न जाने क्यों इस बार बैंड-बाजों और बारातों का शोर भी गर्मियों में कोयल की कूक की माफिक महसूस हो रहा है। वरना शादियों के सीजन में कान फोड़ू डीजे, लगातार बजते बैंड-बाजों और बारातियों के बेलगाम डांस से सिर दुखने लगता था। इस दफा भी सब वही है, लेकिन बदले अंदाज में है। क्योंकि कोरोना प्रकोप के कारण इस साल की गर्मियां बेहद डरावने सन्नाटे में बीतीं। यूं उन दिनो हवा और आकाश प्रदूषण मुक्त था, लेकिन वह प्रदूषणरहित सन्नाटा भी दहशत और आशंका से भरा था। डर अभी है, लेकिन लोग अब डर को मस्ती और उल्लास के चुल्लू में डुबो देना चाहते हैं। लगा कि जिंदगी पटरी पर लौटने लगी है। हर बारात के साथ सिर पर निर्विकार चेहरों के साथ चमकीली लाइटें ढोने वालों के जीवन में फिर आशा की किरण लौट आई है। एक अनुमान के मुताबिक इस देश में औसतन हर साल करीब अलग धर्म सम्प्रदायों में करीब 1 करोड़ शादियां होती हैं। एक शादी में न्यूनतम 50 लोग भी शामिल होते हों तो प्रति वर्ष देश की लगभग एक तिहाई आबादी शादी समारोहों की हिस्सेदार और साक्षी बनती है। लेकिन कोरोना टाइम के 8 माह के गैप के बाद पहली बार अहसास हुआ कि हमारे देश में विवाह उद्योग कितना बड़ा है। उसकी पैठ कहां-कहां तक है। किन किन लोगों के पेट इससे जुड़े हुए हैं। यूं कहने तो विवाह दो आत्माओं का मिलन या दो जिंदगियों का अनुबंध है, लेकिन इस मिलन पर भी लाखों जिंदगियां पलती हैं।
कोविड 19 ने पूरी दुनिया के निजाम के साथ साथ पंडितों दवारा बनाए गए उन कैलेंडरों को भी झुठला दिया, जिनमें साल में विवाह के शुभ मुहूर्त बताए गए थे। देश में लाॅक डाउन इस वर्ष मार्च के अंतिम सप्ताह में लगा। उसके बाद 2020 के हिंदू पंचांगों में अप्रैल माह में 4 और मई में 12 विवाह के शुभ मुहूर्त थे। अब ये सवाल बेमानी है कि अगर कोरोना का प्रकोप होने वाला था तो ये मुहूर्त ‘शुभ’ कैसे थे? क्या पंडितों को अंदाजा नहीं था कि मार्च के बाद दुनिया में महामारी की भीषण आपदा आने वाली है। खैर।
लाॅक डाउन ने पूरी व्यवस्था के साथ विवाह उद्योग पर भी ऐसे ताले डाले कि सालाना 3 लाख करोड़ रू. की इंडस्ट्री कराह उठी। भारतीय विवाह उद्योग विश्व में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर का उददयोग है। जानकारों के मुताबिक इस उद्योग को कोरोना की वजह से 45 हजार करोड़ रू. का नुकसान उठाना पड़ा है। लाखों लोगों का रोजगार ठप हो गया। हो सकता है कि कुछ लोग इसे पैसे की बचत की शक्ल में देखें। विवाह जैसे संस्कार को सादगी से करने के पक्षधर अक्सर तर्क देते हैं कि विवाह न्यूनतम खर्च में किया जाए, क्योंकि यह संस्कार है, कोई जलसा नहीं। सही है, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि यही विवाह उद्योग इस देश में 1 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार भी देता है। यह रोजगार कई रूपो में होता है। केटरर, होटल, इवेंट मैनेजमेंट, कपड़े, जूते, आभूषण, परिवहन, फ्लावर डेकोरेशन,टेंट,लाइटिंग, मैरेज गार्डन, मिठाई, साफे वाले और बैंड बाजे से लेकर पंडित तक किसी न किसी रूप में इस उद्योग पर आश्रित हैं। यानी एक औसत खर्च में किया गया विवाह भी तकरीबन ढाई सौ लोगों का पेट भरता है। ये वो लोग हैं, जो शादियों के सीजन पर ही जीते हैं। यह बात भी सच है कि पिछले कुछ सालों में विवाह ऐश्वर्य के प्रदर्शन का जरिया बनने लगे थे। कई लोगों को हैसियत से बाहर जाकर यह सब करना पड़ता था। पारंपरिक विवाह संस्कार के साथ डेस्टिनेशन वेडिंग और कुछ अलग हटकर शादी करने का चलन बढ़ रहा था। शादियां संस्कार कम, इवेंट में ज्यादा तब्दील होती जा रही थीं। इसमें वर और वधू द्वारा एक दूसरे का जीवनभर साथ निभाने की वचनबद्धता कम और सुखी जताने का अभिनय ज्यादा परिलक्षित होने लगा था। कोरोना ने उन सब पर इमर्जेंसी ब्रेक लगा दिया, जो एक दृष्टि से अच्छा ही था, क्योंकि हम संस्कार की पवित्रता को ट्रैश में डालने लगे थे और एक अपवित्र सी लगती हवा फिजा में घुलने लगी थी।
इसी के बरक्स एक वो तस्वीर भी थी, जिनकी जिंदगी में कोरोना ने अंधेरा भर दिया था। यूं कहने को पंचांग में मुहूर्त थे, लेकिन समय शुभ नहीं था। जिनकी शादियों की पहले से बुकिंग हो चुकी थी, उन्होंने कैंसल कर दी। कुछ लोगों ने मास्क लगाकर अग्नि के फेरे ले लिए तो कुछ ने रजिस्टर्ड मैरेज कर रस्म अदायगी की। एक संदेश यह भी गया कि विवाह संस्कार पूरा करने के लिए एक लड़का, एक लड़की, एक पुरोहित और चंद रिश्तेदारों के अलावा और क्या चाहिए? यह सब तो एक साड़ी,नारियल, सिंदूर और सात फेरों में ही सम्पन्न हो सकता है। फिर इतना तामझाम क्यों? सम्पन्नता का दिखावा क्यों? फिजूलखर्ची क्यों? सुखी दाम्पत्य तो पति पत्नी की आपसी समझ और परस्पर विश्वास की बुनियाद पर खड़ा होता है, फिर यह सब झांकीबाजी क्यों? लिफाफों में लिपटी शुभकामनाएं और गुलदस्तों में महकती मुबारकबादें क्यों?
बेशक, यह सब तो केवल रस्म अदायगी के तौर पर भी सम्पन्न हो सकता है। लेकिन हम समाज में रहते हैं और दूल्हा-दूल्हन के रिश्तों के अलावा सामाजिक सम्बन्ध भी उतने ही अहम हैं। रिश्ते नातेदारों और परिचितों की विवाह में मौजूदगी इस पवित्र बंधन की अलिखित रजिस्ट्री है, जिस पर शुभकामनाओं के हस्ताक्षर और नवजीवन की गवाही होती है। कोरोना की सोशल डिस्टेसिंग ने दरअसल इसी संवेदना को डेंट किया। अभी भी बहुत से लोग विवाह समारोहों में जाने से बच रहे हैं कि न जाने क्या हो जाए। ये डर निराधार भी नहीं है, लेकिन जीवन ऐसे स्टाॅप डेम से नहीं रूकता।
इस बार देवउठनी ग्यारस के साथ-साथ विवाह उद्योग के भाग्य भी कुछ जगते से लगे। हिंदू पंचांग में 2020 के आखिरी माह दिसंबर में शादी के कुल 6 मुहूर्त ही हैं। ऐसे में मस्ती के साथ बैंड बजाने वालों, ढोल बजाने वालों, डीजे की ताल पर बेताल नाचने वालों, घोडि़यों, बग्घियों और मास्क हटाकर इसी दुनिया को फिर से निहारने वालों ने कोरोना की हताशा को निकाल फेंका है। हालांकि यह कोरोना गाइड लाइन का उल्लंघन भी है, लेकिन जिंदगी की तासीर ही है कि वह नियमों के बंधनों में जीना नहीं जानती।
इधर देश में कोरोना वैक्सीन जल्द आने की आहट है तो उधर 2021 के पंचाग में विवाह के शुभ मुहूर्तों की भी भरमार है। अगले साल मई में तो लगभग हर दूसरे दिन जयमाल गले में डाली सकती है। स्वास्थ्य चिंताओं के बीच यह राहत देने वाली खबर है कि सड़कों पर नागिन डांस फिर से होने लगा है। सर्दियों को ठेंगा दिखाती महिलाओं के डिजाइनर कपड़े फिर झिलमिलाने लगे हैं। सूनी पड़ी चूडि़यों और जेवर की दुकानों में चहल पहल बढ़ गई है। ब्यूटी पार्लरों की ब्यूटी लौटने लगी है। बैंड वालों ने खूंटी पर टंगे अपने साज फिर उतार लिए हैं। मैरिज गार्डनों की मुर्दनी छंटने लगी है। कुछ हिचक के साथ ही सही, लोग फिर एक दूसरे से मिलने लगे हैं,सुख-दुख के बारे में रूबरू बतियाने लगे हैं। व्हाट्स ऐप और मोबाइल सम्पर्कों में सिमटी जिंदगी फिर कुछ आजाद होने लगी है। नाते-रिश्ते रिफ्रेश होने लगे हैं। कहते हैं कि संस्कृत में विवाह शब्द का अर्थ ही है, विशेष उत्तरदायित्व का निर्वाह। विवाह संस्कार के साथ साथ उत्सव भी तो है। यह उत्सव रिश्तों का है, हमारी सामाजिकता का है, दायित्व बोध का है। निर्भयता का है। आलोचना तो इन शादियों की भी हो रही हैं, लेकिन विवाह उत्सव का अर्थ केवल ‘अर्थ’ की सीमा से परे है। क्या आपको नहीं लगता ?
वरिष्ठ संपादक
सुबह सवेरे’
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