वरिष्ठ पत्रकार डॉ. सैयद शुजात बुखारी की हत्या ने उथल-पुथल मचा दी. एक प्रतिष्ठित पत्रकार और एक जिंदादिल इंसान की इस दर्दनाक मौत ने घाटी और दुनियाभर में उनके जानने वालों को गमगीन कर दिया. इस घटना से हिंसक परिस्थितियों का वो रुख भी सामने आ गया, जिसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया था. अब लोग एक दूसरे से पूछने लगे हैं कि जब एक मोटरसाइकल पर सवार तीन या उससे अधिक लोग एक रायफल लेकर तमाम सुरक्षा चौकियों को पार कर लाल चौक के करीब प्रेस कॉलोनी पहुंचने के बाद यहां दिन दहाड़े एक प्रमुख पत्रकार और उसके दो अंगरक्षकों को गोलियों से भून सकते हैं, तो ऐसे हालात में श्रीनगर के आसपास या घाटी के दूसरे इलाकों में कौन सुरक्षित है.
शुजात की हत्या को काफी समय बीत चुका है, लेकिन पुलिस अभी तक इस घटना को अंजाम देने वालों की पहचान नहीं कर पाई है. दो लोगों को हत्या में शामिल होने के शक में गिरफ्तार किया जा चुका है. इनमें से एक शख्स वो है जिसका चेहरा, शुजात के मृत अंगरक्षक का पिस्तौल चुराते हुए कैमरे में कैद हो गया था. हालांकि अभी पता नहीं है कि यह हमलावरों का साथी था या फिर महज पिस्तौल चुराने का दोषी है. श्रीनगर में पुलिस इंस्पेक्टर जनरल स्वयं प्रकाश पाणी ने पत्रकारों को बताया कि इस मामले की तफ्तीश जारी है.
शुजात की हत्या ने दर्जनों सवालों को जन्म दिया है. आखिर वो कौन लोग रहे होंगे जिन्होंने रमजान के पवित्र महीने में ऐन इफ्तार के वक्त तीन लोगों को दर्जनों गोलियों से भून डाला? ट्रिगर दबाने वाली उंगलियां तो उनकी थीं, लेकिन उसका खाका तैयार करने वाले कौन लोग थे? हत्या का फतवा किसने दिया था? हत्या का मकसद क्या था और क्या वो मकसद पूरा हो गया? इसका फायदा किसे हुआ? हमलावर लाल चौक से महज 200 मीटर की दूरी पर स्थित इस भीड़-भाड़ वाले इलाके में एक रायफल समेत कैसे पहुंचे? क्या पुलिस और सुरक्षा एजेंसी को इसकी भनक भी नहीं लगी? रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुल्लत ने खुलासा किया है कि शुजात ने महज चंद दिनों पहले ही मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से अनुरोध किया था कि उन्हें और अधिक सुरक्षा दी जाए.
तो क्या शुजात को अंदाजा था कि उनपर हमला होने वाला है? फिर सरकार ने उनकी सुरक्षा क्यों नहीं बढ़ाई? सवाल यह भी है कि घटना के बाद पुलिस को घटना स्थल पर पहुंचने में बीस मिनट क्यों लगे, जबकि पुलिस स्टेशन महज 100 मीटर की दूरी पर स्थित है? इससे ज्यादा दूरी तक गोलियां चलने की आवाज सुनी गई थी, फिर पुलिस कहां सोई थी? घटना के बाद सुरक्षाबलों ने घटनास्थल के आसपास की घेराबंदी क्यों नहीं की, जैसा कि आम घटनाओं के बाद किया जाता है? हमले के बाद शहर के संवेदनशील इलाकों की नाकेबंदी क्यों नहीं की गई? इस पूरे इलाके में जगह-जगह सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं, जिनकी लाइव मॉनिटरिंग के लिए पुलिस कंट्रोल रूम में दर्जनों लोग तैनात रहते हैं, तो फिर उन्होंने उनका नोटिस क्यों नहीं किया, जो मोटरसाइकिल पर सवार होकर रायफल लिए घटनास्थल तक पहुंचे. उम्मीद तो यही की जानी चाहिए कि पुलिस तफ्तीश के बाद इन सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे, ताकि वास्तविक हत्यारों की पहचान हो जाए और ये पता चले कि इस हत्या के पीछे किन लोगों का दिमाग था.
बहरहाल, जो भी हो, शुजात बुखारी अब कभी नहीं लौटेंगे. उनके बारे में विभिन्न लोग विभिन्न राय रखते हैं. उनकी मृत्यु के कुछ ही घंटों के बाद फिल्मकार और सोशल एक्टिविस्ट अशोक पंडित ने सोशल नेटवर्किंग साइट पर शुजात बुखारी को आतंकवादियों की आवाज करार दिया. उन्होंने लिखा- ‘अब जबकि शुजात बुखारी नहीं रहे, ये ठीक नहीं कि उनके बारे झूठ फैलाया जाए. वो आतंकवादियों की आवाज और आजादी का प्रचार करने वाला था. बदकिस्मती से वो उन्हीं लोगों के हाथों मारा गया, जिनके हक में वो बोलता था और लिखता था.’ इधर कश्मीर में सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने शुजात बुखारी की इसलिए आलोचना की थी क्योंकि वे शांति वार्ता के हवाले से दुनियाभर में आयोजित होने वाली कॉन्फ्रेंसों में शरीक होने जाते थे. यानि अपने भी उन्हें दुश्मन समझ रहे थे और दुश्मनों ने तो कभी उन्हें अपना समझा ही नहीं.
शुजात बुखारी की मौत ने उनके माता पिता, उनकी पत्नी और दो मासूम बच्चों पर कयामत ढा दी है. उनकी असामयिक मौत ने उस संस्थान को भी खतरे में डाल दिया, जिसे शुजात बड़ी मेहनत से गत दस वर्षों के दौरान परवान चढ़ाते रहे. दस वर्ष पहले उन्होंने कश्मीर मीडिया हाउस के बैनर तले ‘राइजिंग कश्मीर’ नाम से एक अंग्रेजी अखबार शुरू किया था. उसके कुछ वर्ष बाद उन्होंने उर्दू दैनिक ‘बुलंद कश्मीर’ और कश्मीरी भाषा का अखबार ‘संगर माल’ शुरू किया. दो साल पहले उन्होंने ‘कश्मीर परचम’ के नाम से एक साप्ताहिक उर्दू अखबार भी शुरू किया था.
इसके अलावा ‘राइजिंग कश्मीर’ की ऑनलाइन न्यूज सर्विस के साथ उसका ऑनलाइन टीवी भी चल रहा है. यानि शुजात ने एक पूर्ण मीडिया हाउस स्थापित किया, जिनमें दर्जनों शिक्षित नौजवान रोजगार पा रहे हैं. जिस दिन शुजात की हत्या हुई, ‘राइजिंग कश्मीर’ की टीम ने उस रात भी दिल पर पत्थर रखते हुए अखबार निकाला. उनका कहना था कि ‘अगर शुजात से पूछा जाता, तो वे भी यही चाहते कि उनकी मृत्यु के दिन भी अखबार बंद न हो.’ शुजात की मौत उनके रिश्तेदारों और उनके संस्थान के लिए ही नहीं, बल्कि कश्मीरी जनता के लिए भी एक बहुत बड़ा नुकसान है, क्योंकि कोई भी बौद्धिक या पत्रकार रातों रात नहीं बन सकता. ऐसी शख्सियतों के परवान चढ़ने में वर्षों, बल्कि दशक लग जाते हैं. उनकी मौत से ऐसा खालीपन पैदा हो गया है, जिसे पूरा करना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव भी है.