अगर मध्यप्रदेश की बात करें तो मानसून का मिजाज उस नेट कनेक्शन की तरह हो गया है, जो जाने के बाद फिर आने का नाम ही नहीं ले रहा। मौसम विभाग की भविष्यवाणी और हकीकत में बादलों के बरसने के बीच वही रिश्ता है जो झूठे आशिक और उसकी माशूका के बीच होता है। आलम यह है कि आधा आषाढ़ बीत चुका है, बादलों की जानलेवा चमक तो दिखाई दे रही है, लेकिन झमाझम बारिश को धरती अभी तरसी हुई है। देश की राजधानी दिल्ली में तो मई जून सी गर्मी और भयंकर उमस है। वहां केवल राजनीतिक बादल गरज रहे हैं, लेकिन असली बादलों की बरसात को लोग तरस गए हैं। हालांकि बीती रात कुछ पानी गिरा है।

वैसे यह शायद पहला मौका है, जब मौसम विभाग ने आधिकारिक तौर पर माना है कि दिल्ली में मानसून पहुंचने की उसकी सारी भविष्यवाणियां गलत साबित हुई हैं। मौसम विभाग ने इस नाकामी पर खुद हैरानी जताते हुए इसे ‘विरल’ घटना बताया है। मौसम विभाग ने कहा कि उसके नए मॉडल विश्लेषण से संकेत मिला था कि बंगाल की खाड़ी से निचले स्तर पर नम पूर्वी हवाएं 10 जुलाई को पंजाब और हरियाणा होते हुए उत्तर पश्चिम भारत में फैल जाएंगी। लेकिन वैसा नहीं हुआ।

विभाग के दावे की एक बड़ी वजह पिछले कुछ सालों से मौसम की ‍भविष्यवाणी के लिए ‘न्यूमेरिकल वेदर माॅडल’ ( संख्यात्मक मौसम माॅडल) अपनाना भी था। लेकिन वह भी दगा दे गया। वैसे भी दिल्ली का ठीक ठीक मिजाज कौन समझ पाया है, सो मौसम विभाग भी जान लेता। अलबत्ता विभाग पिछले कुछ दिनो से चेता रहा था कि मानसून दिल्ली अब पहुंचा, तब पहुंचा। लेकिन एक दो फुटकर बारिशों के बाद मानसून गुजरात निकल लिया। अब आप यह न कहें कि इस देश में आजकल हर बात गुजरात से शुरू होकर गुजरात पर ही खतम क्यों होती है?

यूं मानसून का मिजाज और तासीर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग है, जहां मैदानी इलाको के लोग बारिश को तरस गए हैं, वहीं पहाड़ी राज्यों में बादल फट रहे हैं। मानसून चाहता क्या है, यही समझना मुश्किल है। हालत यह है कि कुछ दिन पहले जिस मानसून‍ सिस्टम से मप्र में झमाझम बारिश की भविष्यवाणी थी, वो अचानक मुंह फेर कर गुजरात रवाना हो गया। इधर घटाएं छा तो रही हैं, लेकिन जानलेवा उमस बढ़ाकर अोझल भी हो रही हैं। खेतो में फसलें सूखने लगी हैं और राज्य के महज दो बांध ही अभी तक भर पाए हैं। नर्मदा सहित कई नदियां मीडिया में अपनी उफनती हुई तस्वीरे देखने को बेताब हैं। कुछ शहरों में जलसंकट भी दस्तक देने लगा है।

उधर तेज गर्मी और उमस के कारण बेहाल लोग मौसमी बीमारियों से ग्रस्त होने लगे हैं। कोरोना से जो थोड़ी राहत मिली थी, उसे दूसरी सीजनल बीमारियों ने रिप्लेस करना शुरू कर दिया है। करे तो क्या करें? अगर समय पर पानी नहीं गिरा तो बहुत से गणित गड़बड़ा जाएंगे। हालांकि मौसम विभाग ने अगले हफ्ते फिर एक नया सिस्टम बनने और अच्छी बारिश की बात कह के विटामिन की गोली देने की ‍कोशिश की है।

हर मानसून में यह सवाल किसी परीक्षा के स्थायी प्रश्न की तरह कौंधता है कि मौसम विभाग की भविष्यवाणियां अक्सर गलत साबित क्यों होती हैं? खासकर भारत के बारे में तो कई लोग मौसम विभाग से ज्यादा ज्योतिषियों या गांव के बुजुर्गों के तजुर्बे पर भरोसा करते हैं। हो सकता है कि खुद मौसम को मौसम विभाग को छकाने में मजा आता हो। मौस‍म विशेषज्ञों का कहना है कि इस विरोधाभास के पीछे भारत की भौगोलिक स्थिति बड़ा कारण है। माना जाता है ‍िक मौसम विभाग की भविष्यवाणियां उन देशों या स्थानों के बारे में ज्यादा सटीक बैठती हैं, जहां प्राय: एक सा मौसम ही रहता है। जबकि भारत का उत्तरी हिस्सा उपउष्णकटिबंधीय जोन में पड़ता है तो दक्षिणी भाग उष्णकटिबंधीय जोन में। हिमालय से लगे इलाकों में स्थिति और अलग होती है।

ऐसे में मौसम की चाल भी भटक जाती है। बावजूद इस हकीकत के कि मौसम विभाग का दावा है कि पहले की तुलना में उसकी भविष्यवाणियां अब ज्यादा सटीक हैं। विभाग के मुताबिक पहले मौसम की भविष्यवाणी सटीक होने का प्रतिशत 60 फीसदी तक था, जो अब 80 फीसदी है। यानी 20 फीसदी मामला अभी भी राम भरोसे है। विभाग का यह भी कहना है कि मौसम की ज्यादा विश्वसनीय भविष्यवाणी की वजह हाल के वर्षों में अपनाया न्यूमेरिकल वेदर माॅडल है। इसे संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान ( एनडब्ल्यूएफ) भी कहते हैं। इसके तहत मौसम का दिन प्रतिदिन का डाटा एकत्र कर उसे कम्प्यूटर माॅडल से प्रोसेस किया जाता है। विभाग ने इसके लिए देश भर में सौ डाॅप्लर और राडार लगाए हैं।

जो स्थानीय मौसम की पल-पल की जानकारी रखते हैं। हालांकि और अधिक सटीक भविष्यवाणी के लिए ज्यादा डाॅप्लर और राडारों की आवश्यकता है। लेकिन जो बताया जाता है, वो भी खरा कम ही उतरता है। शायद इसलिए भी क्योंकि मौसम किसी विभाग के निर्देश या माॅडल के अनुसार न तो चलता है न बदलता है। वो कोविड की माफिक कब रंग बदल ले, कहा नहीं जा सकता। विभाग जो भविष्यवाणी करता है, वो अमूमन मौसम के नियमित डाटा और चरित्र के आधार पर होता है, लेकिन कब बादल रिमझिम बरसेंगे, कब झमाझम में तब्दील होंगे और कब फट पड़ेंगे, कब झांसा देकर निकल लेंगे, इसका सही-सही अंदाजा लगाना बेहद कठिन है।

उदाहरण के लिए मौसम विभाग ने दो दिन पूर्व कहा था कि बंगाल की खाड़ी में जिस सिस्टम से मध्यप्रदेश को भिगोने की संभावना बनी थी। वह काफी तेजी से मूव होकर गुजरात की ओर बढ़ गया। अभी अरब सागर से जो नमी आ रही है, उसी के कारण बारिश हो रही है। मानसून तो एक्टिव है, लोकल सिस्टम से ही अभी बारिश होती रहेगी। यही कारण है कि बारिश टुकड़ों में हो रही है। हवा की दिशा भी लगातार बदलती जा रही है। बताया जाता है कि बंगाल की खाड़ी में एक और सिस्टम डेवलप हो रहा है, लेकिन यह भी मप्र के नीचे से मूव करते हुए ओडिशा से विदर्भ और फिर गुजरात की ओर बढ़ जाएगा।

लेकिन मौसम की सही और सटीक भविष्यवाणी का अपना आर्थिक और राजनीतिक महत्व भी है। यही कारण है कि अमेरिका ने 12 साल पहले मौसम की सटीक भविष्यवाणी के लिए जरूरी तंत्र बनाने पर 5.1 अरब डाॅलर खर्च‍ किए थे। भारत में मौसम विभाग की भविष्यवाणी हर समय गलत ही हो, ऐसा नहीं है। कई बार उसकी चेतावनियां समय रहते सचेत करने वाली भी होती है। इसके बाद भी जनमानस में विभाग की छवि ‘ कहता कुछ और होता कुछ’वाली ज्यादा है। खासकर किसान अगर मौसम विभाग के हिसाब से चले और उन्हें नुकसान न हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है। वैसे भी ग्लोबल वार्मिंग ने मौसम के चरित्र को भी बदल कर रख दिया है।

अब वह वैसा ही व्यवहार करे , जरूरी नहीं है, जिसको देखकर हमारे पूर्वजों ने कहावतें रची थीं। आवश्यक नहीं कि अब गर्मी के मौसम में ही लू चले या बारिश के मौसम में ही बाढ़ आए। यह भी जरूरी नहीं कि ठंड के सीजन में ही आप ठिठुरें या बसंत में ही भंवरे फूलों का पराग चूसने निकलें। यही हाल रहा तो हमे ऋतुओ का नामकरण भी फिर से करना पड़ेगा और ये नाम भी हाइब्रिड हो सकते हैं। मौसम का यह बदलाव मनुष्य के वजूद के लिए भी खतरा बन रहा है। हम खुद अपनी जड़े खोदने में लगे हैं। अपने हितसाधन के आगे प्रकृति का हर विधान हमे व्यवधान लगने लगा है। मानसून भी इस खेल को समझने लगा है, इसीलिए वह कभी भी ऑफ लाइन हो जाता है। फिलहाल तो उसका यही स्टेटस है। कुछ ऐसी ही परेशानी मौसम‍ विभाग की भी है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है ‘मौसम की तरह बदलते हैं उसके वादे, उस पर यह जिद कि तुम मुझपे एतबार करो।‘

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