरूद्वारे भी अलग बनाए हैं, जिनमें संत रविदास या महर्षि वाल्मीकि की तस्वीरें भी होती हैं। चन्नी को सीएम बनाए जाने से दलित‍ सिखों में अच्छा संदेश जा सकता है, जिसका नुकसान शिरोमणि-अकालीदल बसपा गठजोड़ को हो सकता है। हालांकि दलित सिख वोट एकमुश्त किसी को भी नहीं मिलता रहा है। शिअद-बसपा गठबंधन इस गणित पर बना था कि जाट और दलित सिख मिलकर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर सकते हैं। हालांकि जाट सिख भी कांग्रेस और अकालियों में बंटे हैं। कांग्रेस के दलित कार्ड से यकीनन जाट सिखों में नाराजी है, अगर बड़े पैमाने पर जाट सिख कांग्रेस से नाराज हो गए तो यह सौदा पार्टी को बहुत मंहगा पड़ सकता है। क्योंकि हटाए गए सीएम कैप्टन अमरिंदर भी जाट हैं और सीएम बनने के प्रबल आकांक्षी नवजोत सिंह सिद्धू भी जाट सिख हैं।

हालांकि सिद्धू ने जाट सिखों की राजनीति नहीं की है। वो जहां से चुनाव जीतते हैं, वहां हिंदू वोट बड़ी संख्या में है। खुद अमरिंदर ने भी चन्नी के चयन को मन से स्वीकार नहीं किया है। वो सीएम की शपथ ग्रहण में भी नहीं गए। दूसरे, चन्नी के समर्थन में सभी गैर जाट सिख वोट एकजुट हो जाएं, इसकी संभावना बहुत कम है। इस तरह ‘एंटी पोलराइजेशन’ बीजेपी ने काफी हद तक हरियाणा और महाराष्ट्र में किया है। साथ ही चन्नी के नाम पर ज्यादा हिंदू वोट कांग्रेस को शायद ही मिले । जहां तक सिद्धू के भविष्य में सीएम बनने का सवाल है तो यदि कांग्रेस विधानसभा चुनाव में फिर जीती तो इसके श्रेय को लेकर फिर घमासान मचेगा। यकीनन संभावित जीत का श्रेय दलित सीएम चन्नी के खाते में जाएगा तब चन्नी को हटाना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर होगा। अगर हटाएंगे तो पूरे देश में गलत संदेश जाएगा। और जीत का सेहरा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सिद्धू के सिर बांधने की कोशिश की गई तो नया बवाल मचेगा। यानी सिद्धू कांग्रेस की जीत की स्थिति में भी सीएम शायद ही बन पाएं। फिर सवाल उठेगा कि कांग्रेस में जाकर सिद्धू को क्या हासिल हुआ?
यूं भी कांग्रेस की अंतर्कलह पर चरणजीत कोई मरहम लगा पाएंगें, इसकी संभावना न्यून ही है। क्योंकि इसकी जड़े तो आसमान में हैं। एक घमासान राज्य में उप मुख्‍यमंत्री बनाने को लेकर हो ही चुका है।

मंत्रिमंडल गठन को यह लेकर और गहराएगा। कैप्टन ने भी कांग्रेस अभी छोड़ी नहीं है। असली तलवारें तो चुनाव टिकट बंटवारे को लेकर चलेंगी। सिद्धू हरसंभव कोशिश करेंगे कि कैप्टन समर्थक विधायकों के टिकट काटे जाएं। तब भारी हंगामा होगा और कैप्टन कोई बड़ा कदम उठा सकते हैं। हालांकि कैप्टन की कार्यशैली का भी भारी विरोध रहा है, लेकिन फिर भी वो पंजाब की राजनीति का बड़ा चेहरा हैं। उनकी अपनी जमीनी पकड़ और सियासी समझ है। भाजपा या आम आदमी पार्टी उन्हें लपकने को तैयार बैठी हैं। कैप्टन कांग्रेस छोड़े या न छोड़ें तो भी पार्टी को नुकसान पहुंचाएंगे। यह नुकसान कितना होगा, यह चुनाव नतीजों से ही पता चलेगा। सिद्धू के बारे में तो वो ऑन रिकाॅर्ड कह ही चुके हैं कि वो कांग्रेस के ‘डिजास्टर’ (मुसीबत) साबित होंगे। राहुल गांधी ने शायद युवा और लच्छेदार बातों के कारण सिद्धू पर दांव खेला है। लेकिन राजनीति न तो क्रिकेट मैच है न रियलिटी शो में ठहाके लगाना है और न ही ‘ ओवर ‍एक्टिंग’ का रंगमंच है। जनता केवल देखती ही समझती भी है।

सीएम चन्नी ने भी पद संभालते ही किसानों की बिजली बिल माफी जैसी लोक लुभावन घोषणाएं की हैं। परोक्षत: यह संदेश देने की कोशिश भी है कि कैप्टन की सरकार जनोन्मुखी नहीं थी, लेकिन चन्नी सरकार है। कैप्टन के विपरीत चन्नी ने कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन को खुला समर्थन देकर उस अकाली दल से यह मुद्दा छीनने की ‍कोशिश है, जिसने किसान वोटो को ध्यान में रखकर ही एनडीए से अलग होने भाजपा से बरसों पुराना राजनीतिक रिश्ता तोड़ने का जोखिम भरा फैसला किया। हालांकि पूर्ववर्ती अकाली- भाजपा सरकार भी बहुत बदनाम हो चुकी थी। नई स्थिति में हो सकता है‍ कि ज्यादातर दलित वोट कांग्रेस के पाले में चले जाएं। इसी तरह हिंदू वोट भी भाजपा और कांग्रेस में बंटेंगे। अकेले जाट सिख वोटों के भरोसे अकाली ज्यादा दूर नहीं जा सकते। कुल मिलाकर पंजाब का विधानसभा चुनाव हकीकत और फसाने का बेहद रोचक नजारा होगा। इस चुनाव के नतीजे देश की नई राजनीति को भी सेट करेंगे। अंत में सवाल वही कि क्या चरणजीत चन्नी चुनावी तरणजीत भी साबित होंगे?

Adv from Sponsors