इस वर्ष जुलाई में राष्ट्रपति का चुनाव होगा. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का निर्विवादित कार्यकाल खत्म होने जा रहा है. वे एक शानदार राष्ट्रपति के रूप में याद किए जाएंगे. आजादी के बाद शुरुआती दौर में राष्ट्रपति कोई राजनीतिक पद नहीं माना गया. डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन व जाकिर हुसैन जैसे महापुरुषों ने राष्ट्रपति पद की शोभा बढ़ाई.
लेकिन समाज और राजनीति के गिरते स्तर के साथ राष्ट्रपति के पद का भी राजनीतिकरण हुआ. भारत में अब न तो वो राजनीतिक संस्कृति बची है और न ही वैसे राजनेता हैं, जो राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद की गरिमा को बचाने के लिए कोई छोटी सी भी पहल करें. संकुचित राजनीतिक संस्कृति के दौर में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम एक अपवाद थे.
वे एक सर्वसम्मति से चुने हुए राष्ट्रपति थे. अच्छा तो ये होता कि इस बार भी कंसेंसस यानि सर्वसम्मति से उम्मीदवार को चुना जाता, लेकिन वर्तमान राजनीति का मिजाज ऐसा है, जिसमें इसकी कल्पना करना भी हास्यास्पद है. संभावना इस बात की है कि भारतीय जनता पार्टी की तरफ से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बना कर राजनीतिक-ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाया जाएगा.
भारतीय जनता पार्टी और मोदी सरकार के लिए राष्ट्रपति चुनाव न सिर्फ महत्वपूर्ण है, बल्कि इस चुनाव से उनकी प्रतिष्ठा भी जुड़ी हुई है. भारतीय जनता पार्टी के लिए यह चुनाव महत्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि देश का राजनीतिक माहौल ध्रुवीकरण की ओर अग्रसर है. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी किसी ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति के रूप में नहीं स्वीकार कर सकती है, जो उनकी विचारधारा में विश्वास करने वाला नहीं हो, या जो सरकार के खिलाफ सार्वजनिक रूप से अपनी नापसंदगी या असंतोष व्यक्त कर दे.
इसलिए ये उम्मीद करनी चाहिए कि इंदिरा गांधी के बाद के कांग्रेस से सीख लेते हुए भारतीय जनता पार्टी भी एक ऐसे उम्मीदवार को राष्ट्रपति बनाना चाहेगी, जो वाकई में महज नाममात्र हो. इसलिए अब बस यही सवाल बचा है कि क्या राष्ट्रपति का उम्मीदवार भारतीय जनता पार्टी का होगा? क्या वो व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि का होगा? या फिर भारतीय जनता पार्टी किसी गैर राजनीतिक पेशवर व्यक्ति को सामने लाएगी?
भारतीय जनता पार्टी के अंदर राष्ट्रपति को लेकर अभी काफी उहापोह की स्थिति है. कई लोग लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज के नाम को संभावित उम्मीदवार के रूप में देख रहे हैं. लेकिन जो लोग नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कार्य-प्रणाली से परिचित हैं, उन्हें पता है कि भारतीय जनता पार्टी के किसी भी ऐसे वरिष्ठ राजनेता को राष्ट्रपति की कुर्सी तक नहीं पहुंचने दिया जाएगा, जिनके राजनीतिक-रिश्ते प्रधानमंत्री के साथ अच्छे नहीं हैं.
लालकृष्ण आडवाणी की उम्र और यदा-कदा सरकार को नसीहत देने वाले बयानों की वजह से उन्हें इस पद के लिए चुनना शायद प्रधानमंत्री को स्वीकार्य नहीं होगा. मुरली मनोहर जोशी को पद्मविभूषण से सम्मानित कर उन्हें इस रेस से बाहर कर दिया गया है. हालांकि उन्होंने संघ के अधिकारियों के साथ मिल कर बहुत कोशिश की है और अभी भी प्रयासरत हैं. कयास ये भी लगाया जा रहा है कि सुषमा स्वराज के नाम पर विचार हो रहा है. वे पार्टी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह से वरिष्ठ रही हैं और यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हो सकती है.
उनके नाम पर विचार हो सकता है, अगर चुनाव का अंकगणित भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में न हो. राजनीतिक हलकों में ये भी अफवाह है कि प्रणब मुखर्जी को फिर से चुना जा सकता है. दरअसल, ये अफवाह ही है. अगर भारतीय जनता पार्टी अपने बलबूते चुनाव जीतने लायक वोट मैनेज कर लेती है, तो नरेंद्र मोदी अपने पसंदीदा किसी गैर राजनीतिक पेशेवर व्यक्ति या फिर संघ की पृष्ठभूमि के किसी दलित नेता को सामने रख कर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ेंगे.
अब सवाल ये है कि क्या भारतीय जनता पार्टी के पास अपने बूते पर राष्ट्रपति चुनाव जीतने की क्षमता है? इस सवाल का सीधा जवाब है… नहीं. पूरे देश की नजर फिलहाल पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव पर टिकी है. लेकिन मीडिया का ध्यान अभी तक इस पर नहीं गया है कि इन विधानसभा चुनावों का राष्ट्रपति चुनाव से क्या रिश्ता है. यहां बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के राजनीतिक अनुभव की तारीफ करनी पड़ेगी.
उन्होंने ही सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी की इस कमी को सामने रखा और विपक्षी पार्टियों को एकजुट होकर भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त देने की पहल की है. जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, उनमें राष्ट्रपति चुनाव के लिए कुल मिला कर 1,03,757 वोट हैं. मतलब यह कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी न सिर्फ विधानसभा चुनाव लड़ रही है, बल्कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोट भी इकट्टा कर रही है.
राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए भारतीय जनता पार्टी को पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में भारी संख्या में विधायक जिताने होंगे. खासकर, उत्तर प्रदेश में बहुत बढ़िया प्रदर्शन करना होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रपति चुनाव में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
जहां तक भारतीय जनता पार्टी की स्थिति है, तो इनके पास लोकसभा में बहुमत है, साथ ही 12 राज्यों में इनकी सरकार है. भारतीय जनता पार्टी के पास फिलहाल इतने वोट नहीं हैं, जिससे ये अपने मनमुताबिक राष्ट्रपति बना सकें.
राष्ट्रपति चुनाव का अंकगणित इतना पेचीदा है कि भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ेगी. राष्ट्रपति चुनाव में कुल 10.98 लाख वोट पड़ते हैं. इसमें से आधा वोट सांसदों का है और आधा देश भर के विधायकों का है.
राष्ट्रपति चुनाव में कुल 4,896 लोग वोट डालेंगे. इनमें से 776 लोकसभा और राज्यसभा के सांसद हैं और बाकी 4120 देश भर के विधायक हैं. फिलहाल भारतीय जनता पार्टी के पास लोकसभा में 282 और राज्यसभा में 56 सांसद हैं और देश भर में कुल 1126 विधायक हैं. राष्ट्रपति चुनाव में हर सांसद के वोट की वैल्यू 708 है. भारतीय जनता पार्टी को अगर अपने उम्मीदवार को जिताना है, तो इन्हें 5.49 लाख वोट चाहिए होगा, जो फिलहाल इनके पास नहीं है.
भारतीय जनता पार्टी के साथ इनके गठबंधन सहयोगियों को भी मिला लें, यानि अगर नेशलनल डेमोक्रेटिक एलाएंस के वोट को एक साथ रखें, तो भी इनके पास राष्ट्रपति चुनाव के लिए पड़ने वाले पूरे वोट का 50 फीसदी आंकड़ा नहीं है. भारतीय जनता पार्टी को अभी कम से कम 75,000 वोटों की जरूरत है. इसके लिए इन्हें उत्तर प्रदेश में भारी बहुमत से चुनाव जीतना पड़ेगा.
वरना उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने से तो हाथ धोना ही पड़ेगा, राष्ट्रपति चुनाव जीतने में भी कठिनाई पैदा हो जाएगी. राष्ट्रपति चुनाव के नजरिए से उत्तर प्रदेश का चुनाव सबसे महत्वपूर्ण बन गया है. राष्ट्रपति चुनाव में पड़ने वाले सबसे ज्यादा वोट उत्तर प्रदेश में हैं. इस राज्य में हर विधायक के पास 208 वोट हैं, यानि राष्ट्रपति चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में कुल 83,824 वोट हैं.
उत्तर प्रदेश का चुनाव इतना महत्वपूर्ण है कि भारतीय जनता पार्टी का खराब प्रदर्शन राष्ट्रपति चुनाव में उसके लिए महंगा पड़ सकता है. ऐसे हालात में भारतीय जनता पार्टी क्षेत्रीय दलों की मदद ले सकती है. लेकिन तब उन्हें उम्मीदवार के चुनाव में समर्थन देने वाली पार्टियों के साथ सहमत होना पड़ेगा. दूसरी मुसीबत ये है कि क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सामंजस्य बनाने में भी परेशानी होगी.
ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के साथ भारतीय जनता पार्टी के रिश्ते अच्छे नहीं हैं. वामपंथी पार्टियों का साथ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा, इसकी भी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. यानि कि पश्चिम बंगाल से भारतीय जनता पार्टी के लिए कोई मदद नहीं मिलेगी. ओडीशा के स्थानीय चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का जिस तरह का प्रदर्शन रहा है, उससे नवीन पटनायक सहम चुके हैं.
इसलिए बीजेडी से भी भारतीय जनता पार्टी को कोई मदद नहीं मिलने वाली है. शिव सेना से भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रपति चुनाव में मदद मिलेगी, इस पर सिर्फ कयास ही लगाया जा सकता है. हालांकि तमिलनाडु से एआईडीएमके की मदद मिल सकती है, लेकिन उसके अलावा किसी अन्य पार्टी से भारतीय जनता पार्टी को उम्मीद नहीं होगी.
भारतीय जनता पार्टी और एनडीए को समर्थन जुटाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी अपनी पसंद के किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने में फिलहाल अक्षम है. यही वजह है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्षी पार्टियों को राष्ट्रपति चुनाव के लिए एकजुट होने की अपील की है. नीतीश ने हाल ही में शरद पवार की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी, वाममोर्चा और इंडियन नेशलन लोकदल के नेताओं से दिल्ली में बातचीत की.
नीतीश कुमार ने यह चिंता जताई है कि भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति बना सकती है. इसलिए विपक्ष की तरफ से एक उम्मीदवार को खड़ा करना जरूरी है. नीतीश कुमार एक अनुभवी नेता हैं. उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के महत्व और भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी का सटीक आकलन कर एक राजनीतिक पहल किया है.
राजनीतिक तौर पर राष्ट्रपति चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू ये है कि इस चुनाव में कोई भी पार्टी व्हिप जारी नहीं कर सकती है. यानि ये जरूरी नहीं है कि किसी भी पार्टी के सदस्य उस पार्टी द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवार को ही वोट करेंगे. मतदान गुप्त होता है. यह पता नहीं चल पाता है कि किस सांसद/विधायक ने किस उम्मीदवार को वोट दिया. ये पहलू भारतीय जनता पार्टी के लिए मुसीबत का सबब बन सकता है. माना यह जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के कई सांसद और विधायक पार्टी की कार्य-प्रणाली से नाराज हैं.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह जिस तरह से सरकार और पार्टी को चला रहे हैं, उससे वे खफा हैं. विपक्षी पार्टियों को भी भारतीय जनता पार्टी की इस दरार के बारे में पता है. अगर विपक्षी पार्टियां एक सुदृढ़ रणनीति और सूझबूझ के साथ आगे बढ़ती हैं और भारतीय जनता पार्टी के इस अंतर्कलह का फायदा उठाने की कोशिश करती हैं, तो राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले हो सकते है.
राष्ट्रपति चुनाव विपक्ष के लिए एक मौका है, जब वो भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त दे सकता है. हालांकि इसके लिए विपक्षी पार्टियों को एकजुट होना होगा और अपना एक सर्वसम्मत उम्मीदवार तय करना होगा. विपक्षी दलों में से किसी एक नेता या एक गुट को लीडरशिप लेनी होगी, जिसके लिए नीतीश कुमार ने पहल की है. अब देखना ये है कि क्या नीतीश कुमार की इस पहल को विपक्ष का समर्थन मिलता है, या फिर विपक्ष भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त देने के इस मौके को गंवा देता है.
ऐसे चुने जाते हैं राष्ट्रपति
किसी भी संघीय प्रजातांत्रिक गणराज्य में राष्ट्रपति का चुनाव जनता के द्वारा किया जाता है. लेकिन भारत में राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष मतदान के जरिए होता है. मतलब यह कि राष्ट्रपति का चुनाव जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के द्वारा होता है. इसमें दोनों सदनों के चुने हुए सांसद और देश के हर राज्य के चुने हुए विधायक हिस्सा लेते हैं. इसमें मनोनित सांसद और विधानपरिषद के सदस्य हिस्सा नहीं ले सकते हैं. राष्ट्रपति चुनाव में कुल 10.98 लाख वोट पड़ते हैं.
इसमें से आधा वोट सांसदों का है और आधा देश भर के विधायकों का है. राष्ट्रपति चुनाव में कुल 4,896 लोग वोट डालते हैं. इनमें से 776 लोकसभा और राज्यसभा के सांसद हैं और बाकी 4,120 देश भर के विधायक हैं. समझने वाली बात ये है कि अलग-अलग राज्यों के विधायकों के पास एक जैसा वोट नहीं होता. सासंदों और विधायकों की वोटिंग की वोटिंग वैल्यू में भी अंतर होता है.
राष्ट्रपति का चुनाव एक खास तरीके से किया जाता है. राष्ट्रपति चुनाव के मतदाताओं का मत एक बराबर नहीं होता है. अलग-अलग मतदाताओं के वोटों की संख्या अलग-अलग होती है. राष्ट्रपति चुनाव में सभी निर्वाचित सांसद और सभी राज्यों के विधायक वोट देते हैं. सांसदों के वोट की वैल्यू तो समान होती है, लेकिन हर राज्य के विधायक के वोट की वैल्यू अलग-अलग होती है. विधायकों के वोट की वैल्यू उस राज्य की जनसंख्या और विधायकों की संख्या पर निर्भर होती है.
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1.2 अरब है, लेकिन चुनाव के लिए 1971 की जनगणना के आंकड़ों को आधार माना जाता है. 2026 तक 1971 की जनगणना के आधार पर ही चुनाव संपन्न होंगे. सांसदों के वोट की वैल्यू विधायकों के वोट से ज्यादा होती है. हर राज्य के विधायकों के वोट भी बराबर नहीं होते हैं. बड़े राज्यों के विधायकों के वोट की वैल्यू ज्यादा होती है. एक और बात, दोनों सदनों के निर्वाचित सांसदों के वोट की वैल्यू सभी राज्यों के विधायकों की कुल वोट वैल्यू के बराबर होती है.
एक राज्य के विधायक के वोट की वैल्यू यानी संख्या निकालने के लिए 1971 की जनगणना के अनुसार, राज्य की जनसंख्या को वहां की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग दिया जाता है. परिणाम में आई हुई संख्या को 1,000 से भाग दिया जाता है. इससे जो संख्या आती है, वही उस राज्य के एक विधायक के वोट की वैल्यू होगी.
इस तरह प्रत्येक राज्य के विधायकों के वोट की वैल्यू निकाली जाती है. जैसे कि उत्तर प्रदेश के एक विधायक के वोट की वैल्यू 208 है और बिहार के विधायक की वोट वैल्यू 173 है, वहीं मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के विधायकों की वोट वैल्यू सिर्फ 8 है. इस तरह जनसंख्या के आधार पर हर राज्य की भागादारी सुनिश्चित हो जाती है. सांसदों के वोट की वैल्यू विधायकों से ज्यादा होती है.
इसकी वजह यह है कि सांसद पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए देश के सभी राज्यों के विधायकों के वोट और सांसदों के वोट को बराबर माना गया है. सांसदों के वोट की वैल्यू निकालने के लिए सबसे पहले देश के हर राज्य के विधायकों के वोट का ग्रैंड-टोटाल किया जाता है और लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग दिया जाता है. इससे जो परिणाम आता है वह एक सांसद के वोट की वैल्यू होती है.
आम चुनाव और राष्ट्रपति के चुनाव में एक और बड़ा फर्क है. आम चुनाव में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला उम्मीदवार जीत जाता है. जबकि राष्ट्रपति चुनाव को जीतने के लिए 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट पाना आवश्यक होता है. मतलब यह कि 50 प्रतिशत के अलावा 1 और वोट उम्मीदवार के पक्ष में आना जरूरी है. राष्ट्रपति पद का चुनाव मल्टी कैंडिडेट इलेक्शन होता है, यानी इस चुनाव में दो से ज्यादा उम्मीदवार खड़े हो सकते हैं.
इसलिए ज्यादातर यह संभव नहीं है कि किसी भी उम्मीदवार को निर्वाचन के लिए 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिल सके. इसलिए ट्रांसफरेबल वोटिंग सिस्टम का प्रावधान है. देश के छठवें राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी इस मामले में अपवाद रहे हैं. वे ऐसे राष्ट्रपति हुए, जिनके खिलाफ कोई अन्य प्रत्याशी खड़ा नहीं हुआ था और इसीलिए वे निर्विरोध यानी अनअपोज्ड राष्ट्रपति बने थे.
राष्ट्रपति चुनाव में प्रिफ्रेंसियल सिस्टम वोटिंग होती है, यानि मतदाताओं के लिए यह जरूरी होता है कि वे अपनी पसंद के क्रम के अनुसार सभी प्रत्याशियों को वोट दें. उदाहरण के लिए, मान लें कि कुल चार उम्मीदवार हैं, तो मतदाताओं को अपनी इच्छा से पहली पसंद, दूसरी पसंद, तीसरी और फिर चौथी पसंद के क्रम के अनुसार वोट देने होंगे.
अगर पहली गिनती में एक को 30 फीसदी, दूसरे को 12 फीसदी, तीसरे को 40 फीसदी और चौथे को 18 फीसदी वोट मिले, तो ऐसी स्थिति में सबसे कम वोट पाने वाले उम्मीदवार को चुनाव प्रक्रिया से बाहर कर दिया जाता है और उसके वोटों में मिले हुए सेकेड प्रिफ्रेंस के वोट को उस उम्मीदवार के वोटों में शामिल कर दिया जाता है.
एलिमिनेशन की यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है, जब तक किसी भी उम्मीदवार को 50 प्रतिशत से ज़्यादा वोट न मिल जाएं. हालांकि भारत में राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास में सिर्फ एक बार दूसरे दौर की गिनती की गई है. वर्ष 1969 में सेकेड प्रिफ्रेंस के हिसाब से वी वी गिरि निर्वाचित घोषित किए गए थे. यह एक अपवाद है. इसके अलावा आज तक सेकेंड प्रिफ्रेंस के वोटों की गिनती की आवश्यकता नहीं पड़ी है.